Friday, November 22, 2024
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अधिमास / अधिकमास / मलमास / मलिम्लुच मास / पुरुषोत्तम मास और इसका महत्व

सौर वर्ष और चांद्र वर्ष में सामंजस्य स्थापित करने के लिए हर तीसरे वर्ष पंचांगों में एक चान्द्रमास की वृद्धि कर दी जाती है । इसी को अधिक मास, अधिमास, मलमास, मलिम्लुच मास, या पुरुषोत्तम मास  कहते हैं ।

सौर-वर्ष का मान ३६५ दिन, १५ घड़ी, २२ पल और ५७ विपल हैं। जबकि चांद्रवर्ष ३५४ दिन, २२ घड़ी, १ पल और २३ विपल का होता है। इस प्रकार दोनों वर्षमानों में प्रतिवर्ष १० दिन, ५३ घटी, २१ पल (अर्थात लगभग ११ दिन) का अन्तर पड़ता है। इस अन्तर में समानता लाने के लिए चांद्रवर्ष १२ मासों के स्थान पर १३ मास का हो जाता है ।

वास्तव में यह स्थिति स्वयं ही उत्त्पन्न हो जाती है, क्योंकि जिस चंद्रमास में सूर्य-संक्रांति नहीं पड़ती, उसी को “अधिक मास” की संज्ञा दे दी जाती है तथा जिस चंद्रमास में दो सूर्य संक्रांति का समावेश हो जाय, वह “क्षयमास” कहलाता है। क्षयमास केवल कार्तिक, मार्ग व पौस मासों में होता है। जिस वर्ष क्षय-मास पड़ता है, उसी वर्ष अधि-मास भी अवश्य पड़ता है परन्तु यह स्थिति १९ वर्षों या १४१ वर्षों के पश्चात् आती है । जैसे विक्रमी संवत २०२० एवं २०३९ में क्षयमासों का आगमन हुआ तथा भविष्य में संवत २०५८, २१५० में पड़ने की संभावना है ।

मलमास क्या है ?

मलं वदन्ति कालस्य मासं कालविदोधिकम् गृह्यपरिशिष्ट

मल (विकार) + मास (महीने) = मलमास

मलमास काल का मल है ।
मलमासोऽयम् सौरचान्द्रमासयोः विकारः

सौरमास और चन्द्रमास से विकार स्वरुप मलमास की उत्पत्ति होती है ।

मलमास दो प्रकार के हैं।

१.     अधिकमास               २.  क्षयमास

भारतीय पंचांग (खगोलीय गणना) के अनुसार प्रत्येक तीसरे वर्ष एक अधिक मास होता है । यह सौर और चंद्र मास को एक समान लाने की गणितीय प्रक्रिया है । शास्त्रों के अनुसार पुरुषोत्तम मास में किए गए जप, तप, दान से अनंत पुण्यों की प्राप्ति होती है। सूर्य की बारह संक्रांति होती हैं और इसी आधार पर हमारे चंद्र पर आधारित 12 माह होते हैं। हर तीन वर्ष के अंतराल पर अधिक मास या मलमास आता है ।

सौर – वर्ष का मान ३६५ दिन, १५ घड़ी, २२ पल और ५७ विपल है । जबकि चंद्र वर्ष में ३५४ दिन, २२ घड़ी, १ पल और २३ विपल का होता हैं । इस प्रकार दोनों वर्षमानों में प्रतिवर्ष १० दिन, ५३ घटी, २१ पल (अर्थात लगभग ११ दिन) का अंतर है ।  सौर वर्ष और चंद्र वर्ष में सामञ्जस्य स्थापित करना परम आवश्यक है । यह सामञ्जस्य स्थापित करने के लिए हर तीसरे वर्ष हिन्दू पञ्चांग में एक चंद्रमास की वृद्धि कर दी जाती है । यही अधिकमास है । वस्तुतः यह स्थिति स्वयं ही आ जाती है जब दो अमावस्या के बीच सूर्य की संक्रान्ति नहीं आती ।

अधिमास ३२ महीने, १६ दिन और ४ घड़ी बीत जाने पर अधिमास होता है । सूर्य सिद्धांत के अनुसार ३३.५३५१ चंद्र मासों में ३२.५३४ सौर मास होते हैं ।  इस कारण सौरमासों को चंद्रमास बनाने के लिए सौरमासों के उपरान्त अथवा २ वर्ष ८ महीनों के उपरान्त अधिमास होता है ।क्षयमास १४१ वर्ष पीछे और उसके बाद १९ वर्ष पीछे आता है । क्षयमास कार्तिकादि तीन महीनों में से होता है ।

चैत्रादि १२ महीनों में वरुण, सूर्य, भानु, तपन, चण्ड, रवि, गभस्ति, अर्यमा, हिरण्यरेता, दिवाकर, मित्र और विष्णु-ये १२ सूर्य होते हैं और अधिमास इनसे पृथक् रह जाता है । इस कारण यह मलिम्लुच मास कहलाता है ।

अधिक मास की पुण्य तिथियां
अधिक मास की शुक्ल एकादशी पद्मिनी एकादशी तो कृष्ण पक्ष की एकादशी परमा एकादशी कहलाती हैं । मान्यता है कि इन एकादशियों के व्रत पालन से नाम व प्रसिद्धि मिलती है और व्रती की मनोकामना पूर्ण होने के साथ खुशहाल जीवन मिलता है ।

 पुरुषोत्तम मास नाम क्यों ?

श्रीभगवान ने मलमास को अपना पुरुषोत्तम नाम ही क्यों दिया, अन्य कोई क्यों नहीं ? इसका उत्तर पुरुषोत्तम के अर्थ में छिपा है । पुरुषोत्तम का अर्थ है पुरुषों में उत्तम ‘पुरुषाणमुत्तमः पुरुषोत्तमः’ अर्थात श्रीभगवान पुरुष मात्र नहीं, पुरुषों में सर्वोत्तम हैं । पुरुषसूक्त श्री भगवान के लिए की जाने वाली सबसे अधिक प्रचलित स्तुति है ।

पुरुषोत्तममास व्रत (भविष्योत्तरपुराण) – इस व्रत के विषय में श्रीकृष्ण ने कहा था कि इसका फलदाता, भोक्ता और अधिष्ठाता – सब कुछ मैं हूँ । (इसी कारण से इस का नाम पुरुषोत्तम है।) इस महीने में केवल ईश्वर के उद्देश्य से जो व्रत, उपवास, स्नान, दान या पूजनादि किये जाते हैं, उनका अक्षय फल होता है और व्रती के सम्पूर्ण अनिष्ट नष्ट हो जाते हैं ।

इस विषय में एक बड़ी ही रोचक कथा पुराणों में पढ़ने को मिलती है । कहा जाता है कि भारतीय मनीषियों ने अपनी गणना पद्धति से हर चंद्र मास के लिए एक देवता निर्धारित किए । चूंकि अधिकमास सूर्य और चंद्र मास के बीच संतुलन बनाने के लिए प्रकट हुआ, तो इस अतिरिक्त मास का अधिपति बनने के लिए कोई देवता तैयार ना हुआ । ऐसे में ऋषि-मुनियों ने भगवान विष्णु से आग्रह किया कि वे ही इस मास का भार अपने ऊपर लें । भगवान विष्णु ने इस आग्रह को स्वीकार कर लिया और इस तरह यह मल मास के साथ पुरुषोत्तम मास भी कहा जाने लगा ।

 मलमास क्यों कहा जाता है
मलमासव्रत (देवीभागवत) – अधिकमास के दौरान सभी पवित्र कर्म वर्जित माने गए हैं । माना जाता है कि अतिरिक्त होने के कारण यह मास मलिन होता ह। इसलिए इस मास के दौरान हिंदू धर्म के विशिष्ट व्यक्तिगत संस्कार जैसे नामकरण, यज्ञोपवीत, विवाह और सामान्य धार्मिक संस्कार जैसे गृहप्रवेश, नई बहुमूल्य वस्तुओं की खरीदी आदि आमतौर पर नहीं किए जाते हैं । मलिन मानने के कारण ही इस मास का नाम मल मास पड़ गया है।

अधिकमास में विहित कार्य (क्या करें?)
अधिमास व्रत (हेमाद्रि – भविष्योत्तर) यह व्रत मनुष्यों के सम्पूर्ण पापों का हरण करनेवाला है। चैत्रादि महीनों में जो महीना अधिमास हो, उसके सम्पूर्ण साठ दिनों में से प्रथम की शुक्ल प्रतिपदा से प्रारम्भ करके द्वितीय की कृष्ण अमावास्या तक तीस दिनों में अधिमास के निमित्त उपवास या नक्त अथवा एकभुक्त व्रत कर के यथा सामर्थ्य दान-पुण्यादि करे ।

अधिकमास में सभी नित्य-नैमित्तिक कर्म, नित्य दान, मन्वादि तिथियों का दान, जमीन पर सोना, भगवान श्री विष्णु की पूजा, मंत्र जाप, हवन, विष्णु यज्ञ आदि कर्म भी व्रती को करने चाहिये ।

वह कार्य जो निष्काम भाव से किये जायें, वार्षिक श्राद्ध, दर्शश्राद्ध, प्रेतश्राद्ध, तीर्थश्राद्ध, गजच्छाया श्राद्ध, ग्रहणस्नान, प्राणघातक रोगादि की निवृत्ति के महामृत्युंजय, रूद्रजप आदि अनुष्ठान, कपिलषष्ठी जैसे अलभ्य योगों के प्रयोग, बुधाष्टमी आदि के प्रयोग । संतान जन्म के कृत्य जैसे गर्भाधान, पुंसवन, सीमंत आदि संस्कार और जो कार्य पहले शुरु किये जा चुके हैं उन्हें जारी रखा जा सकता है ।

अधिकमास के वर्जित कार्य देखकर लोगों को ऐसा आभास होता है कि इसमें जपादि नहीं करने चाहिए, जो कि अर्द्धसत्य है । अधिकमास में किसी कामना से जपादि वर्जित हैं जबकि निष्काम जपादि करने का करोड़ों गुना महत्व है ।

पुराणों ने तो यहाँ तक कह दिया है कि जो मनुष्य इस अधिमास में जप, दान नहीं करते, वे महामूर्ख हैं – य एतस्मिन्महामूढ जपदानादिवर्जिताः, वे दुष्ट, अभागी और दूसरे के भाग्य से जीवन चलाने वाले होते हैं, जायन्ते दुर्भगा दुष्टाः परभाग्योपजीविनः अर्थात भाग्यहीन होते हैं।

संपर्क -9820611270

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