प्रायः समझा जाता है कि साधु-संन्यासियों का काम निर्जन वनों और पर्वत कन्दराओं में एकान्त साधना करना है किन्तु आदिशंकराचार्य ने संन्यास की जिस नयी चेतना से समाज का दिशा-दर्शन किया वह सामाजिक जीवन के सांस्कृतिक प्रवाह को अमर और अक्षय बनाने का नया विधान रचती है। भारतवर्ष के जिस सुविशाल भू-भाग को उसकी विविधताओं के कारण राजनीति संगठित रखने में बार-बार विफल होती रही है उस भारत-वसुन्धरा को शंकराचार्य अपनी अद्भुत प्रज्ञा से सांस्कृतिक-धार्मिक सूत्र में युग-युग के लिए एकता सिखा गए। वेश, भाषा, भोजन आदि अनेक भिन्नताओं के मध्य अद्वैत-दर्शन की सुचिन्तित एकात्मता आचार्य शंकर के बाद सदा अविच्छिन्न रही है।
चार धामों की यात्रा युग-युगान्तर से देश को जोड़कर रखे है। शंकराचार्य का धार्मिक सांस्कृतिक नेतृत्व इस तथ्य को भी रेखांकित करता है कि संन्यास जीव के ब्रह्म से मिलन की एकान्त साधना मात्र नहीं है, वह सामाजिक-सांस्कृतिक जीवन की गहन समस्याओं के समाधान का सुचिन्तित प्रयत्न भी है। शंकराचार्य के परवर्ती युग में गोस्वामी तुलसीदास, समर्थ गुरु रामदास, स्वामी प्राणनाथ, और सिख गुरुओं से लेकर स्वामी विवेकानन्द, महर्षि दयानन्द, योगी अरविन्द आदि का संन्यासी जीवन आदि शंकराचार्य की लोकमंगलमुखी साधना-दृष्टि से ही अनुप्राणित है। इसलिए आदि शंकराचार्य भारतवर्ष की संन्यास परम्परा में अति विशिष्ट और महत्त्वपूर्ण हैं।
कृषि और ऋषि इस देश की सनातन परम्परा के सुदृढ़ आधार हैं। जहाँ कृषि ने जीवन की अनिवार्य आवश्यकताओं की पूर्ति कर मनुष्य को भौतिक समृद्धि दी, उसके तन को पुष्ट किया, वहीं ऋषि-परम्परा ने उसके मन की सहज दुर्बलताएं दूर कर उसे शिष्ट बनाया, उसमें मानव मूल्यों को विकसित किया। आज नारद, भृगु, याज्ञवल्क्य, वशिष्ठ, व्यास आदि संन्यासी महर्षि पुराणों के विषय हैं किन्तु उनकी यशस्वी परम्परा के संवाहक आदि शंकराचार्य ऐतिहासिक धरातल पर उनके जीवन्त साक्ष्य हैं।
विक्रम की आठवीं शताब्दी में आदि शंकराचार्य का अवतरण भारतीय सांस्कृतिक जगत की सर्वथा अपूर्व घटना है, जिसने भारतवर्ष की सामाजिक-सांस्कृतिक विश्रृंखलता को दूर कर राष्ट्रीय संदर्भों में स्थायी एकता की सुदृढ़ आधारशिला स्थापित की। हमारे राष्ट्रमंदिर का स्वर्ण शिखर आचार्य शंकर की अलौकिक चिन्तन-चेतना से ही सतत आलोकित है। यदि उन्होंने चार दिशाओं में चार मठों की स्थापना कर धार्मिक-सांस्कृतिक दृष्टि से भारतीय समाज को सूत्रबद्ध न किया होता तो बहुत संभव था कि मध्यकाल में इस्लामिक धर्मान्तरण की काली आँधी सब कुछ उड़ाकर ले जाती और बिखरा हुआ भारतीय समाज अपनी सनातन पहचान ही खो बैठता। आदिशंकराचार्य के अवतरण ने एक बार फिर हमारे पौराणिक अवतारवाद की अवधारणा को पुष्ट करके आधे-अधूरे दार्शनिक निष्कर्षों के मकड़जाल से मुक्त कर समाज को निर्भान्त अद्वैत दर्शन दिया।
मनुष्य विचारशील प्राणी है। इसलिए विश्व में अपनी देशकाल परिस्थितियों के अनुरूप निरन्तर चिन्तन करता रहा है और इसीलिए पूरब से लेकर पश्चिम तक अनेक दार्शनिक विचारधाराएं प्रचलित हैं। भारतवर्ष में चार्वाक और यूरोप में कार्लमार्क्स के दार्शनिक विचार वैश्विक स्तर पर समाज में सर्वत्र सर्वाधिक व्यवहत हो रहे हैं किन्तु ये तथाकथित दर्शन सामाजिक समस्याओं के समाधान देने के स्थान पर सामाजिक संघर्ष की भीषण ज्वालाओं को भड़काने में ही अधिक व्यस्त मिलते हैं। चार्वाक की निर्बाध भोगवादी दृष्टि शोषण की अनन्त श्रृंखला उत्पन्न करती है क्योंकि उसमें दान, दया, परोपकार के लिए कोई स्थान नहीं, वहाँ तो केवल अपने पोषण और स्वार्थसिद्धि के लिए ही मानव का पतन-पथ खुला है। चार्वाक दर्शन में श्रम और उत्पादन की प्रेरणा शून्य है जबकि औरों के श्रम पर आत्मपोषण की दृष्टि प्रधान है।
विश्वस्तर पर भ्रष्टाचार और शोषण का अभिशाप इसी कथित दर्शन की देन हैं। कार्लमार्क्स की वर्गवादी जीवन दृष्टि भी समाज को पूंजीवादी और सर्वहारा वर्ग में बाँटकर समाज में हिंसक संघर्ष को ही उत्पन्न कर रही है। माओवाद, नक्सलवाद जैसे हिंसक संगठन भोले-भाले निर्दोष जनजीवन को क्षतविक्षत कर रहे हैं क्योंकि इनमें कहीं भी ‘सर्व’ का भाव नहीं है। आदि शंकराचार्य का अद्वैत दर्शन इस दृष्टि से विशिष्ट है। शंकराचार्य संसार में सर्वत्र एक ही ईश्वरीय सत्ता का निर्देश कर मनुष्य को मनुष्य से ही नहीं प्रत्युत समस्त जीवजगत और वनस्पति जगत से भी जोड़ देते हैं। आज जिस ‘वायोडायवर्सिटी’ के संरक्षण की बात वैज्ञानिक करते हैं उसकी मूल प्रेरणा शंकराचार्य के अद्वैत दर्शन में सन्निहित है। इसलिए लोक कल्याण की सिद्धि के लिए अद्वैत दर्शन सर्वथा विशिष्ट और शाश्वत महत्त्व का है।
सभी प्राणियों में एक ही ब्रह्म की सत्ता का दर्शन कर अद्वैत वेदांत का निरुपण करने वाले आदिशंकराचार्य ने भारत को जिस सांस्कृतिक धरातल पर एक सूत्र में पिरोया वह युग-युगांतर के लिए उनका अद्भुत प्रदेय है। एकात्म धाम की स्थापना आचार्य शंकर के महान व्यक्तित्व और कृतित्व के अनुरूप मप्र शासन का साकार कृतज्ञता ज्ञापन है। समाज शंकराचार्य जी के प्रति जिस श्रद्धा से समृद्ध है उसी का रूपाकार इस विराट प्रतिमा के भव्य लोकार्पण में आकार ले रहा है। म.प्र. गौरवान्वित है कि उसकी धरती पर आध्यात्मिक जगत की इस अप्रतिम विभूति ने ज्ञान प्राप्त कर राष्ट्र को एकात्मता के दिव्य भाव से भर दिया। भावी पीढ़ियां इस अपूर्व स्मारक का दर्शन कर युग-युगांतर तक शंकराचार्य जी के महान अवदान से परिचित होती रहेंगी। इस विश्वास के साथ इस विराट प्रतिमा का राष्ट्र को सादर समर्पण निश्चय ही भारतवर्ष के सांस्कृतिक जगत की महान एतिहासिक उपलब्धि है।
डाॅ. कृष्णगोपाल मिश्र
विभागाध्यक्ष-हिन्दी
शासकीय नर्मदा महाविद्यालय नर्मदापुरम् म.प्र.
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