शीश महल के कक्ष का दरवाजा बंद कर जब गाइड माचिस की तिल्ली जलता है तो दीवारों पर जड़े रंग बिरंगे कांचों से झिलमिलाते असंख्य अक्षों की आभा महल को रोशन कर सैलानियों को जादुई सम्मोहन की दुनिया में लेता है। सैलानियों के मुंह से बरबस निकल पड़ता है वन्डरफुल, अवेसम, मार्बल्स ! नजारा इतना जादुुई कि अपलक देखते रहें। आज हम आपको ऐसे ही महल के बारे में बताने जा रहे हैं जो आमेर किले की शान है। ताजमहल के बाद पर्यटकों की खास पसंद बन रहा यह महल भारत का आइकॉनिक टूरिज्म केंद्र है जिसे हर वर्ष करीब 65 लाख देश.विदेश के पर्यटक देखने आते हैं। इस एतीहासिक एवं प्राकृतिक साइट को यूनेस्को ने 2013 ई. में विश्व विरासत सूची में शामिल किया।
आइये ! हमारे साथ. साथ आप भी कीजिये इन महलों की सैर। हम सूरजपोल अथवा चांदपोल से प्रवेश कर आमेर महल के जलेब चैक के अन्दर आते हैं जहाँ सिंहपोल के निकट मानसिंह प्रथम द्वारा जेसोर अब बंग्लादेश से लाई गयी श्री शिलादेवी की प्रतिमा मंदिर में स्थापित है। यह मंदिर दर्शनार्थियों के लिये प्रातः 6 से 12 तथा सायं 4 से 8 बजे तक खुला रहता है। मंदिर के चांदी के आकर्षक दरवाजों पर दुर्गा के नो रूपों एवं महाविद्या के दस स्वरूपों का अंकन कराया गया हैं। शिलादेवी के मंदिर के बांयी ओर दोहरी सुरक्षा प्रणाली युक्त विशाल सिंहपोल है। सिंहपोल के दाहिने भाग में बने हुए भित्ति चित्रों में 19वीं शताब्दी के मुगल प्रभाव को देखा जा सकता है। यहीं पर टिकिट देने की व्यवस्था की गईं हैं।
सिंह पोल के अन्दर से प्रवेश कर हम दीवाने आम परिसर में पहुँचते हैं। यहाँ राजा का आम दरबार होता था। यह इस्लामी व हिन्दू स्थापत्य कला के सम्मिश्रण का बेहतरीन नमूना है। ऊपर से समतल लेकिन अन्दर से अर्द्ध.गुम्बदाकर छत वाले 48 स्तम्भों पर टिका है। इसके बाहर की ओर दो स्तम्भों की कतारें एवं अंदर की और एक स्तम्भ की कतार हैं। कुछ स्तम्भ संगमरमर के हैं जिन पर आकर्षक नक्काशी की गई है एवं इन पर हाथियों युक्त खूबसूरत घुडियों का अलंकरण एवं सूंड में कमल का फूल के अलंकरण देखते ही बनते हैं।इसका निर्माण मिर्जा राजा जयसिंह प्रथम द्वारा (1621 -1667 ) नेे कराया गया था। दीवाने आम के पीछे भारतीय -ब्रिटिश स्थापत्य शैली का बनाष् मजलिस विलासष् है। इस का निर्माण सवाई रामसिंह (1835-1880 ) द्वारा किया गया था, जहाँ विभिन्न प्रकार के मनोरंजन के कार्यक्रम आयोजित किये जााते थे। दिवान-ए-आम के पूर्व की और खुले बरामदों को 27 कचहरी के नाम से जाना जाता है।
दीवाने आम की दक्षिणी दिशा में भव्य भित्ति चित्रों से सजा हुआ बड़ा दरवाजा गणेशपोल कहलाता है। गणेशपोल राजमहल के आवासीय भाग का मुख्य प्रवेश द्वार है। द्वार के बाहरी भाग में ललाट बिन्दु में अंकित गणेश और फारसी.मुगल शैली के सज्जात्मक चित्रों से द्वार की भित्तियां अलंकृत हैं। स्थापत्य एवं चित्रकला की दृष्टि से आमेर का गणेशपोल आज विश्व प्रसिद्ध प्रवेश द्वार है तथा राजस्थान की कलात्मक धरोहर भी। यह लगभग 50 फीट ऊंचा व 50 फीट चैड़ा है। इसका निर्माण मिर्जा राजा जयसिंह ने (1700–1743 ) द्वारा किया गया था। परन्तु मिर्जा राजा जयसिंह द्वारा इसे भव्य एवं कलात्मक स्वरूप दिया गया। संगमरमर की सीढि़यों पर चढ़कर ही इस द्वार तक पहुँचा जा सकता है। इस द्वार पर पाँच मेहराबें बनी हुई हैं। इन पांचों मेहराबों के खण्डों में चारों ओर फूल.पत्तियों का चित्रण है। हरे रंग के आराईश पद्धति के इजारे बने हैं तथा इन पर चारों ओर पीली पट्टियां बनी हुई हैं। इस पोल का सम्पूर्ण बाहरी हिस्सा भित्ति चित्रों से सुसज्जित है। यह चित्र आलागिला (फ्रेस्को ) पद्धति से बने हैं। द्वार के ऊपर चतुर्भुज गणेश चैकी पर पद्मासन मुद्रा में विराजमान है। गणेशपोल के बांयी ओर एक अन्य दीवार पर गणेश के साथ रिद्धि.सिद्धि का अंकन है। आज यह पोल अपने उत्कृष्ट स्थापत्यए चित्रों के भव्य संयोजन, मेहराबों के उचित अनुपात के कारण पर्यटकों के विशेष आर्कषण का केन्द्र बिन्दु बना हुआ है।
गणेशपोल से प्रवेश करअन्दर परिसर के मध्य में फव्वारों से युक्त मुगल शैली का परिचायक उद्यान नजर आता है। चारबाग शैली के उद्यान का सौंदर्यबोध इसकी विशेषता है। फूलों की क्यारियों से युक्त उद्यान में फव्वारें बनाये गए हैं। उद्यान के पूर्व में आमेर महल का सबसे सुन्दर और महत्वपूर्ण खण्ड जय मंदिर है, जिसे दीवाने खास व शीशमहल भी कहा जाता है। चूने और गज मिट्टी से बनी दीवारों और छतों पर जामिया कांच या शीशे के उत्तल ( कॉन्वेक्स) टुकड़ों से की गयी सजावट के कारण इसे शीशमहल कहा जाता है। सफेद पत्थर से बने इसके स्तम्भों और दीवारों पर भैसलाना के काले पत्थर की पट्टिकाओं तथा फूल पौधों तितलियों की बारीक विशिष्ट कलाकारी और एक ही आकृति में दो या दो से अधिक आकृतियों का समावेश शिल्पकला का अनूठा नमूना है। शीशमहल के दोनों ओर के बरामदों में भी रोशनदानों में धातु की जालियां काटकर बनाये हुए राधा.कृष्ण कृष्ण.गोपिकाएं और पुष्प सज्जा में भी रंगीन कांच के छोटे टुकड़े लगाकर कलात्मक सज्जा की गयी है।
शीशमहल के बरामदे के उत्तरी कोने से जा रही सीढि़यों और खुर्रा मार्ग से हम गणेशपोल के ऊपर बने सुहाग मंदिर में पहुँचते हैं। इसमें दिवान-ए-आम के चोंक में होने वाले मनोरंजक कार्यक्रमों को रानियों द्वारा देखने के लिए सघन एवं बारीक जालियों की दीवार की पारदर्शी व्यवस्था अति लुभावनी हैं। सुहाग मंदिर से पूर्व में उतर कर छतरी के नीचे बांये हाथ की ओर गलियारे के अन्त में जो खुली छत है उसे चांदनी कहा जाता है। इस चांदनी पर राजाओं के समय में नृत्य एवं संगीत के आयोजन किये जाते थे। चांदनी से वापस लौटकर सीढि़यों से ऊपर चढ़कर शीशमहल की छत पर बना सुन्दर जस मंदिर है। शीश महल की तरह जस मंदिर की सजावट भी मुगल फारसी शैली के प्रतीकों तथा कांच के टुकड़ों से की गयी है। इसमें ग्रीष्म काल में शीतल वायु की व्यवस्था की हुई है।
जस मंदिर से आगे छोटे दरवाजे से एक कक्ष में होते हुए हम लम्बे गलियारे में पहुंच जाते हैं। इस गलियारे की ऊंची दीवार महल को दो भागों में विभाजित करती है। गलियारे से होते हुए हम मानसिंह महल में प्रवेश करते हैं जो पत्थरों के सुन्दर झरोंखों से सुसज्जित है। इसमें महाराजा मानसिंह प्रथम का निजी आवासीय कक्ष व पूजा गृह है। इसके दरवाजों व दीवारों पर धार्मिक चित्र बने हुए हैं। इसका निर्माण मानसिंह प्रथम द्वारा 16 वीं सदी में कराया गया था।मानसिंह महल के नीचे उतरने वाले किसी भी सीढ़ी या खुर्रा मार्ग से मानसिंह महल के चैक में पहुँचते हैं। महल के भूतल पर रानियों के 12 आवासीय कमरे बने हैं। मानसिंह महल के चैंक के बीच में सवाई रामसिंह के समय की बनी खुली बारादरी है। चैक के उत्तरी.पूर्वी भाग में जो वृताकार दिखाई देते हैं इसके नीचे एक बड़ा जल भण्डार (भूमिगत टांका) बना है।
मानसिंह महल के नीचे के हिस्से से पश्चिम-उत्त्तर की ओर बांयी तरफ खुर्रा मार्ग से लौटने पर शीशमहल के सामने उद्यान के पश्चिमी दिशा में बने रानियों के आवासीय खण्ड को सुख निवास कहा जाता है। यहाँ भी ग्रीष्म ऋतु में शीतल वायु के लिए खुली जल निकासी की व्यवस्था की गई है जो उस समय की उन्नत तकनीक विधा का परिचायक हैं।
सुख निवास से वापस गणेशपोल और दीवाने आम होते हुए सिंहपोल की सीढि़यां उतर कर पुनः बाहर जलैब चैक में आ जाते हैं। जहाँ से हम आमेर के पूर्व वैभव के प्रतीक स्मारकों आदि का आनन्द ले सकते हैं। यहां हम हाथी की सवारी का आनन्द भी उठा सकते हैं। किले के पार्श्व में एक रास्ता हमें महलों की तलहटी में स्थित जगत शिरोमणि के प्रसिद्ध मंदिर तक ले जाता है।
आमेर के महलों के आगे की और बनाया गया जलाशय जिसे मावठा सरोवर कहा जाता है और इस से लग कर बना दल-ए-आराम उद्यान महलों की सुंदरता में चार चांद लगते हैं। भू-तल पर यहां से प्राप्त प्राचीन मूर्तियों का संग्रहालय भी दर्शनीय है। यहां की केसर क्यारी में सैलानियों के लिए प्रतिदिन आमेर के इतिहास पर आधारित साउंड एंड लाइट कार्यक्रम हिंदी एवं अंगेजी भाषा में दिखाया जाता हैं। महलों तक जाने के लिए निजी वाहन जलेब चैंक तक लेजा सकते हैं एवं हाथी सवारी का आनन्द भी लिया जा सकता है। अपनी उत्कृष्ट वास्तु कला एवं विविधताओं परिपूर्ण आमेर का किला और महल विश्व सैलानियों के आकर्षण का प्रबल केंद्र बन गया हैं। अधिकांश सैलानी सूरजपोल से प्रवेश कर स्थापत्य एवं प्रकृति का आनन्द लेते हुए पैदल जाना पसंद करते हैं।
जयपुर राज्य के कछवाहा राजवंश की प्राचीन राजधानी जयपुर में थी। कछवाहा राजपूतों के आगमन से पहले आमेर पर सूसावत मीणों का अधिकार था। 11वीं शताब्दी में सोढ़देव कछवाहा के पुत्र दूलाराम लोकभाषा में दोला ने ढूंढाड़ प्रदेश में कछवाह राजवंश की नींव रखी। उसके पुत्र काकील ने सूसावत मीणों से आमेर को अपने अधिकार में लिया। महत्वाकंक्षी मानसिंह प्रथम ने आमेर में पुराने महलों के स्थान पर अरावली पर्वत श्रंखला की पहाडि़यों के बीच 16वीं शताब्दी के अन्तिम चरण में वर्तमान राजमहलों का निर्माण प्रारम्भ किया। मानसिंह प्रथम के बाद के शासकों मिर्जा राजा जयसिंह प्रथम तथा सवाई जयसिंह द्वितीय ने अपने स्थापत्य प्रेम और अपनी कल्पना के अनुरूप समय ≤ पर आवश्यकतानुसार मानसिंह द्वारा बनवाये गये भवनों में संशोधन ,संवर्धन, आन्तरिक सज्जा तथा अलंकरण के करगरिपूर्ण कार्य करवाये।
जयपुर से 12 किलोमीटर उत्तर में स्थित आमेर दुर्ग जाने के लिये जयपुर से किराये की टैक्सी, ऑटोरिक्शा, नगर बस सेवा या निजी कार अच्छे विकल्प हैं। । यदि मौसम अच्छा हो तो पैदल मार्ग सबसे सस्ता व सरल विकल्प है व अधिकांश पर्यटक इसी का प्रयोग करते हैं व सूरज पोल द्वार से प्रवेश करते हैं। जयपुर देश के सभी प्रमुख पर्यटन स्थलों से हर्वाइ रेल एवं बस सेवा से जुड़ा है। अंतररास्ट्रीय हवाई अड्डा जयपुर के सांगानेर में स्थित है।
डॉ.प्रभात कुमार सिंघल
लेखक एवं पत्रकार ,कोटा ( राजस्थान)