प्रतिवर्ष की भांति इस वर्ष भी दिनांक 24 अक्टूबर 2023 को श्री विजयादशमी के पावन उत्सव पर राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के परम पूज्य सरसंघचालक डा मोहन भागवत जी ने नागपुर स्थित संघ मुख्यालय में अपना सारगर्भित उदबोधन दिया है। इस कार्यक्रम के मुख्य अतिथि देश के प्रसिद्ध गायक एवं संगीतकार श्री शंकर महादेवन जी थे।
आज वैश्विक स्तर पर विभिन्न देशों के बीच अविश्वास की भावना जागृत हो रही है। स्पष्ट रूप विश्व एक बार पुनः दो खेमों के बीच बंटता दिखाई दे रहा है। अविश्वास की भावना इस हद्द तक बढ़ चुकी है कि रूस-यूक्रेन तथा आतंकवादी संगठन हमास एवं इजराईल के बीच तो जंग भी छिड़ चुकी है एवं इस जंग में लेबनान, सीरिया एवं अप्रत्यक्ष रूप से ईरान भी कूद गए हैं। इस तरह की विपरीत परिस्थितियों के बीच भारत पूरे विश्व में “वसुधैव कुटुम्बकम” की भावना के साथ शांति स्थापित करने का प्रयास कर रहा है। विभिन्न देशों के बीच “मैं” का भाव बहुत तेजी से बढ़ रहा है, जिसके चलते अहं की भावना विकसित होने के कारण इन देशों की आपस में टकराहट भी बढ़ रही है। विभिन्न देशों के बीच बढ़ रही वैमनस्यता के साथ ही पर्यावरण में आ रहे बदलाव पर चिंता जाहिर करते हुए उक्त उदबोधन में यह भी बताया गया है कि भारत किस प्रकार भारतीय सनातन संस्कृति के बल पर विश्व में शांति स्थापित कर सकता है एवं इस संदर्भ में संघ के स्वयंसेवकों की क्या भूमिका रहने वाली है।
डा भागवत जी अपने उदबोधन में कहते हैं कि अपने स्व को, अपनी पहचान को सुरक्षित रखना, यह मनुष्य की स्वाभाविक इच्छा व सहज प्रयास है। द्रुतगति से परस्पर निकट आने वाले विश्व में आजकल सभी राष्ट्रों में यह चिंता करने की प्रवृत्ति बढ़ी है। संपूर्ण विश्व को एक ही रंग में रंगने का, एकरूपता का कोई भी प्रयास अब तक सफल नहीं रहा है, और ऐसी उम्मीद भी दिखाई नहीं देती है कि निकट भविष्य में यह सफल हो सकेगा। भारत की पहचान को, हिंदू समाज की अस्मिता को बनाए रखने का विचार स्वाभाविक तो है ही। आज के विश्व की वर्तमानकालीन समय की आवश्यकताएं पूरी करने के लिए, अपने स्वयं के मूल्यों पर आधारित, काल सुसंगत, नया रूपरंग लेकर भारत खड़ा हो, यह विश्व की भी अपेक्षा है। मत संप्रदायों को लेकर उत्पन्न हुए कट्टरपन, अहंकार व उन्माद को विश्व झेल रहा है।
स्वार्थों के टकराव तथा अतिवादिता के कारण उत्पन्न होने वाले यूक्रेन के अथवा गाझा पट्टी के युद्ध जैसे कलहों का कोई निदान दिख नहीं रहा है। विश्व के कई देशों में प्रकृति विरुद्ध जीवनशैली, स्वैरता तथा अनिर्बंध उपभोगों के कारण नई-नई शारीरिक व मानसिक बीमारीयां उत्पन्न हो रही हैं। विकृतियां व अपराध बढ़ रहे हैं। आत्यंतिक व्यक्तिवाद के कारण परिवार टूट रहे है। प्रकृति के अमर्याद शोषण से प्रदूषण, वैश्विक तापमानवृद्धि, ऋतुक्रम में असंतुलन व तज्जन्य प्राकृतिक हादसे प्रतिवर्ष बढ रहे हैं। आतंकवाद, शोषण और अधिसत्तावाद को खुला मैदान मिल रहा है। अपनी अधूरी दृष्टि को लेकर विश्व इन समस्याओं का सामना नहीं