चौं रे चम्पू! मुनव्वर राना कैसे कबी ऐं?
मुनव्वर राना हमारे देश की वाचिक परंपरा का एक महत्वपूर्ण नाम है। चचा, मुझे यह कहते हुए कोई संकोच नहीं है कि उन्होंने गंगा-जमुनी, चोली-दामनी और दूध-शकरी तहजीब के मिले-जुले कवि सम्मेलन और मुशायरों को बहुत आगे बढ़ाया। लोगों को उनका सधुक्कड़ी-फकीरी अंदाज बहुत भाया। धीरे-धीरे ऐसा होने लगा कि मुनव्वर राना हर अच्छे कवि सम्मेलन की जरूरत बनते गए। उसका कारण यह था कि उनके अशआर भारत में धर्म और जात-पांत से ऊपर उठकर सबको परिवारीजन की तरह एकजुट रहने का संदेश देते रहे। वे बताते रहे कि मां, बहन, बेटियां हमारे हृदय की झंकारें हैं। बिना किसी लतीफे या लफ्फाजी के वे माइक पर आते ही शेर सुनाना प्रारंभ कर देते हैं। शेर में चूंकि आत्मीयता और खुद्दारी का दम होता है, इसलिए हर वर्ग और हर धर्म के श्रोता द्वारा पसंद किया जाता है।
भौत भावुक कबी ऐं का?
भावुक तो हर कवि-साहित्यकार होता है चचा! मंच पर जाने वाले कवि थोड़े ज्यादा भावुक होते हैं। नहीं भी होते हैं तो सामईन के दिलों में उतरने के लिए भावुकता की ओढ़नी ओढ़नी पड़ती है। अगर भावुकता न दिखाएं तो श्रोताओं द्वारा सुने ही न जाएं। यही उनका कौशल होता है कि भावुकता की चाशनी में समझदारी परोस देते हैं।
फिर उन्नै दो तरियां की बात चौं करीं? पैलै उन्नै पुरस्कार लौटाइबे वारेन कौ बिरोध कियौ, फिर खुदऊ लौटाय दियौ।
इस बात का उत्तर वे स्वयं भी नहीं दे पाएंगे चचा। बुद्धिमानी परोसना हर साहित्यकार का धर्म है, परेशानी तब आती है जब उस ओढ़ी हुई भावुकता के कारण बुद्धि से परे के राजनीतिक, धार्मिक दबावों को निभाना भी पड़ जाता है। वहीं चूक हो जाती है, क्योंकि बुद्धि और बुद्धिहीनता के बीच पिसना हो जाता है। पहले उन्होंने पुरस्कार लौटाने को अनुचित मानते हुए कहा कि अवार्ड लौटाना बड़ी बात नहीं है, बड़ी बात यह है कि आप अपनी रचनाओं के माध्यम से समाज को सुधारें। लेकिन चार दिन बाद ही उन्हें लगा कि वे उन मुसलमानों को क्या जवाब देंगे, जिनके दिमाग में ये बात जहर की तरह डाल दी गई है कि वे सुरक्षित नहीं हैं। चार दिन के बाद ही अवार्ड उन्हें बोझ लगने लगा। गंगो-जमन तहजीब का पैरोकार अपने काल्पनिक डर का साधारणीकरण करने लगा कि कोई उनके घर में आकर हत्या कर सकता है। मालूम है पाकिस्तान में उन्होंने क्या कहा था?
बता का कही?
पाकिस्तान में उनसे किसी ने पूछा कि आप रहबराने वतन पर इतने तंज करते हैं, हिंदुस्तान में आप महफूज तो हैं? उन्होंने उत्तर दिया कि हिंदुस्तान के सत्तर करोड़ हिंदू मेरी हिफाजत कर रहे हैं, मुझे कोई खौफ नहीं। अब क्या हो गया मुनव्वर भाई? सत्तर करोड़ को भूल गए, महज सत्तर से डर गए! कहीं ऐसा तो नहीं कि जिन वैल्यूज के लिए लड़ रहे थे, उन्हें छोड़कर वक्त की सियासी आंधी के आगे हार मान ली!
तौ तेरौ कहिबे कौ जे मतलब ऐ का कै बिरोध करिबे वारे गल्त ऐं?
नहीं चचा, हरगिज नहीं! मैं अधिकांश को जानता हूं। सबके अलग-अलग कारण हैं। उन कारणों के अंत:प्रकोष्ठ में जाएंगे तो अलग-अलग कहानियां मिलेंगी। इसलिए सरलीकरण मत करिए। इंतजार करिए तेईस तारीख का।
चौं तेईस कूं का ऐ?
तेईस तारीख को दो चीजें हैं। पहली तो ये कि राष्ट्रपति भवन में संगीत नाटक अकादमी के पुरस्कार दिए जाने वाले हैं। देश में अगर इतने ही बुरे हालात हैं तो एक भी कलाकार, नाटककार और साहित्यकार को पुरस्कार लेने नहीं जाना चाहिए। चौबीस तारीख को इन्हें लौटाने का कोई फायदा नहीं है। तेईस तारीख को ही साहित्य अकादमी साहित्यकारों की एक आपातकालीन सभा कर रही है कि इस स्थिति में क्या किया जाए। मेरी मुनव्वर भाई से सार्वजनिक अपील है कि कृपया इस तरह के भय को किसी कौम का भय न बनने दें। ये कवियों, साहित्यकारों की जिम्मेदारी है कि देश में शांति, सुकून, सद्भाव, सहिष्णुता, सौहार्द और सौमनस्य की रक्षा करें। भयाक्रांत न हों, न होने दें। भय की भंजना करें, अतिरंजना नहीं। टीआरपी के खेल से देश को अवगत कराएं। फितरती हिंसा से लड़ने की व्यापक दीक्षा दें। अपने दिल-दिमाग की बेचैनी करें लेखनी के हवाले। अपने ऊपर लादी हुई भावुकता की चट्टान तले दब न जाएं। मैंने एक बड़े शायर बशीर बद्र को इस बोझ के तले दबते हुए देखा है।
(श्री अशोक चक्रधर के फेसबुक वॉल से साभार)