२१ अक्टूबर १९९५ के दिन लाहौर (पाकिस्तान) से प्रकाशित दैनिक वर्तमानपत्र “सदाकत” की हेड-लाईन थी, “All Pakistani clergy demand extradition of the accursed renegade Anwar Shaikh from Britain to hang him publicly.” अर्थात् “पाकिस्तान के सभी मुल्ला-मौलवी ब्रिटेन से धर्मद्रोही अनवर शेख के प्रत्यार्पण की मांग करते है ताकि लोगों की नजर के सामने उनको फांसी पर लटकाया जा सके.” पाकिस्तान के लोगों का कहना था कि इस्लामी कानून के अनुसार अनवर शेख को ब्रिटेन से वापिस लाकर इस धर्मद्रोही की हत्या कर देनी चाहिए; यदि उनको खत्म नहीं किया गया तो और ज्यादा रश्दी पैदा हो जाएंगे; इस्लाम और उसके पयगम्बर की भव्यता को बचाने लिए दुनिया के मुसलमान इस धर्मद्रोही का शिरोच्छेद करने के लिए तत्पर है, आदि.
सवाल यह है कि यह अनवर शेख कौन थे? पाकिस्तान और दुनिया के अन्य देशों के मुसलमान उस पर इतने कुपित क्यों थे? इस्लाम की नजरों में अनवर शेख ने ऐसा कौना बडा गुनाह कर दिया था? अनवर शेख का गुनाह इतना ही था कि उन्होंने अपने लेख और पुस्तकों के माध्यम से इस्लाम के मजहबी जडतावाद के विरुद्ध खडे होने का साहस कर दिया था. उनका गुनाह केवल इतना ही था कि वे विभिन्न धर्मों के प्रामाणिक मूल ग्रंथों के व्यापक और गहन अध्ययन के बाद पयगम्बरवाद, अन्तिम नबी, आखिरत, आसमान से इल्म का उतरना, कुरआन, मानवता को मोमीन और काफिर में बांटना, समय को जाहिलीयत और ज्ञानयुग में बांटना, जेहाद, फरिश्तें, जन्नत और जहन्नुम, पयगम्बर की शिफारीस, आदि इस्लाम के मूल डोग्मा से किनारा कर उसके आलोचक बन गये थे और अपने मूल हिन्दू (वैदिक) धर्म की ओर जुक गए थे. संक्षेप में कहा जाए तो वे इस्लाम की नजरों में कत्ल के लायक apostate बन गए थे. जिस साल सलमान रश्दी पर “मौत का फतवा” जारी हुआ था उसी १९८९ की साल से श्री अनवर शेख ने Eternity, Faith and Deception, Islam: The Arab National Movement, आदि अपनी प्रसिद्ध पुस्तकें प्रकाशित करने की शुरूआत की थी.
अनवर शेख का जन्म १ जून १९२८ के दिन गुजरात (वर्तमान में पाकिस्तान में) के समिप एक गांव में हुआ था. संयोग से वह दिन हज्ज का दिन भी था. इसी दिन हुए श्री अनवर शेख के जन्म को परिवार के लोग एक शुभ संकेत मानते थे, इसलिए परिवार के लोगों ने प्यार से उनका नाम “हाजी मुहम्मद” रख दिया. बाद में यह नाम “मुहम्मद अनवर” में बदल दिया गया. “अनवर” का अर्थ होता है “प्रकाशक” (radiant). श्री शेख का कहना था कि, “इसी नाम ने परिवार वालों को मुझे मजहबी शिक्षा देने के लिए प्रेरित किया था. वे लोग सोचते थे कि मेरा जन्म इस्लाम के एक विद्वान बनने के लिए ही हुआ था.” उनका पालन-पोषण इस्लामिक भावावरण में हुआ था. माताजी न केवल मजहबी प्रकृति की थी, इस्लाम की विदूषी [scholar] भी थी. वह कम से कम आधी कुरान का अपनी स्मरण-शक्ति के आधार पर पाठ कर सकती थी. उनके दादाजी भी इस्लाम के विद्वान थे और दादाजी के छोटे भाई तो स्वयं पेशे से एक मुल्ला थे.
अपने दादाजी के बारे में वे कहते है, “He was a Kashmiri pundit. After conversion, he became an Imam Masjid, a fervent preacher of Islam. My grandfather was conscious of his Brahmin ancestry. He resented if anyone spoke ill of the Vedas, yet he could not return to his roots owing to the psychological grounding he had received over the years”. बचपन में ही अनवर शेख ने अरबी भाषा सिखनी शुरु कर दी थी. इस्लामी शिक्षा प्राप्त करने के साथ साथ सन् १९४६ में मेट्रीक्युलेशन किया. इसी बीच वे इस्लाम के सर्वमान्य विद्वान इमाम बुखारी, इमाम इस्लाम आदि के हदीस संग्रह तथा अरबी संस्कृति और इतिहास की पुस्तकें और मौलाना अबुल कलाम आजाद की कुरान तफसीर से भी परिचित हो चुके थे.
स्व. अनवर शेख ने एक बार कहा था, “१९४७ मेरे जीवन का सबसे अंधकारमय समय था. हमें कहा गया था कि गैर-मुस्लिमों की हत्या करना, उनकी महिलाओं को पकडकर दूषित करना, उनकी सम्पतिओं को जला देना, आदि जिहाद, यानि पवित्र युद्ध है. और यह जिहाद एक मुसलमान का सबसे पवित्र फर्ज है…”. जिहाद करते करते “शहीद” होने वालों के लिए जन्नत की हूरें और छोकरे समेत अन्य कई प्रलोभन दिये गए थे. आगे कहते है, “अगस्त १९४७ के प्रथम सप्ताह के एक दिन, जब मैं लाहौर की रेलवे ऑफिस में क्लर्क था, मैंने पूर्व-पंजाब से एक ट्रेन आती हुई देखी. वह ट्रेन मुस्लिम पुरुषों, महिलाओं और बच्चों के क्षत-विक्षत मृतदेहों से भरी हुई थी. इस दृश्य का मुझ पर एक भयानक प्रभाव पडा. घर पहुंचकर मैंने अल्लाह की प्रार्थना की और मेरे हिस्से की जन्नत की हूरें और छोकरे न भुल जाने की बिनती की… तुरंत मैं हाथ में एक डंडा और एक छुरी लेकर गैर-मुस्लिमों की शोध में निकल पडा… मुझे दो सिक्ख पुरुष – पिता और पुत्र – दिखाई दिए. मैंने दोनों को कत्ल कर दिया. अगले दिन मैं काम पर न गया… मैं कुछ और गैर-मुस्लिमों की हत्या करना चाहता था. दराबी रॉड पर मुझे एक और सिक्ख मिल गया और मैंने उनकी भी हत्या कर दी.
कई बार उन दिनों की याद आ जाती है, मैं लज्जित हो जाता हूँ, और कई बार मैं पश्चाताप के आंसु बहा चुका हूँ. यदि मैं इस्लामी परम्परा से प्रेरित न हुआ होता तो शायद वे लोग आज भी जीवित होते… किसने मुझे कहा था कि जिहाद – गैरमुस्लिमों की हत्या करना- एक उत्तम कार्य है?” अपने आपको पुछे गए इस सवाल के उत्तर मे अनवर शेख कहते है – “कुरान की कुछ शिक्षाएं”.
परिवर्तन का प्रारम्भ (मनोमन्थन) :
अनवर शेख कहते है कि इस्लाम में संदेह पैदा होने की उनकी कहानी काफी रोचक व विचित्र है. वे एक बार रावलपिंडी में थे. उस समय उनकी उम्र २५ या २६ साल की थी. एक दिन वे कुरान पढ रहे थे; कुरान पढते पढते सुरः संख्या ४९ पर पहुंचे. इस सुरः की प्रथम आयत में अल्लाह द्वारा विश्वासीयों (मुसलमानों) को कहा गया है कि वे जब पयगम्बर साहब की उपस्थिति में या पयगम्बर साहब के साथ वार्तालाप कर रहे हो तब ऊंची आवाज में न बोलें. श्री शेख सोचने लगे कि खुद पयगम्बर साहब यह बात सिधे अपने अनुयायीयों को नहीं कह सकते थे? अल्लाह मियां पयगम्बर साहब का कौन सा ऋणी था कि स्वयं उन्हें यह सलाह देने की जरुरत पड गई. श्री शेख को लगा कि यहाँ तो स्वयं परमात्मा ही उनके पयगम्बर के सेवक की तरह वर्ताव कर रहे है!!
इस आयत पर चिंतन-मनन कर श्री शेख इस निष्कर्ष पर पहुंचे कि यहाँ तो अल्लाह के नाम की आड में स्वयं पैगम्बर साहब ही अपने अनुयायियों को उनके सामने अच्छी तरह से पेश आने की हिदायत दे रहे है !! इससे पहले अनवर शेख कई बार कुरान पढ चुके थे, लेकिन अब उन्होंने निष्चय कर लिया कि अब से वे केवल आस्था के आधार पर कुरान नहीं पढेंगे. इस घटना के बाद उन्होंने समिक्षात्मक दृष्टि से कुरान का अध्ययन शुरु कर दिया और ठिक इसी समय से उन्होंने पयगम्बरवाद के सिद्धांत पर चिंतन-मनन शुरु कर दिया.
इसी तरह वे कुरान ३३:५६ पर भी संदेह करने को मजबूर हो गए. कुरान ४:८२ में कहा गया है कि यदि कुरान अल्लाह की ओर से न होती तो उसमें भी कई विरोधाभास पाए जाते. श्री शेख ने कुरान के इस दावे की भी परीक्षा की और पाया कि कुरान में भी महत्वपूर्ण बिन्दुओं पर ऐसे कई विरोधाभास है जो किसी भी साधारण मानवीय पुस्तकों में पाये जाते है. आगे चलकर उन्होनें कुरान के परस्पर विरोधी वचनो को दर्शाने वाली एक पुस्तक, “Faith & Deception”, लिखि. इस तरह कुरान के अध्ययन के कारण ही अनवर शेख धीरे धीरे इस्लाम से दूर हटते चले गए. इसे एक व्यक्तिगत मामला समजकर, उन्होंने ये शंकाएं किसीको बताई नहीं.
सन् १९४७ और १९५६ के बीच अनवर शेख ने ग्रोसरी का बिजनेस किया, लेकिन जब वे इस बिजनेस में निष्फल रहे तब उन्होंने डिप्लोमा किया और इस डिप्लोमा के बल पर वे शिक्षक बन गए और कुछ समय के लिए एक हाईस्कूल में हेड-मास्टर के पद पर भी कार्य किया. सन् १९५६ में उन्होंने ब्रिटेन जाने का निश्चय किया और बाय चांस कार्डिफ पहुंच गए. कार्डिफ में शुरुआत के तीन वर्ष तक परेशानियों ने पिछा नहीं छोडा. इन विकट आर्थिक परिस्थितियों में से बाहर निकलने के लिए बस कन्डक्टर बन गए. तीन वर्ष तक नौकरी करते करते धन की बचत करते गए, छोटी मोटी प्रोपर्टी खरीदते गए. आर्थिक परिस्थितियां सुधरती गई, मिनी लेन्ड-लोर्ड बन गए और अन्त में प्रोपर्टी डेवलोपर बन गए. उन्होंने यह बिजनेस २५ साल तक किया और सफलतापूर्वक किया और अपनी आर्थिक स्थिति से संतुष्ट होकर निवृत्त हुए.
उन्होंने कहा था कि, “There comes a moment when you have to judge whether to do something really constructive, worthwhile and creative or to make more money. I chose to do something constructive”. वे ब्रिटेन की प्रसिद्ध पत्रिका “Freethinker” के ग्राहक थे और उस समय तक अपने आपको एक मुक्त-विचारक (freethinker) के रुप में देखते थे, जो किसी भी प्रकार के अंधविश्वासों से मुक्त हो, जो अपने विचारों को प्रसिद्ध करने में संकोच नहीं करता, और साथ ही साथ दुसरे लोगों के विचारों का सम्मान करता हो, लेकिन जब उन्होंने ऋग्वेद का अध्ययन किया तो वे वेद के मानवतावादी अप्रोच से प्रभावित होने लगे. वे इस तथ्य से काफी प्रभावित हुए कि वेद का ईश्वर समूची मानवता [humanity] का ईश्वर है; वह पुरी मानवता को प्यार करता है. अनवर शेख कहते है कि मुस्लिम परम्परा, जो कि गैर-मुस्लिमों के प्रति घृणा करना सिखाती है, में पलें-बढे होने के कारण वदों की मानवतावादी शिक्षा का तथ्य जानना उनके लिए जीवन एक असामान्य घटना थी. वे कहते है, “So it is my own experience which eventually made me a humanist.”
अनवर शेख कहते है कि कुरान, हदीस और अरब के इतिहास के गहन अध्ययन ने उनको इस निष्कर्ष तक पहुंचाया कि इस्लाम की स्थापना “divide and rule” के सिद्धांत पर हुई थी और इस्लाम का ध्येय है समूचे विश्व पर कब्जा जमाने के लिए अरबों को सक्षम करना. अनवर शेख कहते है, “I have no doubt the Prophet wanted to raise himself to the same status as Allah”. अर्थात् “मुझे इसमें कोई संदेह नहिं कि पयगम्बर स्वयं को अल्लाह के दरज्जे तक ऊंचे उठाना चाहता था”. इस हेतु को सिद्ध करने के लिए प्रथम उसने मानवता (humanity) को हंमेशा के लिए युद्धरत दो समूहों मे बांट दिया. उसने अपने अनुयायीयों (मुसलमानों) को हिजबुल्लाह (अल्लाह की पार्टी) नाम दे दिया और जो उनका अनुसरण नहीं करते वे उनकी नजर में हिज्बुशैतान (शैतान की पार्टी) थे. अनवर शेख का कहना है कि मानवता (humanity) को हंमेशा के लिए युद्धरत दो समूहों मे बांट देने की युक्ति कार्ल मार्क्स के “वर्ग-विग्रह” कि याद दिलाती है.
अनवर शेख कहते है कि इस्लाम का सृजन अरब मूल्यों को गैर-अरब प्रजा पर थोपने के लिए किया गया था. गैर-अरब मुस्लिम अरब लोगों को अपने से उच्च मानकर चले यह सुनिश्चित करने के लिए पयगम्बर साहब ने मक्का को इस्लाम का केंद्र बना दिया और यह प्रचलित कर दिया कि स्वयं अल्लाह ने मानव जात के आदि पुरुष आदम को मक्का स्थित काबा का निर्माण करने का आदेश दिया था. पयगम्बर साहब ने काबा की यात्रा [हज्ज] हर सक्षम मुसलमान के लिए अनिवार्य कर दी. इस्लाम-पूर्व की इस परम्परा को इस्लाम का अविभाज्य अंग बनाने के पीछे का वास्तविक उद्देश्य था अरब को आर्थिक लाभ पहुंचाना. इस्लाम विषयक गहन अध्ययन और चिंतन ने श्री शेख को “Islam: The Arab National Movement”, आदि पुस्तकें लिखने को प्रेरित किया.
अनवर शेख ने 1. Eternity, 2. Islam: The Arab Imperialism (इस्लाम: अरब साम्राज्यवाद), 3. Islam: The Arab National Movement (इस्लाम: अरब राष्ट्रीयता का साधन), 4. Islam, Sex and Violence (इस्लाम: कामवासना और हिंसा), 5. This is Jihad, 6. Gandhi & Jinna: A Tale of Two Gujaratis, 7. Faith and Deception, 8. Autobiography of a Dissident, 9. Taxation and Liberty आदि पुस्तकें लिखि और प्रकाशित की है.