नवम्बर 1948 में संविधान सभा की बैठक में समान नागरिक संहिता को लागू किये जाने पर लम्बी बहस चली. बहस में इस्लामिक चिन्तक मोहम्मद इस्माईल, जेड एच लारी, बिहार के मुस्लिम सदस्य हुसैन इमाम, नजीरुद्दीन अहमद सहित अनेक मुस्लिम नेताओं ने भीमराव अम्बेडकर का विरोध किया था.
इसके बाद हुए मतदान में डॉ. अम्बेडकर का समान नागरिक संहिता का प्रस्ताव विजयी हुआ और संविधान के अनुच्छेद 44 में समान नागरिक संहिता को लागू किये जाने सम्बन्धी विधान लाया गया, अनुच्छेद-44 (समान नागरिक संहिता), अनुच्छेद-312 (भारतीय न्यायिक सेवा परीक्षा), अनुच्छेद-351 (हिंदी का प्रचार) जैसे महत्वपूर्ण अनुच्छेद अभी तक पेंडिंग हैं। अनुच्छेद-51A (मौलिक कर्तव्य) को लोगों की इच्छा पर छोड़ दिया गया है।
इसके बाद भी मुसलमानों के दबाव में समान नागरिक संहिता को लागू करने का विचार दफना दिया गया. मुस्लिम तुष्टिकरण बढ़ता गया और समान नागरिक संहिता की राह संकीर्ण होती गई.
कुछ लोग जब-तब हिंदू राष्ट्र की बातें किया करते हैं, जबकि यथार्थवादी मांग यह होती कि हिंदुओं को दूसरे समुदायों जैसे बराबर अधिकार मिलें। दुर्भाग्यवश अधिकांश लोगों को इसकी चेतना नहीं। हालिया समय में संविधान के अनुच्छेद 25 से 31 की हिंदू-विरोधी व्याख्या स्थापित कर दी गई है। कई शैक्षिक, सांस्कृतिक, सामाजिक अधिकारों पर केवल गैर-हिंदुओं यानी अल्पसंख्यकों का एकाधिकार बना दिया गया है।
सरकार हिंदू शिक्षा संस्थान और मंदिरों पर मनचाहा हस्तक्षेप करती है और अपनी शर्तें लादती है। वह ऐसा गैर-हिंदू संस्थाओं पर नहीं करती।
इसी तरह अल्पसंख्यकों को संवैधानिक उपचार पाने का दोहरा अधिकार है, जो हिंदुओं को नहीं है। हिंदू केवल नागरिक रूप में न्यायालय से कुछ मांग सकते हैं, जबकि अन्य नागरिक और अल्पसंख्यक, दोनों रूपों में संवैधानिक अधिकार रखते हैं। ऐसा अंधेर दुनिया के किसी लोकतंत्र में नहीं कि अल्पसंख्यक को ऐसे विशेषाधिकार हों जो अन्य को न मिलें।
‘सोशलिज्म’ और ‘सेक्यूलरिज्म’ धारणाओं से हमारे संविधान निर्माता बखूबी परिचित थे। उन्होंने सोच-समझ कर, बल्कि सेक्यूलरिज्म पर विचार करके, इसे संविधान में कोई जगह नहीं दी।
इसी विरोध और कट्टरता के चलते सन 1972 में मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड का जन्म हुआ. तबसे यह समान नागरिक संहिता का विरोध करते हुए शरीयत को संविधान और कानून से ऊपर बताती-मानती है।
कुछ समय से देश में समान नागरिक संहिता की चर्चा बार-बार हो रही है, लेकिन वह आगे नहीं बढ़ पा रही है। इसी तरह हिंदू मंदिरों को सरकारी कब्जे से मुक्त कराने की मांग भी अनुसनी बनी हुई है। छोटे-मोटे संगठन और एक्टिविस्ट धर्मांतरण के विरुद्ध कानून बनाने की भी मांग कर रहे हैं। भोजन उद्योग में हलाल मांस का दबाव बढ़ाने की संगठित गतिवधियों के विरुद्ध भी असंतोष बढ़ा है। शिक्षा अधिकार कानून में हिंदू-विरोधी पक्षपात पर भी काफी उद्वेलन है। आखिर इन मांगों पर सत्ताधारियों का क्या रुख है?