कमलापति कल्याण गुणामृत निषेवया।
पूर्ण कामाय सततम् पूर्णाय महते नमः ॥
सनातन धर्म श्री सम्प्रदाय के आचार्यों की श्रृंखला में दक्षिणभारत के पेरिय नम्बि परांकुशदास महापूर्णस्वामीजी के बारे में कतिपय सूचनाओं से अवगत कराएंगे। सनातन अर्थात श्री सम्प्रदाय के आचार्यों की श्रृंखला में दक्षिण भारत के आचार्यों का महत्वपूर्ण योगदान रहा है। इस कड़ी में पुण्डरीकाक्ष जी के बाद उनके शिष्य राममिश्र जी और उनके बाद उनके शिष्य परांकुश जी हुए थे उसके बाद उनके शिष्य यामुनाचार्य जी और उनके बाद रामानुज जी हुए हैं ।
पेरिय नम्बि को परांकुशदास श्री महापूर्ण स्वामीजी भी कहा जाता है। परांकुशदास महापूर्णाचार्य का ही दूसरा नाम है। परांकुश का मतलब सर्वशक्तिमान होता है।
वे आळवन्दार् श्री यामुनाचार्यजी के ही शिष्य और रामानुजाचार्य के गुरु रहे हैं । उनका जन्म श्रीरंगम में मार्गशीर्ष् मास, ज्येष्ठ नक्षत्र में हुआ था। आळवन्दार (श्री यामुनाचार्य स्वामीजी) के समय के बाद , सारे श्रीरंगम के श्रीवैष्णव पेरिय नम्बि से विनती करते है की वह श्री रामानुजाचार्य को श्रीरंगम मे लाये । अतः वह श्रीरंगम से अपने सपरिवार के साथ कांचीपुरम की ओर चले। इसी दौरान श्री रामानुजाचार्य भी श्रीरंगम की ओर निकल पडे।
भगवान पेरुमल थे जो सदैव इळयाळ्वार स्वामीजी की बचाव करते थे और उनको पेरिय नम्बि जी के पास जाने को प्रेरित करते थे, और कहते की आप पेरिय नम्बि से पञ्च संस्कार करवाइये और उनके शिष्य बन जाइये।
वरदराज पेरुमाल मंदिर भारत के तमिलनाडु राज्य के कांचीपुरम तीर्थ-नगर में स्थित भगवान विष्णु को समर्पित एक हिन्दू मंदिर है। यह दिव्य देशम में से एक है, जो विष्णु के वह 108 मंदिर हैं जहाँ 12 आलवार संतों ने तीर्थ करा था। यह कांचीपुरम के जिस भाग में है उसे विष्णु कांची कहा जाता है।
इळयाळ्वार स्वामीजी (श्री रामानुजाचार्य) कान्चि छोड़ कर जाते हैं, फिर पेरिय नम्बि से कान्चि के रास्ते में मिलते है| आश्चर्य की बात यह थी की वे दोनो मदुरान्तगम् मे मिलते है और तभी पेरिय नम्बि श्री रामानुजाचार्य का पञ्च संस्कार करते हैं और कान्चिपुरम पहुँचकर श्री रामानुजाचार्य को सम्प्रदाय के अर्थ को बतलाते है।इसी बींच रामानुजाचार्य की धर्मपत्नी पेरियनम्बि (जिनका कुल नीचा था) के प्रति असद्भावना होने की वजह से पेरियनम्बि दुखित होकर अपने परिवार के साथ श्रीरंगम वापस लौट गए ।
पेरिय नम्बि एक महान आचार्य थे जिन्हें श्री रामानुजाचार्य के प्रति अत्यधिक लगाव और सम्मान था।
जब उनकी बेटी को अलौकिक सहायता की जरूरत थी तब इसके हल के लिये अपनी बेटी को रामानुजाचार्य के पास जाने का उपदेश देते है।वह जानते थे कि इस तरह के अच्छे कर्मों को कभी स्थगित नहीं किया जाना चाहिए ।
एक बार श्रीरामानुजाचार्य अपने शिष्यगण के साथ चल रहे थे तब अचानक श्रीरामानुजाचार्य के गुरु पेरियनम्बि उनको दण्डवत प्रणाम करते है । तब श्रीरामानुजाचार्य इस क्रिया का स्वीकार या समर्थन नही करते क्योंकि किसी भी शिष्य को अपने आचार्य का प्रणाम स्वीकार नही करना चाहिये । इस क्रिया से सभी शिष्य आश्चर्यचकित होते देखकर श्रीरामानुजाचार्य अपने आचार्य से पूछते है,” उन्होने ऐसा क्यों किया ?” तब श्रीपेरियनम्बि कहते है कि “रामानुजाचार्य मे वह अपने आचार्य श्री यामुनाचार्य को देखते है इसीलिये उन्होने दण्दवत प्रणाम किया |” वार्ता माला में एक विशेष वचन सूचित करती हैं की आचार्य को अपने शिष्य के प्रति बहुत सम्मान होना चाहिए और पेरियनम्बि उस वचन के अनुसार जीवन यापन किए हैं ।
पेरियनम्बि मारनेरीनम्बि (जो शूद्र होने के बावजूद यामुनाचार्य के शिष्य हुए और फिर एक महान श्रीवैष्णव बने) का अन्तिम संस्कार करते है , जब वह परपदम को प्रस्थान हुए । इस क्रिया का समर्थन अधिकतर श्रीवैष्णव नही करते और वे श्रीरामानुजाचार्य को इस घटना के बारें मे बताते है । यह जानकर जब श्रीरामानुजाचार्य पेरियनम्बि से पूछते है तब पेरियनम्बि कहते है की उन्होने सीधा आळ्वार के श्रीसूक्तियों ( तिरुवाय्मोळि – पयिलुम् चुडरोळि (3.7) और नेडुमार्क्कडिमै (8.10) ) का पालन किया और यही वार्दात श्री अळगिय मनवाळ पेरुमाळ्नायणार अपने आचार्य हृदय मे कहते है और यह हमारे गुरुपरंपराप्रभावम् मे भी है ।
एक बार पेरियपेरुमाळ को कुछ कुकर्मियों से खतरा था यह जानकारी प्राप्त कर श्रीवैष्णव निश्चय करते है की पेरियनम्बि ही सही व्यक्ति है जो देवालय की प्रदक्षिणा कर सकते है । तब वह श्री कूरत्ताळ्वार को अपने साथ प्रदक्षिणा करने को बुलाते है क्योंकि कूरत्ताळ्वार ऐसे एक मात्र भक्त थे जिन्होने परतन्त्रता का दिव्यस्वरूपज्ञान मालूम था । यही विषय नम्पिळ्ळै अपने तिरुवाय्मोलि (7.10.5) ईडु व्याख्यान में बताते हैं ।
इसके पश्चात , एक बार शैव राजा ने श्री रामानुजा- चार्य को अपने दरबार मे आमंत्रित किया जिससे समाधान मे श्री कूरत्ताळ्वार (श्रीरामानुजाचार्य के भेष मे) और बूढे श्री पेरियनम्बि उनके साथ गए । यह शैव राजा को श्रीरामानुजाचार्य के प्रति सद्भावना नही होने के कारण अपने अनुचरों को आज्ञा देते है की श्रीरामानुजाचार्य के आँखें नोच लें । तब श्री पेरियनम्बि राज़ी होकर अपने आपको समर्पित करते है और उनकी आँखें नोच ली जाती है । अपने वृध्द अवस्था मे होने के कारण श्री पेरियनम्बि परम पद को प्रस्थान करते है । कहते है की उनके अन्तिम काल के इस घटना से एक सीख मिलती है ।
श्री कूरत्ताळ्वान और पेरियनम्बि कि बेटी (अतुळाय) कहते है कि जैसे भी हो आप अपने प्राणों को ना त्यागें, क्योंकि श्रीरंगम ज्यादा दूर नही है । यानि वह अपने प्राण तभी त्यागें जब वह श्रीरंगम पहुँचे । यह सुनकर श्री पेरियनम्बि तुरन्त रुकने को कहते है और फिर कहते है अगर इस घटना को लोग कुछ इस प्रकार समझेंगे कि अपने प्राणों का त्याग श्रीरंगम मे करना जरूरी है तब वह एक श्रीवैष्णव के वैभव को सीमित करने के बराबर है और यह कदाचित भी नही होना चाहिये । अतः वह वही अपने प्राणों को त्यागते है ।
आळ्वार कहते है –
“वैकुंठमागुम् तम् ऊरेल्लाम्” –
यानि जहाँ श्रीवैष्णव रहते है वही वैकुंठ हो जाता है । अतः हमारे लिये यह जरूरी है की हम जहाँ भी हो भगवान पर पूर्णनिर्भर रहे क्योंकि ऐसे कुछ लोग जो दिव्यदेशों मे रहने के बावज़ूद नही समझते की उनपर भगवान की असीम कृपा और प्रशंशनीय आशीर्वाद है और इसके व्यतिरेक मे ऐसे श्रीवैष्णव है जो सदैव भगवद्चिंतन मे रहते है (जैसे – चाण्डिलि और गरुड की घटना) ।
पेरिय नम्बि हमारे सम्प्रदाय के सच्चे सिद्धांतों को जानते थे जो कभी भगवान के भक्त को अलग नहीं करते थे और सभी को प्यार और सम्मान के साथ समान रूप से व्यवहार करते थे । वह अपने शिष्य रामानुज से इतना प्यार करते थे कि उन्होंने हमारे सम्प्रदाय के भविष्य के आचार्य के लिए अपना जीवन त्याग दिया । उस समय, वहां के शैव राजा ने रामानुजा को अपनी मांगों को स्वीकार करने के लिए अपनी अदालत में आने का आदेश दिया था।
जब राजा उन्हें अपनी मांगों को स्वीकार करने का आदेश देता है, तो श्री कूरेश (कूरत्ताज़्ह्वान्) और पेरिय नम्बि दोनों राजा की मांगों को नहीं मानते हैं। राजा बहुत क्रोधित हो गया और अपने सैनिकों को उनकी आंखें निकालने का आदेश दिया। वृद्धावस्था के कारण दर्द को सहन करने में असमर्थ, पेरिय नम्बि अपना जीवन छोड़ देते है और श्रीरंगम जाने के रास्ते में परमपद चले जाते है, अंत समय में पेरिय नम्बि स्वामीजी कुरेश स्वामीजी की गोद में अपना सिर रखते है और फिर परमपद को प्रस्थान करते है। इन महान आत्माओं ने बिना किसी चिंता के सब कुछ त्याग दिया, हमारे रामानुज स्वामीजी की रक्षा करने के लिए, जो एक मोती के हार में केंद्रीय मणि की तरह हैं, जिसे हमारे श्री रामानुजा सम्प्रदाय कहा जाता है, मोतियों के रूप में सभी आचार्यों ने हार को एक साथ रखा और देखा कि केंद्रीय मणि सुरक्षित रहे । तो हम सभी को अपने आचार्यों के प्रति हमेशा आभारी रहना चाहिए और हमेशा अपने जीवन से नम्र होना चाहिए।
अतः हम देख सकते है की श्री पेरियनम्बि कितने उत्कृष्ट श्रीवैष्णव थे और वह भगवान पर पूरि तरह निर्भर थे । तिरुवाय्मोळि और नम्माळ्वार के प्रति असीमित लगाव के कारण उन्हे परांकुश दास के नाम से जाना जाता है । उनके प्रार्थना से हमे यह पता चलता है की वह भगवान श्रियपती के कल्याणगुणों मे इतने निमग्न थे की वह इस दिव्यानुभव से सुखी और संतुष्ट थे ।
(लेखक अध्यात्मिक विषयों पर लिखते हैं)