यह मध्यकालीन भारत का एक यक्ष प्रश्न है।
उन्हें किसी ने बाध्य नहीं किया था, उन्होंने स्वयं ही इसका चयन किया। वैसा करने के अनुल्लंघ्य कारण भी न थे। उन्हें कौन-सी ग्लानि और व्यथा थी, भांति-भांति से इसकी व्याख्या की जाती है। किंतु इसका सबसे बड़ा कारण सनातन धर्म और बौद्धों के बीच उस काल में चल रहे संघर्ष में निहित था। जिस ताप ने कुमारिल को भस्म कर दिया, उसके मूल में वैदिक धर्म के पराभव से उपजा शोक था। वास्तव में कुमारिल सनातन परम्परा के महान हुतात्मा हैं!
कुमारिल मीमांसक थे। मीमांसा दर्शन के भाट्टमत के प्रतिपादक थे! उनके ग्रंथ “श्लोकवार्तिक” की बड़ी प्रतिष्ठा थी। मण्डन मिश्र उन्हीं के शिष्य थे। फिर उन्होंने आत्मनाश क्यों कर लिया? वास्तव में, उस कालखण्ड यानी आठवीं शताब्दी के उत्तरार्ध में भारत में बौद्धों का वर्चस्व था। वेदों को अप्रामाणिक सिद्ध करने में बौद्धों ने पूरी शक्ति लगा दी थी। उन्हें राज्याश्रय प्राप्त था। बौद्ध-नैयायिकों की तब तूती बोलती थी। उनके तर्क अकाट्य मान लिए गए थे।
कुमारिल इससे बड़े विक्षुब्ध रहते थे। उन्होंने सोचा कि बौद्धों की तर्क-प्रणाली को जानने के बाद ही उन्हें परास्त किया जा सकता है। यह निश्चय करके वे नालंदा गए, बौद्ध मत स्वीकार किया और बौद्ध दर्शन के प्रकांड विद्वान धर्मपाल के सान्निध्य में अध्ययन करने लगे।
एक दिन की बात है! आचार्य धर्मपाल वैदिक धर्म में निहित दोषों का निर्ममता से उद्घाटन कर रहे थे। उनमें कटाक्ष की वृत्ति बहुत सघन थी, अतएव वे नाना प्रकार से वैदिक धर्म पर कटाक्ष भी करते जा रहे थे। कुमारिल यह सहन नहीं कर पाए। उनकी आंखों से आंसू फूट पड़े।
इधर कुमारिल की आंखों से अश्रुधारा बही, उधर उनका रहस्य खुला। वे आचार्य से बोल पड़े : “आप क्या जानें वेद-विद्या की श्रेष्ठता!” अहिंसा का उपदेश देने वाले आचार्य को इस पर क्रोध आ गया। उन्होंने अपने शिष्यों से कहा : “इस मूढ़ को विहार के शिखर से नीचे धकेल दो, देखते हैं कौन-सा वेद इसकी रक्षा करता है!” कुमारिल को शिखर पर ले जाया गया। नीचे धकेले जाने से पूर्व कुमारिल ने कहा : “यदि वेद प्रमाण हैं तो मेरे प्राण बचे रहें!” कुमारिल बच गए, किंतु अपने वाक्य में “यदि” लगा देने के कारण उनकी एक आंख फूट गई!
कुमारिल को किस बात की ग्लानि थी? शायद इसकी कि उन्होंने मीमांसक के रूप में ईश्वर के अस्तित्व पर प्रश्न किया। या इसकी कि बौद्धों की तर्क-प्रणाली जानने के लिए उन्होंने बौद्ध मत स्वीकार किया। या इसकी कि उन्होंने वेदों पर संशय करके अपनी एक आंख गंवा दी। किंतु शायद ग्लानि से बढ़कर उन्हें इस बात का शोक था कि वे अपनी समस्त क्षमताओं के बावजूद वैदिक धर्म की रक्षा नहीं कर पा रहे हैं।
प्रयाग में संगम पर उन्होंने आत्मदाह का निर्णय लिया। भूसे की ढेरी को सुलगाकर उसमें जा बैठे। उनके शरीर का निचला हिस्सा प्राय: जल गया। वक्ष और शीशस्थल शेष रह गया, तब शंकर उनके दर्शन को पहुंचे। शंकर ने ब्रह्मसूत्र पर भाष्य लिखा था किंतु वह बहुत दुर्बोध था। वे कुमारिल की कीर्ति से परिचित थे। वे चाहते थे कि कुमारिल उस भाष्य पर वार्तिक लिखें। यही मनोरथ बांधकर वे प्रयाग आए किंतु यहां धू-धू जलते आचार्य को देखकर वे स्तब्ध रह गए।
कुमारिल का आत्मदाह करना और ऐन उसी अवसर पर शंकर का उनके पास पहुंचना- यह मध्यकालीन भारत के इतिहास में केंद्रीय महत्व की घटना है। शंकर ने कुमारिल को ब्रह्मसूत्र का अपना भाष्य दिखलाया तो उनकी आंखों में चमक आ गई। जो काम वो पूरा नहीं कर सके थे, उसे शंकर पूरा करेंगे, यह उन्हें विश्वास हो गया। मृत्यु से क्षोभ चला गया, उसमें आत्मबलिदान की दीप्ति आ गई। उन्होंने शंकर को आशीष देते हुए कहा कि “मण्डन से शास्त्रार्थ करो और विजयी होओ।” मण्डन तो उन्हीं के शिष्य थे, फिर उन्होंने शंकर को विजय का आशीष क्यों दिया? इसलिए, क्योंकि वे जान गए थे कि अब अद्वैत-वेदान्त ही सनातन धर्म की रक्षा कर सकता है और इसके लिए मीमांसकों को पीछे हटना होगा।
शंकर ने यही कर दिखाया। अकेले अपने बूते वे भारत में सनातन धर्म की पुन:प्रतिष्ठा करने में सफल रहे। बौद्धों का तब जो पराभव हुआ तो आज तक वे भारत में अपनी धरती नहीं पा सके।
सनातन धर्म पर इससे बड़ा संकट इससे पहले कभी नहीं आया था। ना ही उसके बाद कभी आया। यों तो कालान्तर में सनातन धर्म पर यवनों, म्लेच्छों, विधर्मियों, विदेशियों ने अनेक प्रहार किए, किंतु वे सभी बाहरी आक्रमण थे, उसकी मूल दार्शनिक-मान्यताओं को तो बौद्धों ने ही सबसे प्रमुख चुनौती दी थी। बीसवीं सदी के बीच में नवबौद्धों ने अवश्य एक कथित धर्म-आंदोलन चलाया था। बौद्ध धर्म उनके लिए राजनीतिक पूंजी की तरह था। वह नीति अतीत के प्रेतों को जगाकर हिंदू धर्म पर मनोवैज्ञानिक दबाव बनाने की थी। किंतु उनके सामाजिक न्याय का चाहे जो हुआ हो, उन नवबौद्धों का कोई नामलेवा आज नहीं है। आधुनिक काल में वामधारा द्वारा सनातन के मानमर्दन के यत्किंचित प्रयत्न किए जाते हैं, किंतु वे इतने उपहास्य हैं कि उनकी बात करना भी उन्हें महत्व देना है।
मध्यकाल के वज्रयानियों से लेकर आधुनिक काल के नवबौद्धों और वामपंथियों तक- ये सभी भारत से सनातन के उन्मूलन में सफल क्यों नहीं हो पाए हैं?
इसका संकेत शंकर-मण्डन संवाद में मिलता है।
मण्डन ने शंकर से कहा था- “वेद का अभिप्राय है विधि का प्रतिपादन करना और उपनिषद स्वरूप का प्रतिपादन करते हैं। मैं तो विधि की ही बात करूंगा।”
इसके प्रत्युत्तर में शंकर ने जीव-ब्रह्मैक्य का सिद्धांत प्रतिपादित किया और यह तर्क देकर मण्डन को निरुत्तर कर दिया कि जिसे प्रमाण से सिद्ध किया जा सकता हो, वह पूर्णब्रह्म नहीं हो सकता। मण्डन को हार मानना पड़ी।
कुमारिल यह जानते थे, इसलिए उन्होंने शंकर को विजय का आशीष दिया था। वे अपनी मृत्युशैया पर अद्वैत-वेदान्त के सामर्थ्य को पहचान गए थे।
शंकर न तो वेदविरुद्ध थे, न ही विधि-विरुद्ध, किंतु उन्होंने औपनिषदिक प्रविधि इसलिए अपनाई, क्योंकि वे जानते थे कि विधि को चुनौती दी जा सकती है, किंतु स्वरूप का खण्डन नहीं किया जा सकता। यह वही स्वरूप है, जिससे बुद्ध के अनित्य को भी प्राणधारा मिलती थी। मण्डूक्योपनिषद में बौद्ध और वेदान्त के सूत्र एकमेव हो जाते थे। स्वरूप को साध लिया तो फिर धर्म की भी रक्षा हो सकेगी, यह शंकर के उद्यम के मूल में था।
आज जो भी सनातन-धर्म की विधियों पर प्रहार करते हैं, उन्हें जान लेना चाहिए कि उसके स्वरूप को नष्ट किए बिना भारत से सनातन-धर्म का उन्मूलन नहीं किया जा सकता, और भारत के गुणसूत्र इस स्वरूप से इतने अविच्छिन्न हो गए हैं कि इसे नष्ट करना सम्भव नहीं। प्रयाग में त्रिवेणी-संगम पर तुषानल के दाह में कुमारिल को जिस तत्व का बोध हो गया था, जिसकी धर्मध्वजा शंकर ने चतुर्दिक फहराई, उसकी मानहानि करना कम से कम वामाचारी विदूषकों के बस का रोग नहीं है। इति।
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