कंटीले जंगलों और पथरीली पहाड़ियों के बीच अपनी सैकड़ों कोसों की यात्रा पैदल ही पूरी कर वह भागा हुआ कैदी अपनी जन्म भूमि बून्दी दुर्ग के निकट अन्त में पहुंच ही गया। इस संकटमयी यात्रा में कितनी ही रातें इसने पेड़ों पर सोते और जागते हुए बितायी थीं। कितने ही दिन भूखे प्यासे रहकर कंटीली झाड़ियों और नुकीली पथरीली पहाड़ियां, जंगली दरिन्दों की भयानक और डरावनी आवाजें सुनते हुए ही चलते-चलते गुजारे थे। शरीर के कपड़े झाड़ियों के कांटों में उलझ-उलझ कर तार-तार हो गये थे। नंगे पैर कांटों और नुकीले पत्थरों के चुभन से लहूलुहान हो रहे थे। इस भयानक यात्रा में जंगली कंदमूल खा-खाकर इस भागे हुए कैदी को अपने पेट की आग बुझानी पड़ती थी।
मालवा प्रदेश की राजधानी मांडुगढ़ से बून्दी तक का यह जो भयानक जंगली मार्ग इस चौदह वर्षीय सुकुमार बालक ने पूरा किया था। इससे पहले आज तक किसी भी व्यकि ने इस मार्ग से इतनी लम्बी यात्रा न की थी क्योंकि उनके लिए तो आम रास्ते, शहरों और गांव के बीच होकर जाने वाली सुन्दर सड़कें खुली हुई थीं। पर वो सड़कें इस भागे हुए कैदी के लिए बन्द थीं क्योंकि इन्हीं सड़कों पर सुलतान के सिपाही इस को ढूंढने के लिए शिकारी कुत्तों की तरह भाग दौड़ कर रहे थे। थके टूटे बालक ने पावन बून्दी दुर्ग को हाथ जोड़कर प्रणाम किया। अब उसके पैरों में आगे बढ़ने की शक्ति नहीं रह गई थी। महीने भर की इस लम्बी एकान्त यात्रा में उसके मुंह से एक शब्द भी नहीं निकला था और न ही उसे बोलने की जरूरत पड़ी थी। और आज तो उसके मुंह से आवाज निकालने की शक्ति भी बाकी नहीं रह गई थी। वह इसके आगे एक पग भी न चल सका। और दुर्ग के दरवाजे पर बेहोश होकर गिर पड़ा।
प्रातः काल दुर्ग के पहरेदारों ने देखा कि एक बेहोश बालक बेसुध पड़ा है। थोड़ा-सा उपचार करने पर बालक होश में आ गया। उसे बून्दी महाराज के दरबार में लाया गया। उसने घुटने टेक कर महाराज को प्रणाम महाराज की आंखों में इस सुन्दर बालक की दुर्दशा देखकर अपार करुणा छलछला गयी। स्नेह संचित स्वर में महाराज ने पूछा, “बालक! तुम कौन हो?” बालक ने भर्राये कण्ठ से कहा, “भैया! क्या मुझे पहचाना नहीं? मैं हूं आपका छोटा भाई शाम सिंह।” इन शब्दों को सुनकर सारे दरबार में सनसनी फैल गई। राजदरबार के खम्भे तक थरथरा उठे। सारे दरबारी हैरान होकर सुंदर बालक की ओर देखने लगे।
हम यहां से पाठकों को दस वर्ष पीछे ले जा रहे हैं, जब सन् १४५७ में मालवा के सुलतान ने बून्दी राज पर आक्रमण किया था। बून्दी महाराज वीरसाल ने बड़ी वीरता से अपने हाड़ा वीरों का साथ शत्रु का मुंहतोड़ मुकाबला किया था। मगर दुर्भाग्य से वो युद्ध क्षेत्र में काम आये और बून्दी की सेना शिकस्त खा गई। शत्रु सारी बून्दी को लूट-खसूट कर सब मालो ज़र अपने साथ ले गये। वो कुचक्र से महाराज के सबसे छोटे पुत्र चार वर्षीय राजकुमार शाम सिंह को भी जबरदस्ती छीन कर साथ ले गये। यह राजकुमार बड़ा होनहार था और राजपरिवार और प्रजा को बड़ा प्रिय था। महारानी तो इस पुत्र वियोग से पागल सी हो गई थीं। वह यही कहतीं, “मेरा शामू मेरे मरने से पहले मेरी गोद में एक बार जरूर आयेगा।” पर बून्दी में यह कोई नहीं जानता था कि राजकुमार शामसिंह कहां हैं। उसे सुलतान के सिपाहियों ने सुलतान की छोटी बेगम के सुपुर्द कर दिया। छोटी बेगम इस सुन्दर बालक को पाकर खिल उठीं। और उसने अपने हृदय का सारा स्नेह इस बालक पर उंडेल दिया। इस बालक को पाकर जैसे उसका सारा जीवन सार्थक हो गया। उस बेगम ने बालक का नाम शहजादा समरकंद रख दिया।
इस तरह आठ वर्ष बीते। छोटी बेगम और बालक ऐसे रहते जैसे सच्चे ही मां-बेटे हों। एक दिन राजकुमार ने छोटी बेगम से कहा, “कभी-कभी मुझे भूली-सी बात याद आया करती हैं। बचपन की याद बहुत छोटे पन की याद ऐसा याद आता है, जैसे जिस मां की गोद में बैठ कर मैंने दूध पिया है वह कोई और थी।” स्त्री का हृदय चाहे वह किसी देश, जाति या धर्म की हो हमेशा से कोमल रहा है और इस कोमलता के वशीभूत होकर छोटी बेगम ने सारा राज राजकुमार से कह दिया कि तुम वास्तव में बून्दी के राजकुमार हो। हमारे सिपाही तुम्हें तुम्हारी मां की गोद से छीन लाये हैं। ऐसा सुनकर मानों राजकुमार का राजपूती खून जोश मार उठा। मैं बून्दी जाऊंगा, मैं बून्दी जाऊंगा। अब यहां नहीं रह सकता। यह आवाज सुलतान के कानों तक भी जा पहुंची। बारह वर्ष का सुकुमार राजकुमार बंदी बना लिया गया।
बन्दी गृह में राजकुमार ने स्पष्ट कहा दिया कि मैं म्लेच्छों के हाथ का भोजन नहीं करूंगा। चार दिन और चार रात राजकुमार को बन्दी गृह में भूखे ही बिताने पड़े। यह वृतान्त जब छोटी बेगम ने सुना तो उसका हृदय तड़प उठा। उसने भी चार दिन और चार रातें भूखे बिता दीं। तब सुलतान की आज्ञा हुई कि राजकुमार अपने हाथ से बन्दी गृह में भोजन बनाकर खा सकता है। इस तरह बन्दीखाने में दो वर्ष और बीत गये। बन्दीगृह का पहरेदार कासिम बड़े कोमल हृदय का मुसलमान था। वह बून्दी की युद्ध कथायें राजकुमार को सुनाया करता जिसे सुनकर राजकुमार का हृदय बन्दी गृह में भी गर्व से फूल जाता। राजकुमार दिल में सोचता यह जीवन बन्दीगृह में घुट-घुट कर खत्म करने के लिए नहीं है। वह बन्दी गृह की दीवार पर खड़े होकर दीवार फांदने की तरकीबें सोचता, दीवार से पच्चीस गज नीचे एक पीपल का पेड़ था। वह सोचता कि अगर मैं दीवार से कूदकर पीपल की शाखा को पकड़ सकूं तो इस बन्दी गृह से मुक्त हो सकता हूं। और अगर शाखा हाथ न आयी तो सैकड़ों गज नीचे खाई में गिरकर जान दे दूंगा। इस बन्दीगृह से मुक्ति तो मिल जायेगी।
एक रात वह दीवार पर खड़े होकर दिल में हाड़ा वंश के पूर्वजों का नाम लेकर नीचे कूद पड़ा। सौभाग्य से पेड़ की शाखाओं ने उसे थाम लिया। अब अंधेरी रात में वह स्वतन्त्र था और उसका हृदय गदगद था कि वह अपनी जन्मभूमि बून्दी के दर्शन कर सकेगा। वह रात के अंधेरे में ही भागे जा रहा था। सुबह होने तक वह इतना दूर निकल जाना चाहता था कि सुलतान के सिपाही उसका पता न पा सकें, यही हमारे इस वीर बालक की कहानी है।
जब पत्थर को भी पिघला देने वाली इस करुण कथा को महाराज ने सुना तो उसकी आँखों में आंसू आ गये और उसने राजसिंहासन से उठकर बालक को हृदय से लगा लिया। तब राजपुरोहित ने राजकुमार से पूछा, “आपने म्लेच्छों के हाथों से खाया भी होगा।” राजकुमार ने सरल स्वभाव से कहा, “तब तो मैं अबोध था। मुझे वास्तविकता का पता नहीं था। जब पता लगा तो मैंने म्लेच्छों के हाथ का खाना छोड़ दिया।” वज्र हृदय राजपूत बोल उठा, “तुमने वर्षों म्लेच्छों के हाथ का खाना खाया है। तुम विधर्मी हो गये हो। अब बून्दी राजपरिवार तुम्हें वापिस नहीं ले सकता। तुम्हारे लिए हिन्दूधर्म में कोई स्थान नहीं।” सारे दरबार में सन्नाटा छा गया तब प्रधानमन्त्री ने गम्भीर स्वर में कहा, “इसमें अबोध बालक का क्या दोष? इस गलती का कोई प्रायश्चित तो ढूंढना ही होगा।” राजपुरोहित ने कहा, “इस गलती का कोई प्रायश्चित नहीं हो सकता। म्लेच्छ के हाथों का खाने वाला पतित हो चुका है। उसके साथ सम्पर्क करने वाला भी पतित हो जायेगा।”
राजकुमार शामसिंह आगे बढ़ा और महाराज को सम्बोधित करते हुए बोला, “मेरे शरीर में वही रक्त बहता है, जो पुण्य प्रतापी महाराजा वीरसाल के शरीर में बहता था। इन हाथों में भी तलवार पकड़ने की वह ताकत है जो मेरे पूर्वजों के हाथों में थी। मैं महाराज की आज्ञा पाकर मालवा के सुलतान का सिर काटकर ला सकता हूं या उसे बन्दी बनाकर आपके चरणों में हाजिर कर सकता हूं। मेरी आकांक्षा है कि दिल्ली के दुर्ग पर फिर एक बार चौहानों की विजय पताका लहराये। और मैं आपको भारत का सम्राट बनाऊं। मुझे अपने चरणों में जगह दें।” पर महाराज ने वीर बालक की एक बात का भी उत्तर नहीं दिया। राजकुमार शामसिंह का दिल टूट गया। क्या यही सब कुछ देखने के लिए उसने दो साल बन्दीगृह की तकलीफों को सहा? क्या इसीलिए वह महीना भर भूखा-प्यासा जंगलों और पहाड़ों की खाक छानता हुआ बून्दी के लिए आया था? तभी उसे याद आयी छोटी बेगम की जिसने माता के तुल्य अपनी स्नेह गोद में उसे विश्राम दिया। वह भागा हुआ कैदी बून्दी से दुत्कारा हुआ फिर मालवा के लिए लौट पड़ा।
इसके बाद की कहानी इतिहास की काली कहानी है और हमारे पूर्वजों की गलतियों की कहानी है और ऐसे कारणों से ही वे दूसरों के गुलाम बने और पददलित होते रहे। राजकुमार मालवा लौट आया और उसके आने पर बड़ी खुशियां मनाई गयीं। वह समरकंद नाम का शहंशाह कहलाया और उसने बून्दी पर चढ़ाई कर दी और उसने बून्दी की ईंट से ईंट बजा दी। वह फातिह की सूरत में राजमहल में जाता है और उजड़ी हुई बून्दी की दुर्दशा देखकर उसका हृदय हाहाकार कर उठता है। जब वह और आगे बढ़ा तो उसे एक तरफ से आवाज आयी ‘बेटा’। राजकुमार ने देखा इस सुनसान महल में सफेद वस्त्रों को धारण किये एक वृद्धा पुकार रही थी, “आओ शाम बेटा! मैं तेरी ही प्रतीक्षा कर रही थी।” आंखों भरी आंखों से राजमाता कह रही थी, “बेटा! मैं जानती थी तुम आओगे। पर मैंने स्वप्न में भी यह नहीं सोचा था कि तुम्हें एक बार देखने की इतनी कीमत देनी पड़ेगी। अब मैं आकाश की तरफ संकेत कर वहां चली जाऊंगी। तुम्हें देखने के लिए मेरे प्राण अटके हुए थे। बेटा! आज मैं जा रही हूं। तेरी इस मां ने तेरे वियोग का बड़ा दुःख सहा है। बेटा! पर आज तो दुःख मेरे हृदय में दावानल भड़काये हुए हैं। उसके मुकाबले पर जीवन भर के सारे दुःख, कष्ट तुच्छ हैं। मेरा हीरा सा बेटा, अर्जुन सा वीर, युद्धिष्ठिर सा सत्यवादी पर सारीदुनिया इसे म्लेच्छ कहती है, यह घाव मेरा हृदय चीर रहा है।”
मां मेरे हृदय में भी यही घाव मुझे अशान्त किये हुए हैं। जिस धर्म में मेरी श्रद्धा है, जिसका पालन कर मेरी आत्मा को शान्ति मिल सकती है, इस हिन्दू धर्म के अनुयायी मुझे म्लेच्छ कहते हैं। जिस मजहब में मेरी श्रद्धा नहीं, जहां मुझे शान्ति नहीं मिलती, उस मजहब के लोग मुझे सिर आंखों पर बिठाते हैं। इस दुनिया में मुझसे अभागा कौन होगा? जब मुझे कहीं शान्ति न मिली तो मैंने सोचा बून्दी में चलकर रहूं। अब भी मेरे हृदय में परिताप की ऐसी भीषण आग चल रही है, जैसी घोर नरक में भी न जलती होगी।
मेरे लाल दुनिया तुझे जो कहे, मैं तो जानती हूं कि मेरा बेटा जरा भी तो बदला नहीं। मेरा सोना आग में पड़कर दमका ही तो है। बेटा! तू ही मेरा अग्नि संस्कार करना। दुनिया भले ही कहे, म्लेच्छ पुत्र के हाथ से मेरी सद्गति न होगी! पर बेटा! मैं तो जानती हूं कि तेरे ही हाथों से आग पाकर मेरी आत्मा को सद्गति मिलेगी। अभागी कौम ने न जाने कितने लाल खोकर अपना सर्वनाश किया और दूसरों से पददलित हुई। त्रिलोकी नाथ जानते हैं कि मेरा बेटा वैसे ही पवित्र है जैसे ऋषि-मुनियों के हृदय पवित्र होता है।
भगवान् से मेरी यही अन्तिम प्रार्थना है कि यह अभागी हिन्दू जाति अपने को ठुकराने की इस भयंकर भूल को समझे और जिसे झूठे धर्म के फेर में पड़ी है उससे वह छूटे और अनुभव करे कि अपनों को अपनाना ही सच्चा धर्म है।
प्रस्तुति- प्रियांशु सेठ
-आर्य गजट हिंदी मासिक (१९७४) से साभार
[स्त्रोत- शांतिधर्मी मासिक पत्रिका का सितम्बर २०२० का अंक]