लन्दन की कॉफ़ी हाउस संस्कृति चार सौ साल से भी अधिक पुरानी है , इसने यहाँ के जटिल सामंतवादी सोच के बीच उदार चिंतन को बढ़ावा दिया था और ये राजनीतिक चर्चा का भी बड़ा केंद्र बन गए थे. शासन को इनसे इतना ख़ौफ़ हो गया था कि इनके संचालन पर किंग चार्ल्स द्वितीय ने बैन लगा दिया था जिस का ज़बर्दस्त विरोध हुआ और दस ही दिन के अंदर यह प्रतिबंध वापस लेना पड़ा , आइए पढ़ते हैं इस का रोचक इतिहास :
कल की शाम टेम्स नदी के साउथ बैंक स्थित एक कॉफ़ी हाउस में गुज़ारी इसका नाम ब्लैक पेनी था . यहाँ के स्टाफ से कुछ अलग से ब्लैक पेनी नाम और लंदन के कॉफ़ी हाउसों के इतिहास की रोचक जानकारी मिली.क्या आप अनुमान लगा सकते हैं कि अब से चार शताब्दी पूर्व के सामंती सोच वाले ब्रिटेन में समाजवादी और उदारवादी चिंतन का बीज कॉफ़ी हाउसों में बोया गया था इनको बाद में पेनी यूनिवर्सिटी भी कहा जाने लगा था .
आइए देखते हैं काफ़ी हाउस संस्कृति के विकास ने किस प्रकार से समाज के सोच को बदलने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई.
पब का इतिहास तो लन्दन में बहुत पुराना है , सदियों से ब्रिटेन में बीयर पीने को पानी पीने से ज्यादा वरीयता दी जाती थी . लेकिन कॉफी हाउस संस्कृति लन्दन में ही नहीं बल्कि पूरे यूरोप में तुर्की के ऑटोमन साम्राज्य से आयी . इस्लाम के व्यापक प्रसार के कारण तुर्की में शराब और मदिरालय आम धर्मनिष्ठ मुस्लिम के लिए वर्जित फल बनते चले गए. फिर वहाँ कहवा खाने खुले . धीरे धीरे वहाँ के आम आदमी के सामाजिक मेलमिलाप, समय बिताने और अड्डेबाज़ी का केंद्र कहवा ख़ाना बन गये . इन कहवा ख़ानों में एक कप कहवा या काफ़ी पीना न सिर्फ़ किफ़ायती था वरन् इनके कारण शताब्दियों से वर्गों में बँटे समाज में बदलाव की लहर भी आई थी .
1652 में ग्रीक मूल से पाशा रोज़ी ने तुर्की के कहवा खानों की तर्ज़ पर लन्दन आ कर पहला कॉफ़ी हाउस खोला , नाम रखा जमेका वाइन हाउस , यह सेंट पॉल कैथेड्रल के क़रीब गली में था , यह विभिन्न आर्थिक और सामाजिक खाँचों में बंटे लन्दन के समाज में क्रांति का बिगुल बजाने की शुरुआत भी थी , यहाँ कोई भी व्यक्ति आ कर आराम से टेबल पर एक पेनी में काफ़ी का कप ख़रीद का बैठ सकता था , चाहे भले ही उस टेबल पर कोई सामंती या फिर भद्र क़िस्म का व्यक्ति ही क्यों न बैठा हो. इन टेबल पर पम्फलेट, समाचार पत्र और किताबें भी रखी रहती थीं, ऐसे माहौल में सामाजिक और राजनीतिक मुद्दों पर चर्चा भी होती. धीरे धीरे बहुत सारे इलाक़े में कॉफी हाउस खुलते गए जहां केवल एक पेनी में एक कप कॉफ़ी मिलती थी . लेकिन इनकी लोकप्रियता शासन को रास नहीं आयी , किंग चार्ल्स द्वितीय के पिता चार्ल्स प्रथम को आंतरिक गृह युद्ध के कारण पदच्युत होना पड़ा था, इसलिए उसे लगा कि इसकी जड़ में कॉफ़ी हाउस की उदार संस्कृति भी शामिल है इसलिए उसने इनके संचालन पर ही प्रतिबंध लगा दिया. लेकिन इस पर जनता ने इतना ज़बरदस्त विरोध किया कि दस दिन में ही यह कदम वापस लेना पड़ा.
प्रारंभ से अब तक लगातार चलने वाले सबसे पुराने कॉफ़ी हाउस की खोज हमें लन्दन से दो घंटे दूर ऑक्सफ़ोर्ड के क्वीन्स लेन काफ़ी हाउस ले गई , यह ऐतिहासिक महत्व का कॉफ़ी हाउस 1654 में सीरिया से आए हुए यहूदी सिरीक जॉब्सन ने प्रारंभ किया था, ब्रिटेन और यूरोप में इतने लम्बे समय से चलने वाला यह अकेला कॉफ़ी हाउस है. हां, बस इसकी जगह एक बार बदली गई है.
लन्दन के पुराने जमाने के कॉफ़ी हाउस में शुरुआती दौर से ही सकारात्मक चर्चा और स्वस्थ वाद विवाद का माहौल रहा है , यहाँ राजनीति, विज्ञान, साहित्य ख़ासकर कविता, व्यवसाय और धर्म पर खुल कर चर्चा होती थीं जिसके कारण इनमें जॉन ड्राइडन, सैमुअल पेपीज़, अलेक्ज़ेंडर पोप, आइजक न्यूटन जैसी हस्तियां भी सम्मिलित रहती थीं. अपनी बौद्धिक चर्चाओं के कारण इन कॉफ़ी हाउस को पेनी यूनिवर्सिटी भी कहा जाने लगा था.
द रेनबो लंदन का दूसरा सबसे पुराना कॉफ़ी हाउस है यह फ्लीट स्ट्रीट में 1657 में खुला था. फ्लीट स्ट्रीट मुद्रण और प्रकाशन का सोलहवीं शताब्दी से गढ़ रहा है बीसवीं शताब्दी के आते आते यह समाचार पत्रों के प्रकाशन के लिए जाना जाने लगा. प्रेस के लोगों के यहाँ के कॉफ़ी हाउसों में आवा जाही के कारण ये कॉफ़ी हाउस ताज़ा तरीन सूचनाओं का व्हाट्सऐप बन गये थे .
काफ़ी हाउस के साथ आख़िर ब्लैक पेनी नाम क्यों जुड़ा इसका रहस्य ब्लैक पेनी काफ़ी हाउस के स्टाफ ने ही उद्घाटित किया . पेनी एक पाउंड का सौवाँ हिस्सा होता है और पेनी सिक्का ताँबे का बना होता है , लगातार चलन में रहने और वातावरण की ऑक्सीजन के संपर्क से यह काला पड़ने लगता है , पुराने जमाने में कॉफ़ी हाउस में एक कप कॉफी एक पेनी में मिलती थी इसलिए इनका नाम ब्लैक पेनी चलन में आ गया. ब्लैक पेनी नाम से कॉफ़ी हाउस शहर में साउथ बैंक , कॉवेंट गार्डन और स्लोन स्क्वायर में हैं , इनमें अगर कुछ बदला है तो कॉफ़ी का दाम , एक कॉफ़ी के लिए अब चार पाउंड यानी कोई चार सौ रुपये देने पड़ते हैं, लेकिन माहौल वही बेतकल्लुफ़ सा है.