Saturday, November 23, 2024
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भगवान जगन्नाथ की विश्व प्रसिद्ध रथयात्राः2023 का सिंहावलोकन

भगवान जगन्नाथ की विश्व प्रसिद्ध रथयात्राः2023 आगामी 20जून को है और वह पवित्रतम तिथि है-आषाढ शुक्ल द्वितीया।भगवान जगन्नाथ जगत के नाथ हैं जिन्हें भारत के चार धामों में नाथ से ही संबोधित किया जाता है।जैसेःबदरीनाथ,रामेश्वर नाथ, द्वारकानाथ तथा पुरी धाम के जगन्नाथ।यह भी सच है कि भारत के चारों धामों का निर्माण भारत की चार दिशाओं में किया गया है। जैसेः उत्तर दिशा में बदरीनाथ,दक्षिण दिशा में रामेश्वरनाथ,पश्चिम दिशा में द्वारकानाथ तथा पूर्व दिशा में जगन्नाथ धाम।कहते हैं कि सतयुग का धाम बदरीनाथ है।त्रेतायुग का धाम रामेश्वरम् है।द्वापर युग का धाम द्वारका है तथा कलियुग का अन्यतम धाम जगन्नाथपुरी है।यह भी कहा जाता है कि जबकि चारों धाम के नाथ श्री श्री जगन्नाथ जी ही हैं तो वे बदरीनाथ में स्नान करते हैं। द्वारका में श्रृंगार करते हैं। पुरी में 56 प्रकार के भोग को ग्रहणकर वे रामेश्वरनाथ में जाकर विश्राम करते हैं।

यह भी मान्यता है कि भारत के चार वेदःऋग्वेद,यजुर्वेद,सामवेद और अथर्वेद के आधार पर ही आदिशंकराचार्य जी ने भारत के चार पीठों का निर्माण किया था। गौरतलब है कि पुरी जगन्नाथ मंदिर का निर्माण गंगवंश के प्रतापी राजा चोलगंगदेव ने 12वीं शताब्दी में बनाया था। इस मंदिर की ऊंचाई 214फीट और 8 इंच है। यह जगन्नाथ मंदिर ओडिशा सबसे ऊंचा जगन्नाथ मंदिर है जो ओडिशा के स्थापत्य एवं वास्तुकला का बेजोड उदाहरण हैं। यह पंचरथ आकार का है। इसे श्रीमंदिर कहते हैं जिसके चार महाद्वार हैं। पूर्व दिशा का सिंहद्वार धर्म का प्रतीक है। उत्तर दिशा का महाद्वार हस्ती द्वार है जो ऐश्वर्य का प्रतीक है। पश्चिम दिशा का महाद्वार व्याघ्र द्वार है जो वैराग्य का प्रतीक है तथा दक्षिण दिशा का महाद्वार अश्व द्वार है जो ज्ञान का प्रतीक है। सिंहद्वार पर अरुण स्तंभ है जो लगभग 10 मीटर ऊंचा है जहां से श्रीमंदिर के रत्नवेदी पर विराजमान भगवान जगन्नाथ समेत चतुर्धा विग्रहों के नित्य दर्शन करता है श्री जगन्नाथ जी का वाहन-अरुण।

13वीं सदी में अरुण स्तंभ कोणार्क सूर्यमंदिर में था जिसे 18वीं सदी में लाकर सिंहद्वार के सामने खड़ा किया गया।प्रतिवर्ष आषाढशुक्ल द्वितीया को भगवान जगन्नाथ की विश्व प्रसिद्ध रथयात्रा अनुष्ठित होती है। प्रतिवर्ष तीन नये रथों का निर्माण अक्षयतृतीया से आरंभ होता है।

रथ निर्माण की अत्यंत गौरवशाली परम्परा रही है जिसके तहत वंशानुक्रम से रथ निर्माण का कार्य सुनिश्चित बढईगण ही करते हैं।नंदिघोष रथ(जगन्नाथ जी के रथ),तालध्वज रथ(बलभद्र जी के रथ) तथा देवी सुभद्रा जी के रथ देवदलन के निर्माण में कुल लगभग 205 प्रकार के सेवायतगण सहयोग देते हैं। रथ-निर्माण कार्य में लगभग दो महीने लग जाते हैं। कहने के लिए तो रथयात्रा मात्र एक दिन की होती है लेकिन यह अक्षय तृतीया से आरंभ होकर आषाढ मास की त्रयोदशी तक चलती है।उस दौरान अक्षय तृतीया के दिन से रथ-निर्माण,चंदनयात्रा,देवस्नान पूर्णिमा,अणासरा,नवयौवन दर्शन,रथयात्रा और बाहुडा यात्रा आदि भी शामिल हैं।

सबसे रोचक बात यह है कि रथयात्रा से जुड़ी सारी यात्राएं एवं उत्सव रथयात्रा की तरह ही बड़े आकार में संपन्न होते हैं।

चतुर्धा देवविग्रहों का अदरपडा,सोनावेष और नीलाद्रिविजय दर्शन भी रथयात्रा की तरह ही बडे आकार में अनुष्ठित होते हैं।प्रतिवर्ष रथ-निर्माण हेतु दारु संग्रह का कार्य वसंत पंचमी से ही आरंभ हो जाता है।जिसप्रकार से मानवशरीर का निर्माण पंचतत्वों से हुआ है ठीक उसी प्रकार रथ-निर्माण में पांच तत्व के रुप में काष्ठ(दारु),धातु,रंग,परिधान तथा श्रृंगार हेतु सजावट की सामग्रियों का प्रयोग होता है।पौराणिरक मान्यता के अनुसार मानव-शरीर ही रथ होता है।रथी आत्मा होती है।सारथि बुद्धि होती है,लगाम मन होता है और रथ में जुडे सभी अश्व मानव इंद्रियगण के प्रतीक होते हैं।

रथयात्रा के दिन चतुर्धा देवविग्रहों को पहण्डी विजय कराकर उन्हें रथारुढ किया जाता है।चतुर्धा देवविग्रहों के रथारुढ कराने के उपरांत पुरी गोवर्धन मठ के 145वें पीठाधीश्वर तथा पुरी जगतगुरु शंकराचार्य स्वामी निश्चलानंद सरस्वती महाभाग अपने परिकरों के साथ पधारकर तीनों रथों का अवलोकन करते हैं तथा चतुर्धा देवविग्रहों को अपना आत्मनिवेदन प्रस्तुत करते हैं।उसके उपरांत पुरी के गजपति तथा भगवान जगन्नाथ जी के प्रथम सेवक श्री श्री दिव्य सिंहदेव महाराजा पालकी में पधारकर तीनों रथों पर छेरापहंरा( सोने की मूठवाले झाडू से रथों को साफ करते हैं और चंदनमिश्रित जल का छिडकाव करते हैं । अपना आत्मनिवेदन करते हैं।रथों के साथ घोडों को जोडा जाता है तथा हरिबोल तथा जय जगन्नाथ के गगनभेदी जयकारे के साथ भक्तों द्वारा तीनों रथों को बारी-बारी से खिचने का सिलसिला आरंभ हो जाता है। सबसे पहले बलभद्र जी का रथ तालध्वज रहता है,उसके साथ देवी सुभद्रा जी का रथ देवदलन रहता है तथा आखिरी में भगवान जगन्नाथ का रथ नंदिघोष खीचा जाता है। भक्तगण पूरी सुरक्षा के बीच रथों को खींचकर गुण्डीचा मंदिर लाते हैं।

गुण्डीचा मंदिर श्रीमंदिर से लगभग तीन किलोमीटर की दूरी पर अवस्थित है लेकिन तीनों रथों को गुण्डीचा मंदिर पहुंचने में 6घण्टे से 24 घण्टे भी लग जाते हैं।रथ खीचने के लिए नारियल की जटा से निर्मित मोटे-मोटे रस्से व्यवहार में लाए जाते हैं। भक्तों की भीड जब जोश में रथ खीचती है तो गति को काबू में करने के लिए विशालकाय काष्ठखण्ड को ब्रेक के रुप में प्रयोग किया जाता है।ऐसी मान्यता है कि भगवान जगन्नाथ अपनी रथयात्रा वैसे दीन-दुखियों,अनाथों,पतितों तथा भक्तों के लिए प्रतिवर्ष करते हैं जिनको श्रीमंदिर में जाना वर्जित होता है। जगन्नाथ जी वैसे भक्तों को दर्शन देकर उन्हें मोक्ष प्रदान करते हैं। अपने भक्त सालबेग की मनोकामना को पूर्ण करते हैं।रथयात्रा के दौरान जगन्नाथ जी अपनी मौसी मां के हाथों से तैयार पूडा-पीठा ग्रहण करते हैं।वे गुण्डीचा मंदिर में सात दिनों तक विश्राम करते हैं। रथयात्रा के दिन भगवान जगन्नाथ को रथारुढ दर्शनकर भक्त मोक्ष को प्राप्त करते हैं।

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