केरल के गुरुवायूर में देवस्थान के सामने एक हाथी की विशाल मूर्ति लगी है। केशवन नाम के उस हाथी का देहावसान 1976 में एकादशी के दिन हुआ था। जिसके बाद श्रद्धालुओं ने करुणाविगलित हृदय से उसकी मूर्ति प्रतिष्ठित करवाई। पैंतीस वर्ष तक हर उत्सव में देवता की प्रतिकृति यानी थिडम्बु को केवल केशवन की पीठ पर सजाया जाता रहा। केशवन की दिव्य चेतना इतनी सूक्ष्म थी कि वह केवल उन्हीं भक्तों को अपने अग्रपाद मोड़कर सामने से आरोहण की अनुमति देता, जो देवपालकी उठाया करते। अन्य लोगों को पीछे से चढ़ना पड़ता था। वह अपने जीवनकाल में एक बार भी हिंसक न हुआ। जब वह अंतिम बार अयप्पा स्वामी की प्रतिकृति अपनी पीठ पर लिए उत्सव में चला जा रहा था, तभी उसकी देह में थरथराहट होने लगी। किन्तु उसने देव प्रतिमा को गिराया नहीं। वह ठहर गया। मानो, कोई दुखद संकेत कर रहा हो। अपने अशक्त असहाय होने का मौन संकेत।
उसे उसके निवास स्थल पर ले जाया गया। जहां उसने लगभग चौबीस घंटे तक उपवास कर अपने प्राण त्यागे। प्राणोत्सर्ग से पहले उसने अपना शुण्ड उठाकर भगवान को प्रणाम किया। अपनी अंतिम मूकप्रणति के साथ ही एकादशी के दिन वह विदा हुआ। केशवन वहां के राजपरिवार का गज था। जिसे नीलाम्बूर के जंगल से लाया गया था। राजपरिवार ने देवता से प्रार्थना करते हुए कहा था कि अगर वह अपने कष्टों से मुक्त हुए तो एक हाथी स्वामी के चरणों में सेवा के लिए सौंप देंगे। स्वामी की कृपा हुई। केशवन नाम का गजराज भगवान अयप्पा का सेवक बन गया। मैं केशवन की कथा पढ़कर जड़ हो गया था। लेकिन केशवन की दिव्य कथा से पहले मैंने दक्षिण अफ्रीका के पर्यावरणविद् लॉरेंस एंथनी का लोमहर्षक वृत्तांत पढ़ा था।
दक्षिण अफ्रीका के पर्यावरणविद्, संरक्षणकर्ता और अन्वेषक लॉरेंस एंथनी ने विलुप्तप्राय प्राणियों, जनजातियों के संरक्षण और उनके पुनर्वास में अपना जीवन लगाया था। उन्होंने भिन्न-भिन्न जंगली जानवरों के संरक्षण के क्रम में एक वक्त ज़ुलुलैंड के थुला-थुला गेम रिज़र्व में कई जंगली हाथियों को बचाया था। ये वो वारण थे जो मनुष्य के हाथों मार दिये जाने के कगार पर थे, लेकिन लॉरेंस अपनी आंखों की भाषा और आत्मीयता से उन हाथियों में मनुष्यों के प्रति फिर से विश्वास जगा सके।
ये हाथी लॉरेंस से परिचित होने से पूर्व इंसानों को मार डालते थे या खुद मारे जाते । लॉरेंस ने न सिर्फ उन हाथियों को बचाया बल्कि मनुष्य और पशु के सहअस्तित्व को पुनर्परिभाषित भी किया, जो कि 2012 में उनकी मृत्यु के बाद एक अविस्मरणीय घटना से प्रमाणित हो जाता है । लॉरेंस की मृत्यु के दो दिन के बाद 112 किलोमीटर दूर के जंगलों से 31 मतंगों का झुण्ड उनके घर तक आ पहुंचा । यह गजदल दो दिनों तक लॉरेंस के घर के बाहर डेरा जमाए रहा। इस दौरान हाथियों के इस झुण्ड ने कुछ खाया पिया भी नहीं। उन्होंने लॉरेंस के गुजर जाने का शोक वैसे ही मनाया जैसे अपने झुण्ड के किसी सदस्य की मृत्यु पर मनाते रहे थे। दो दिन के बाद सभी महाकाय पशु धीरे-धीरे अपने वन में लौट गये।
यहां आश्चर्यजनक बात यह नहीं है कि हाथियों ने इंसान की मृत्यु का शोक मनाया बल्कि आश्चर्यजनक बात यह है कि संवाद का वह कौन सा तार था जो लॉरेंस की मृत्यु का संदेश लेकर उन हाथियों तक जा पहुंचा ? दिशाओं से मिलने वाला वह कौन सा ज्ञान–आत्मा का वह कौन सा अदृश्य आलेख, जिसे पढ़कर कुंजरों को यह ज्ञात हो गया कि उन्हें जीवन देने वाले लॉरेंस इस दुनिया से जा चुके हैं।
क्या यह साक्षात ईश्वरत्व की अनुभूति नहीं है ? लॉरेंस ने 2003 में इराक पर अमेरिकी हमले के दौरान बगदाद के चिड़ियाघर से जानवरों को भी बचाया था । मृत्यु से पहले वह विशालकाय सफेद गैंडों को बचाने में जुटे थे । लॉरेंस और उन हाथियों के बारे में जानते हुए मैं यह मानने लगा हूं कि जैसे मनुष्यों में पशुता होती है वैसे ही पशुओं में भी बहुत अधिक मनुष्यता होती है। दोनों के सहअस्तित्व की भूमिका उसी मनुष्यता से तैयार होती है जो दोनों में समान रूप से विद्यमान है। बीते दिनों.. मैंने दर्जनों प्राचीन मंदिरों की भित्तियों और प्रवेश द्वार के आसपास, विशेषकर मुख मंडप आदि पर गजदलों को शोभायमान पाया। ये गज मूर्तिरूप में अनिवार्य रूप से इन मंदिरों में पाए जाते हैं। किसी भी अन्य पशु की उपस्थिति मंदिरों में उतनी नहीं होती, जितनी हाथियों की होती है। इन दोनों कथाओं से इस उपस्थिति का उत्तर भी मिल जाता है।”
साभार – https://www.facebook.com/bhartiyadharohar1/ से
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