संस्कृत के श्लोक हों या उर्दू की शायरी, दौनों को ही लोग सामान्यतः समझे बिना ही फॉरवर्ड कर देते हैं । मैं ने सोचा इस पर एक पोस्ट लिखना चाहिए ताकि और लोगों का भी भला हो सके । ख़ुदा यानि ईश्वर पर ये तीन अशआर अक्सर घूमते हुए मिल जाते हैं ।
ज़ाहिद शराब पीने दे मसजिद में बैठ कर ।
या वो जगह बता दे जहाँ पर ख़ुदा न हो ॥
: मिर्ज़ा ग़ालिब
मस्जिद ख़ुदा का घर है, जगह पीने की नहीं ।
काफिर के दिल में जाओ वहाँ पर ख़ुदा नहीं ॥
: अल्लामा इक़बाल
काफ़िर के दिल से आया हूँ ये देख कर ‘फ़राज़’ ।
ख़ुदा मौजूद है वहाँ मगर उस को पता नहीं ॥
: अहमद फ़राज़
दरअसल इन अशआर का मतलब और मक़सद समझने के लिए पुरातन काल में जाना होगा । जिस परम पिता परमेश्वर के लिए वेदों ने ‘नेति-नेति’ यानि ‘न इति’ यानि “सिर्फ यह नहीं और भी कुछ हो सकता है आप उसे ढूँढने के प्रयास करते रहिये” कहा है; जिसके लिए वेदान्त ने “सर्वं खलविदं ब्रह्म” और गोस्वामी तुलसीदास जी ने “हरि व्यापक सर्वत्र समाना” कहा है उसी के लिए मिर्ज़ा ग़ालिब कहते हैं कि :-
ज़ाहिद शराब पीने दे मसजिद में बैठ कर ।
या वो जगह बता दे जहाँ पर ख़ुदा न हो ॥
यानि चचा ग़ालिब ईश्वरीय सत्ता का कण-कण में विद्यमान होना स्वीकार करते हैं । उन के अनुसार ईश्वर सर्वत्र है । इसीलिए वे ज़ाहिद यानि उपदेशक से कहते हैं कि भैया या तो मुझे मस्जिद में बैठ कर शराब पीने दे या यह बता कि ईश्वर कहाँ नहीं है? मीर ग़ालिब के ज़माने में हमलोग ईश्वर पर सवाल खड़े कर लेते थे । तब आज जैसा नहीं था । अब तो ख़ुदा पर टिप्पणी कर दो तो बवाल कट जाये ।
बहरहाल हम शायरी पर बात आगे बढ़ाते हैं । आज़ादी के वक़्त के एक बड़े ही मशहूर शायर हैं अल्लामा इक़बाल । ये वही इक़बाल हैं जिन्होंने “सारे जहाँ से अच्छा हिन्दोसताँ हमारा” लिखा है । बँटवारे के बाद इन्होंने पाकिस्तान जाना स्वीकार किया । जानकार लोगों के अनुसार इनकी शायरी में बिटविन द लाइन्स साम्प्रदायिकता कूट-कूट कर भरी हुई है । ईश्वरीय विषय तो हर युग में प्रासंगिक रहते हैं तो ज़ाहिर है कि इस्लाम के लक्ष्य को ध्यान में रख कर एक अलग मुल्क की माँग करने वाले लोगों के चहेते शायर ख़ुदा पर बात करने से ख़ुद को कैसे बचा सकते थे । अल्लामा इक़बाल ने इस विषय पर अपना अवलोकन, अपनी समझ, अपना अनुभव प्रस्तुत किया । अल्लामा इक़बाल के अनुसार :-
मस्जिद ख़ुदा का घर है, जगह पीने की नहीं ।
काफिर के दिल में जाओ वहाँ पर ख़ुदा नहीं ॥
सबसे पहले हमें क़ाफ़िर का अभिप्राय समझ लेना चाहिए । इस्लाम के अनुसार क़ाफ़िर वह व्यक्ति होता है जो कि मुसलमान नहीं होता यानि ग़ैर इस्लामिक यानि भारतवर्ष के संदर्भों में हिन्दू को क़ाफ़िर कहा जाता है। अल्लामा इक़बाल के अनुसार मस्जिद ईश्वर का घर है इसलिए वहाँ शराब नहीं पीना चाहिए । वे आगे कहते हैं कि क़ाफ़िर के हृदय में ईश्वर का वास नहीं है वहाँ जा कर शराब पी जा सकती है । अजीब लगता है न कि अल्लामा इक़बाल का ईश्वर सिर्फ़ मस्जिद तक ही महदूद यानि सीमित है । बहरहाल बातें हैं बातों का क्या ? यह उनका अवलोकन, उनकी समझ उनका अनुभव है ।
ख़ुदा यानि ईश्वरीय तत्व पर बात करने से शायद ही कोई कवि, लेखक बच पता है । भले ही मजबूरी में मगर अनुगमन करने से भी बच नहीं पाते लोग । एक उदाहरण देखिये आपको अनेक ऐसे मार्क्सवादी साहित्यकार मिल जाएँगे जो दिन रात ईश्वरीय बातों पर विष-वमन करते रहते हैं मगर जब उनकी धर्मपत्नी जी कहती हैं कि “सुनो जी आज शाम घर पर सत्यनारायण की पुजा होगी। फ्रूट्स लेते हुए समय से आ जाना” तो बेचारे न सिर्फ़ फ्रूट्स ले कर समय से पहले घर पहुँचते हैं बल्कि बाक़ायदा गर्दन झुका कर पूरी कथा भी सुनते हैं । प्रसाद सर चढ़ा कर लेते हैं और कीर्तन में झाँझ मंजीरे भी बजा लेते हैं । ईश्वरीय तत्व पर बात करने से नास्तिक भी बच नहीं पाते । साथ ही एक बात और कहना होगी कि बेशतर कम्युनिस्ट जीवन के अनुभव के बाद संतुलित बातें करने लगते हैं। अहमद फ़राज़ साहब का शेर ऐसी ही मिसाल की तरह हमारे सामने आता है । यही ईश्वरीय तत्व आधारित विवेचन जब अहमद फ़राज़ साहब के अन्त्तर्मन में करवटें बदलने लगा तो उन्होंने फ़रमाया कि :-
काफ़िर के दिल से आया हूँ ये देख कर ‘फ़राज़’ ।
ख़ुदा मौजूद है वहाँ मगर उस को पता नहीं ॥
यानि फ़राज़ साहब यह तो स्वीकार करते हैं कि क़ाफ़िर के हृदय में भी ईश्वर का निवास है परन्तु साथ ही यह भी कहते हैं कि क़ाफ़िर इस बात से अनजान है कि उसके अन्दर ईश्वर निवास करते हैं । फ़राज़ साहब का यह शेर अल्लामा इक़बाल के शेर पर एक तनक़ीद भी है । चूँकि अल्लामा इक़बाल क़ाफ़िर के हृदय में ईश्वर के न होने की बात कहते हैं तो अप्रत्यक्ष रूप से फ़राज़ साहब ने स्वयं इक़बाल को भी सवाल के कठघरे में खड़ा कर दिया ।
बहरहाल, फ़राज़ साहब की बात कुछ-कुछ संतुलित लगती है । यहाँ अल्लामा इक़बाल और अहमद फ़राज़ दो तरह की विचारधाराओं पर बात करते हुए प्रतीत हो रहे हैं। दौनों तरह के व्यक्ति हमेशा से इस संसार में होते रहे हैं । एक तो वे जो समझते हैं कि ईश्वर सिर्फ़ उन के मज़हब के अनुसार ही मिल सकता है और दूसरे वे जो ईश्वरीय तत्व से परिचित ही नहीं होते ।
शेष विश्व के शायरी के प्रेमियों की तरह मैं भी इन अशआर का आनन्द लेता रहा । उस के बाद मेरे साथ दो घटनाएँ घटीं । एक तो यह कि कुछ जानकार लोगों ने बतलाया कि इक़बाल और फ़राज़ के नाम से जो शेर घूम रहे हैं वे दरअसल उन दौनों ने कहे ही नहीं हैं । दूसरी बात ये कि ये तीनों बातें तो इंसानों के बयानात हैं, ईश्वरीय कथन थोड़े न हैं ! इन दो घटनाओं ने मेरी समझ को प्रभावित किया और तब यह शेर ऊपर वाले ने मेरी झोली में डाल दिया :
मैं ख़ुद ख़ुदा हूँ कहीं भी रहूँ मेरी मरज़ी ।
तू सिर्फ़ अपनी डगर पर मेरी तलाश न कर ॥
जहाँ ग़ालिब, इक़बाल और फ़राज़ साहब के नाम से घूमने वाले अशआर में मानवीय अवलोकन दृष्टिगत होता है वहीं मेरा उपरोक्त शेर वेदान्त में परिभाषित ईश्वरीय कथन “सर्वं खलविदं ब्रह्म” का पुनर्प्रतिपादन करता है । यानि “सर्वं खलविदं ब्रह्म” यानि ईश्वर यानि परमपिता परमेश्वर अपने सभी प्यारे-प्यारे बच्चों से कहना चाह रहा है कि मेरे प्यारो मुझे सिर्फ़ अपनी डगर पर ही मत ढूँढो, मैं सर्वत्र हूँ, सर्व-व्यापी हूँ, सार्व-भौमिक हूँ एवं सर्व-समावेशी हूँ । “सर्वं खलविदं ब्रह्म” ।
(लेखक हिंदी मराठी और बृज भाषा के जाने माने शायर हैं)
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