करीब डेढ़ से दो दशक पहले आपके-हमारे घरों में जो शुद्ध देसी दीवाली मनाई जाती थी उसकी जगह अब मिलावटी और दिखावटी दीवाली ने ले ली है। दीवाली के करीब महीनेभर पहले से ही तैयारियां शुरू हो जाती थीं। क्या बच्चे क्या बड़े हिंदू धर्म के इस सबसे त्योहार का उत्साह और उमंग देखते ही बनती थी। सबसे पहले बारी आती घरों की साफ-सफाई की। शुद्ध देसी कली जिसका नाम अलग-अलग इलाकों में अलग-अलग हो सकता है, उसमें नील मिलाकर जो पुताई की जाती थी उसकी बात ही कुछ और थी। कुछ घरों को छोड़कर ज़्यादातर लोग कामगारों से पुताई करवाते थे जिससे उन्हें सीजन के हिसाब से रोजगार भी मिलता था। लेकिन अब उस सफेद कली की जगह पक्के चटख रंगों ने ले ली है। इसी कड़ी में होती थी रंगोली और चौक बनाने की कवायद जिसके लिए खड़ी इस्तेमाल की जाती थी।
हमारी दादी और मां दिन भर या देर रात तक बड़ी मेहनत और लगन से इस काम को करती थीं। यहां तक कि पड़ोस की महिलाएं भी एक-दूसरे के घर जाकर इस काम में हाथ बंटाती थीं। इसके बाद चौक सूखने तक बच्चों से उसकी हिफाजत करती थीं कि कहीं त्योहार की मस्ती में भाग-दौड़ कर रहे बच्चों के कदम उनकी ‘शुद्ध देसी कलाकारी’ को बदशक्ल न कर दें। कई बार ऐसा होने पर बच्चों को ज़ोरदार डांट भी पड़ती थी लेकिन न बच्चों की भाग-दौड़ कम होती न हमारी मां और दादियों का जोश। एक घर में काम निपटने के बाद महिलाएं दूसरे घर के लिए भी उतने ही मन से जुट जाती थीं। लेकिन अब वो बात नहीं। अब न तो इनती मेहनत की ज़रूरत है न हिफाजत की। बात चाहे चौक और रंगोली बनाने की हो या फिर मिठाइयां तैयार करने की, मोहल्ले के हर घर में यही माहौल होता था। लेकिन अब तो बाज़ार में रेडीमेड स्टीकर वाली रंगोलियां मौजूद हैं जो तुरंत ख़रीदकर तुरंत घर के आंगन या कमरों में सजाई जा सकती हैं। इसी तरह अब इक्के-दुक्के लोग ही घर पर मिठाई बनाने की जहमत उठाते हैं क्योंकि बाज़ार में सब कुछ मौजूद है भले ही मिलावटी और महंगा क्यों न हो।
आज न तो कोई किसी की मदद लेना पसंद करता है न ही कोई किसी के घर जाकर घंटों बिताना क्योंकि अब दिल ही शुद्ध देसी नहीं रह गए हैं। इसकी एक वजह ये भी है कि उस दौर की देसी हुनर और जानकारी रखने वाली अनुभवी महिलाओं की जगह धीरे-धीरे पढ़ी-लिखी और मॉडर्न बहुएं लेने लगीं जो आज फेसबुक और ट्विटर जेनरेशन तक पहुंच गई है। दूर-दराज नौकरी करने वाले घर के पुरुष जहां दीवाली से हफ्ते भर पहले घर पहुंच जाते थे। इस बहाने यार-दोस्तों और रिश्तेदारों से मुलाकात भी हो जाती लेकिन आज या तो बाहर नौकरी करने वाले त्योहारों पर घर आते ही नहीं और आते हैं तो सिर्फ एक-या दो दिन के लिए। भले ही इसके पीछे वक्त की मज़बूरियां हों लेकिन हमारे दिलों में त्योहारों की महत्ता और हमारे नैतिक-सामाजिक मूल्यों में भी कमी आई है। इस त्योहार पर अब दिखापटीपन हावी हो गया है। हमारा ध्यान इस पर ज़्यादा रहने लगा है कि पड़ोसियों ने दीवाली पर क्या नया ख़रीदा है, उनके कपड़े कैसे हैं और घरों में कैसी रोशनी और सजावट की जा रही है।
दोस्तों और रिश्तेदारों को महीनों पहले से ग्रीटिंग कार्ड और शुभकामना संदेश भेजना गुजरे जमाने की बात हो चुकी है। अपने प्रियजनों का शुभकामना संदेश पाकर हमारी खुशी दोगुनी हो जाती थी लेकिन मोबाइल और इंटरनेट ने आज इन सबकी की ज़रूरत ख़त्म कर दी है। वो दौर था जब मिट्टी के दिए काम में लिए जाते थे। कहीं जाने की भी ज़रूरत नहीं थी कुम्हार घर पर ही आकर आवाज़ लगा देते थे। उनसे मोल-भाव कर सैंकड़ों दिए ख़रीद लेते थे। एक दिन पहले मिट्टी के दिए पानी में भिगोए जाते थे ताकि तेल कम पीएं। लेकिन आज ये सब झंझट कोई नहीं करना चाहता क्योंकि देसीपन की शुद्ध झलक और अहसास कराने वाले मिट्टी के दियों की जगह बाज़ार में सजावटी और चाइनीज दिए मौजूद हैं। यहां तक कि लक्ष्मी-गणेश जी भी अब शुद्ध देसी नहीं रह गए हैं। मिट्ठी के देवी-देवताओं या कागज पर हाथ से बने लक्ष्मी-गणेश जी की जगह प्रिंटेड पोस्टर और चमचमाती धातुओं वाले ग्लैमरस गॉड ने ले ली है। लक्ष्मी-गणेश जी वाले चांदी के सिक्कों को टक्कर देने अब चांदी के नोट आ गए हैं। उस दौर में परंपरा थी दीवाली के दिन एक-दूसरे के घर जाकर दीपक रखना और शुभकामनाएं देना लेकिन अब ये बहुत कम देखने को मिलता है वो भी औपचारिकता के तौर पर।
दीवाली के बाद पड़ोसियों, रिश्तेदारों और हमारे काम करने वालों जिनमें धोबी, कुम्हार, हरिजन शामिल हैं, उनको मिठाइयां बांटने का रिवाज भी अब ख़त्म हो चला है। अब न तो कोई घर-घर जाकर मिठाइयां बांटना चाहता है न ही कोई बासी मिठाइयों को लेकर खुश होता है लेकिन बात सिर्फ औपचारिकता या मिठाई के स्वाद की नहीं बल्कि रिश्तों में मिठास बनाए रखने की होती थी। यही वजह थी कि इस काम में गलती से भी किसी करीबी को भूल जाते तो वो बुरा मान जाता था यहां तक कि शिकायत करने में भी नहीं चूकता था। लेकिन आज किसी को कोई फर्क नहीं पड़ता क्योंकि न न शुद्ध देसी दिल रहा न शुद्ध देसी दीवाली… उस वक्त चेहरे खूबसूरत थे लेकिन अब सूरतें ही बनावटी दिखती हैं। तब पराए भी अपने लगते थे क्योंकि भरोसा टूटने का खतरा नहीं था, खून से ज़्यादा दिलों के रिश्ते मज़बूत थेलेकिन आज ऐसा नहीं है… शायद यही वजह है कि आज अपना ही दिल पराया हो गया है जिस पर यकीन करना मुश्किल है, धड़कनें इतनी बेगानी हो गई हैं कि किसी भी पल धोखा दे देती हैं। उस जमाने में ऐसा बहुत कम होता था क्योंकि दिलों में मिलावट नहीं थी, दौलत और शोहरत के पीछे अंधी दौड़ नहीं थी…..
शायद इसीलिए जिंदादिली थी…
“अब कुछ नहीं कहती रौनकें बाजारों की, पुलिस की गश्त देती है खबर त्यौहारों की”
दीपावली की हार्दिक शुभकामनाओं के साथ
(लेखक ज़ी मरुधारा जयपुर में प्रोड्यूसर हैं )
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