इस्लाम और कम्युनिज्म
यह पुस्तक राजनीतिक इस्लाम और कम्युनिज्म के स्वरूपों पर, भिन्न-भिन्न देशों के तीन बड़े विद्वानों के प्रमाणिक आकलनों की एक प्रस्तुति है।
इस्लाम के अनुसार अच्छा मुसलमान वह है जो प्रोफेट के सुन्ना का पालन करता है। इस्लाम के साथ सामंजस्य का मतलब है उस की ओर से आती रहने वाली क्रमशः अंतहीन माँगें (डॉ. अंबेदकर ने कहा था, ‘मुसलमानों की माँगे हनुमान जी की पूँछ की तरह बढ़ती जाती हैं’) पूरी करते जाना।
इस्लाम उस एक चीज – जिहाद – को कभी नहीं छोड़ेगा, जिस से उसे आज तक सारी सफलता मिली! इस्लाम की सारी सफलता राजनीतिक समर्पण की माँग, दोहरेपन और हिंसा पर आधारित है। बेचारा काफिर जो बदलना चाहता है वह यही चीज है – हिंसा, दबाव, हुज्जत, और राजनीति। जबकि काफिर से समर्पण की माँग करना और हिंसा करना।
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साम्यवाद के 100 अपराध-
भारतीय वामपंथी के मुंह से यह शब्द आपने भी सुने होंगे। तानाशाही, फासीवाद, अभिव्यक्ति की आजादी, लोकतन्त्र की हत्या, सर्वाहारा, समानता और मानवता।
भगवान श्री राम से लेकर सावरकर तक हर महापुरुष पर अंगुली उठाने वाले कम्युनिस्टों के आदर्श माओ कैसे थे? हाँ वही चीनी माओ जिसने1962 मे भारत पर आक्रमण किया था। हाँ वही माओ जो CPI और CPM के अन्तिम नबी हैं। वही माओ जिनकी लिखी हर बात कम्युनिष्टों के लिए कुरान की आयात और बाइबिल की उपदेश माला है। (गीता कम्यूनल है इसलिए गीता नहीं। गीता रामायण और उपनिषद से सेक्युलरिज़्म की भावनाए आहात होती हैं। वैसे भी सनातन एक पिछड़ी हुई सोच है।)
आज के चीन में माओ की दो हज़ार से अधिक ऊंची-ऊंची प्रतिमाएं खड़ी हैं. पर, एक भी ऐसा स्मारक नहीं है, जो उनकी सनक और बहक के कारण मरने वालों की भी याद दिलाता हो. जर्मनी में हिटलर की या रूस में स्टालिन की कोई प्रतिमा नहीं मिलती. लोग उनके नाम पर थूकते हैं, न कि उन्हें पूजते हैं.जितने लोग माओ की सनक से मारे गए उतने तो दूसरे विश्वयुद्ध मे भी नहीं मारे गए।
ली चीस्युई 22 वर्षों तक माओ त्सेदोंग के निजी डॉक्टर थे. समय के साथ वे भी माओ से दूर होते गये. 1976 में माओ की मृत्यु के बाद ‘सांस्कृतिक क्रांति’ का अंत होते ही वे अमेरिका चले गये. वहां प्रकाशित अपनी पुस्तक ‘द प्राइवेट लाइफ़ ऑफ़ चेयरमैन माओ’ (पार्टी अध्यक्ष माओ का निजी जीवन) में डॉक्टर ली ने ‘लंबी छलांग’ और ‘सांस्कृतिक क्रांति’ जैसे राजनैतिक अभियानों के साथ-साथ माओ की आदतों, नवयुवतियों का दैहिक शोषण, शारीरिक और मानसिक स्वास्थ्य वर्णन किया है. यह पुस्तक चीन में आज भी प्रतिबंधित है।
प्रो. आई. गॉक्स बेस्तुजहेव लाडा स्टालिन के कार्यकाल के दौरान मारे गये लोगों की कुल संख्या 5 करोड़ बताते हैं जिसमें दूसरे विश्व युद्ध में मारे गये 2 करोड़ लोग शामिल नहीं थे। यही भयावह नियति पूर्वी यूरोपीय देशों की रही जो द्वितीय विश्व युद्ध के अंत में रूस की चपेट में आ गये थे। पूर्वी बर्लिन में सन् 1953 में 2 लाख मजदूर साम्यवादी तानाशाही के खिलाफ उठ खड़े हुए। पौलेंड में सन् 1956 में मजदूरों ने काम करना बंद कर दिया। हंगरी में सन् 1956 में छात्र-समुदाय द्वारा विशाल विरोध आंदोलन किया गया। सन् 1968 में चेकोस्लोवाकिया में साम्यवादी प्रभुत्व के खिलाफ जन आंदोलन को उसकी पूरी जनसंख्या का समर्थन हासिल था। परंतु रूस की प्रतिक्रिया वही थी, तोपें और बंदूकें।
माओ-त्से-तुंग ने भी स्टालिन के पदचिन्हों पर चलते हुए अपने ही लाखों देशवासियों, खासकर किसानों को मरवा डाला। बाद में चीनी विशेषज्ञों ने प्रकट किया कि चीन में पड़े बदतरीन अकाल के दौरान भुखमरी, बीमारियों आदि से कीड़ों की तरह नष्ट होने वाले लाखों लोगों के अलावा अमानवीय क्रूरता का शिकार बनने वाले लोगों की संख्या 90 लाख थी! चीन के मामले में आरजे रमेल इस संख्या को लगभग 3,87,02,000 बताते हैं।
कम्बोडिया में कम्युनिस्ट शासक पोलपोट ने अपने ही देश के 32 लाख नागरिकों की हत्याएं करवायीं थीं।
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