अपने आस-पास ही व्यक्ति जब सजग रहकर चेतना के पथ पर अग्रसर रहता है तो उसकी दृष्टि का वितान व्यापक हो जाता है। यही नहीं जीवन और जगत् के प्रति उसकी समझ तथा अनुभवों का समुच्चय जीने के प्रति विविध सन्दर्भों का खुलासा करते हैं। तब एक रचनाकार इन सन्दर्भों को आत्मसात् करता है तो उसकी अनुभूति के पथ पर सच्चाइयों के तट, उसकी भाव और संवेदनाओं को शब्दों की यात्रा पर ले जाते हैं और रचना के रूप में आकार प्रदान करने में सहायक होते जाते हैं।
इन्हीं सन्दर्भों से आत्मसात् होते हुए कथाकार – समीक्षक अनिता वर्मा ने अपनी सृजन-यात्रा में अनुभूति के पथ पर विचार और संवाद का एक-एक पल अपने प्रथम लघुकथा-संग्रह ‘दर्पण झूठ ना बोले’ में अभिव्यक्त किया है।
राजस्थान साहित्य अकादमी, उदयपुर के आर्थिक सहयोग से, पुस्तक संसार, जयपुर से वर्ष 2012 में प्रकाशित इस लघुकथा-संग्रह में 79 लघुकथाएँ हैं जिसमें से 59 वीं लघुकथा ” दर्पण झूठ ना बोले ” से यह संग्रह शीर्षित हुआ है। इस लघुकथा में दर्पण का एक टुकड़ा मानवीय वृत्तियों और उससे उपजे सन्दर्भों के साथ मनुष्य के अन्तस् के भावों को उजागर करता है।
जब तीन दोस्त क्रमशः अपना-अपना चेहरा इसी दर्पण के टुकड़े देखते हैं और दर्पण में उभरे बिम्ब के बारे में बात करते हुए उलझ जाते हैं, तब दर्पण कहता है- ‘ मुझे क्यों कोसते हो, मैं तो एक माध्यम हूँ। जो मन में होता है, वही चेहरे पर आता है। तुम्हारे अन्तस् में जो था, वही मुझमें प्रतिबिम्बित हुआ, दर्पण झूठ नहीं बोलता।’ दर्पण के यही भाव सजग व्यक्ति को अथक यात्रा का पथिक बना देते हैं तो स्वयं से छिटके तथा अपने स्व की चेतना को उपेक्षित करने वाले व्यक्ति को गहन अन्धकार बनाम चकाचौंधीय पथ का राही बना देते हैं।
दर्पण के संचेतना रूपी यही बोल लघुकथाकार की संवेदना के साथ इन कथाओं में गूँजते हैं। फिर चाहे वह मनुष्य, अपना-अपना धन्धा, नशा, जोड़-तोड़, इज्जत, पड़ौस, आशा की किरण, आचरण और व्यवहार, संकट, छोटा कमरा, लघुकथा हो या समाधान, पैसा, कसूर, लोग क्या कहेंगे, जीवन और मृत्यु , जन्मपत्री, बाज़ारवाद, अनुभव, पगला, व्यवस्था, पहचान, संतुष्टि, सौदा, प्रात्कार, प्रेरणा, युक्ति, मनीऑर्डर, बेचारी, और जमाना इत्यादि लघुकथा हो।
संग्रह की सभी लघुकथाओं में जीवनानुभूति के साथ सामाजिक सरोकारों को उजागर करते यथार्थ चित्र पात्रों के साथ उभरे हैं तो इन पात्रों में परिवर्तन का संकेत भी समाधान के रूप में बिम्बित हुआ है। यह बिम्ब समझ और अनुभवों के साथ सुधारात्मक प्रवृत्ति को विकसित करता है और दिशा प्रदान करता है। इसीलिए संग्रह की ये कथाएँ मानवीय मूल्यों के प्रति व्यक्ति को सावचेत रखती है। संचेतन की यही पहल इन लघुकथाओं की ऊर्जा है और लघुकथाकार की सफलता भी।
भाषा और शिल्प के साथ कथ्य की दृष्टि से ये लघुकथाएँ अपनी अभिव्यक्ति में सहज हो गईं हैं। यह सहजता उतनी ही गम्भीर है जितनी विषय-वस्तु की संवेदना। प्रत्येक कथा में एक उद्देश्य का प्रवाह है तो समाज में व्याप्त विसंगतियों पर प्रहार भी। यह प्रवाह और प्रहार ही लघुकथा की मूल संचेतना को उभारता है।
अन्ततः यही कि ‘ दर्पण झूठ ना बोले ‘ सामाजिक सन्दर्भों के विविध आयामों को उभारता हुआ ऐसा संग्रह है जिसमें छोटे-छोटे रूप से उपजे वे प्रसंग हैं जो वास्तव में व्यापक अर्थ को व्याख्यायित करते हैं और अपने आस-पास को समझने का संकेत करते हैं। यही नहीं व्यक्ति को अपने अनुभवों से संवाद करने का अवसर प्रदान करते हुए सामाजिक सन्दर्भों की पड़ताल करने का संकेत करते हैं। संकेत के यही भाव आवरण चित्र में संयोजित होकर मुखर हुए हैं।
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– विजय जोशी
समीक्षक एवं कथाकार, कोटा