Tuesday, November 26, 2024
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अलाउद्दीन खिलजी द्वारा रमज़ान के महीने में सुलतान का कत्ल- भारत में इस्लाम

बूढ़ा जलालुद्दीन खिलजी सात साल ही दिल्ली पर कब्ज़ा करके रह सका। जैसे-जैसे दिल्ली पर काबिज तुर्कों को भारत के दूरदराज मालामाल और बेफिक्र इलाकों की जानकारियाँ मिलती गईं, लूट के माल को लेकर उनमें खूनी मुकाबले बढ़ते गए। दिल्ली का तख्त शेर की सवारी बन चुका था, जिसमें ज्यादातर सुलतानों और उनके करीबियों को साजिश के तहत मरना तय था।
जलालुद्दीन खिलजी ने इलाहाबाद के पास कड़ा-मानिकपुर अपने भतीजे अलाउद्दीन को सौंपा, जो उसका दामाद भी था। अलाउद्दीन काे उसने बचपन से खेलाया था। लेकिन भतीजे ने कड़ा में रहते ही आज के मध्य प्रदेश में विदिशा और महाराष्ट्र में देवगिरि को पहली बार लूटा।
 
इस लूट के कारण दिल्ली पर कब्जा करना उसकी पहली चाहत थी। दक्षिण की लूट की ब्रेकिंग-न्यूज़ लगातार दिल्ली वालों की आँखें चौंधिया रही थीं। एक ही बात सबकी जुबान पर थी- “इतना माल इससे पहले किसी को नहीं मिला!” अब जलालुद्दीन के सिर पर मौत मंडराई।
 
पहले विदिशा और फिर देवगिरि को लूटने के बाद अलाउद्दीन दिल्ली नहीं गया। वह कड़ा पहुँचा। डरने का नाटक रचा। अपने भाई अल्मास बेग के जरिए जलालुद्दीन खिलजी को लगातार झाँसे में रखा। जलालुद्दीन को ही कड़ा बुलाया।
 
हिंदू राज्यों से लूट के माल के लालच, दिल्ली की खूनी सियासत और आपसी धोखाधड़ी का तजुर्बा अब 100 साल पुराना हो चुका था। जलालुद्दीन के भरोसेमंद दरबारियों ने उसे खूब समझाया कि वह अलाउद्दीन के फरेब में न आए। देवगिरि की लूट ने उसका दिमाग खराब कर दिया है। वह किसी भी हद तक जा सकता है। हम बचेंगे नहीं।
 
वह 1296 का साल था। जलालुद्दीन ग्वालियर में था। उसका पूरा दरबार वहीं था। अलाउद्दीन की लूट की खबरें लगातार मिल रही थीं, जो देवगिरि से लौटते हुए कड़ा के रास्ते में था। अहमद चप नाम के दरबार के प्रबंधक ने जलालुद्दीन को जोर देकर कहा–
“मेरी राय है कि आप दिल्ली वापस न चलें। यहाँ से सीधे चंदेरी कूच करें। अलाउद्दीन के कड़ा पहुँचने के पहले ही उसका रास्ता रोक दें। अल्लाह ही जानता है कि देवगिरि से इतना माल लूटने के बाद उसके मन में बगावत के कौन से ख्याल आए होंगे। दौलत और फसाद एक दूसरे के अधीन हैं। यदि बिना लूट का माल लिए हम दिल्ली लौट जाएंगे और अलाउद्दीन की थकी-हारी सेना को कड़ा जाने देंगे तो हम सबकी मौत तय है।”
 
दरबार में जलालुद्दीन का जवाब है- “तूने मेरे बच्चे को शेर बनाकर पेश किया है। मैंने अलाउद्दीन के बारे में कौन सी बुरी बात की है, जिससे वह मेरी मुखलफत करेगा और लूट का माल और हाथी मेरे सामने नहीं लाएगा।”
 
दरबारियों में शामिल मलिक फखरुद्दीन कूची ने जलालुद्दीन को खुश करने के लिए राय दी कि यही बेहतर है कि सुलतान स्वयं दिल्ली लौट चलें। रमजान का महीना वहीं बिताएँ। अलाउद्दीन को पूरी धन-दौलत के साथ कड़ा पहुंचने दें। उसके प्रार्थना पत्र आने दें। अगर किसी किस्म का विरोध दिखाई देगा तो सुलतानी लश्कर एक ही धावे में उसका जवाब देगा। वह बचकर कहाँ जाएगा?
 
जलालुद्दीन को यह सलाह जची। वह दिल्ली पहुँचता है। देवगिरि के समृद्ध हिंदू साम्राज्य की अकल्पनीय लूट में हासिल जवाहरात, सोना, चांदी और हाथियों की चमकती खबरें दिल्ली में भी चर्चा का सबसे अहम विषय थीं। अलाउद्दीन लूट के माल सहित सुरक्षित अपनी रियासत कड़ा में पहुँच चुका था। अब अलाउद्दीन का खत आता है-
“मैं यह अपार खजाना, जवाहरात, मोती, 31 हाथी, घोड़े और तमाम बेशकीमती सामाना आपकी भेंट के लिए लाया हूँ। एक साल से ज्यादा इस जंग में लगा रहा हूँ और बिना आदेश के उस राज्य में हमला किया। मुझे नहीं पता मेरी गैरमौजूदगी में मेरे दुश्मनों ने दरबार के सामने क्या-क्या कहा होगा। मैं और मेरे लोग डरे हुए हैं। यदि आप अपनी मुहर लगाकर इस मुहिम में मेरे कारण अपनी जान की बाजी लगाने वाले मेरे जांबाज साथियों के नाम फरमान भेजें तो मैं लूट का माल भेंट कर दूँगा।”
 
साजिश से भरी सियासत पूरे ज़ोर पर थी। इधर यह खत भेजने के साथ ही अलाउद्दीन ने खुद लखनौती भाग निकलने की तैयारी भी शुरू कर दी। ये खबरें भी दिल्ली में खूब थीं, लेकिन जलालुद्दीन को एकतरफा भरोसा अपने भतीजे-दामाद पर था।
 
अलाउद्दीन का सगा भाई अल्मास बेग दिल्ली में ही शाही घोड़ों की देखभाल के काम में लगा था। वह जलालुद्दीन काे कहता रहता था कि मेरे भाई को लोगों ने बहुत डरा दिया है। ऐसा न हो कि वह आपके डर से जहर खाकर या पानी में डूबकर खुदकुशी कर ले। इसके तुरंत बाद अलाउद्दीन का एक खत अल्मास के पास आया। अपने भाई को वह लिखता है-
“मैं हर समय अपनी पगड़ी में जहर छुपाए रहता हूँ। अगर सुलतान अकेले में आकर मुझे भरोसा दिलाएँ तो ही मुझे सुकून होगा। अन्यथा या तो मैं जहर खा लूँगा या धन-संपत्ति लेकर जहां जी चाहेगा, चला जाऊँगा।”
 
सारी तरकीबें काम आईं। अब दिल्ली से यमुना के रास्ते नौका पर सवार होकर अल्मास बेग सातवें दिन कड़ा पहुँचता है। वह राजदूत की हैसियत से आया है। उसके पास जलालुद्दीन की ओर से सबसे बड़ी खुश खबरी थी- “मैं अकेला कड़ा आ रहा हूँ। अलाउद्दीन मेरा बेटा और मेरी आँखों की रोशनी है। मैं वहीं आकर उसकी हौसला अफजाई करूँगा।”
 
जलालुद्दीन की गिद्ध दृष्टि देवगिरि की लूट के माल पर थी। उसके लालच में उसने अपने किसी भी सलाह नहीं सुनी। वह 1,000 सवारों को लेकर दिल्ली से निकला। उसने यमुना के जलमार्ग से यात्रा करने का फैसला किया। अहमद चप फौजी दस्ते को लेकर निकला। बारिश का मौसम था।
 
रमजान का महीना था। रमजान की 17 वीं तारीख को वह कड़ा पहुँचा, जहाँ जलालुद्दीन को गंगा नदी दिखाई देती है।अब तक सब कुछ अलाउद्दीन की मंशा के मुताबिक हो रहा था। इस दौरान उसने गंगा नदी और कड़ा-मानिकपुर के बीच अपने हथियारबंद हमलावरों के शिविर लगा दिए थे। चचा-भतीजे और ससुर-दामाद के दोहरे रिश्ते में बंधे इन दो किरदारों के बीच गंगा किनारे मुलाकात का दृश्य जियाउद्दीन बरनी ने बहुत विस्तार से दर्ज किया गया है।
 
 
अलाउद्दीन ने एक बार फिर अपने भाई अल्माश बेग को अपनी तरफ से स्वागत के लिए जलालुद्दीन के पास इस योजना से भेजा कि जैसे भी हाे सके सुलतान को गिने-चुने सवारों के साथ लेकर आए। जो हजार सवार दिल्ली से साथ आए हैं, वे वहीं छोड़ दिए जाएँ। शातिर अल्मास बेग ने जलालुद्दीन के सामने दीन-हीन की तरह बात की-
“मेरा भाई सब कुछ छोड़कर भाग जाने को तैयार है। मुझे आपकी मेहरबानी पर पूरा भरोसा है। यदि मैं यहाँ न आया होता तो वह अब तक जाने कहाँ भाग चुका होता। आप जल्द से जल्द चलें। उसने यदि हथियारबंद सवारों को आपके साथ नौका पर देख लिया तो वह खुदकुशी ही कर लेगा।”
जलालुद्दीन का दिमाग देवगिरि से लूटकर लाई गई बेहिसाब दौलत में टिका था। फौरन अपने साथ के हथियारबंद सवारों और नौकाओं को किनारे पर ही रोका। चंद भरोसेमंद लोगों के साथ वह अलाउद्दीन से मिलने निकला।
 
अल्मास बेग ने तब अपने चचा सुलतान जलालुद्दीन से कहा कि जो साथ आ गए हैं, उनसे उनके हथियार खोलकर रखने को कहें। ऐसा न हो कि मेरा भाई इन्हें देखकर भी न डर जाए। सबने अपने हथियार कमर से खोलकर नीचे रख दिए।
 
सामने सबकी नज़र अलाउद्दीन खिलजी के लश्कर पर पड़ी। जलालुद्दीन के साथ आए लोगों के होश उड़ गए। हाथी, घोड़ों पर हथियारबंद लोग दूर-दूर हमलावर मुद्रा में खड़े थे। यह एक डरे हुए भतीजे की मौजूदगी नहीं हो सकती थी। अल्मास बेग ने अब कहा-मेरे भाई की इच्छा थी कि वह सुसज्जित सेना के साथ सुलतान के सामने खाकबोस करे।
 
जलालुद्दीन कहता है- “मैं इतनी दूर से रोजा रखने के बावजूद आया हूँ। लेकिन अलाउद्दीन से इतना भी नहीं हो सकता कि वह नौका पर सवार होकर मेरे इस्तकबाल के लिए आए।”
अल्मास बेग का जवाब है- “मेरे भाई की तमन्ना है कि जब अन्नदाता उस तरफ उतर जाएँ तो वह हाथियों, मोती और जवाहरात के संदूकों और अपने अमीरों के साथ आपके सामने आए। अभी पता चल जाएगा कि उसने किस तरह अन्नदाता के रोजा इफ्तार का इंतजाम किया है।”
 
मगरिब की नमाज़ के समय जलालुद्दीन नदी के किनारे पर उतरा। अब अलाउद्दीन दृश्य में आता है। उसने अपने खास लोगों के साथ सुलतान के सामने खाकबोस किया। उसके पैरों पर गिर पड़ा। जलालुद्दीन ने अपने भतीजा-दामाद को एक रहमदिल बाप की तरह माथे और आंखों को चूमा। उसकी दाढ़ी पकड़ी। दो तमाचे प्यार से उसके गालों पर मारते हुए कहा–
“बचपन में मेरी गोद में बैठकर तू मेरे कपड़ों पर पेशाब कर दिया करता था। वह गंध आज भी मेरे लिबास पर मौजूद है। तू मुझसे क्यों डरता है? यह तूने क्यों सोच लिया कि मैं तुझे कोई नुकसान पहुँचाऊँगा। तू दूध पीता बच्चा था तब से मैंने तेरी परवरिश की। क्या इसलिए तुझे बड़ा किया कि जवान हो जाए तो तेरा कत्ल कर दूँ। तू हमेशा मेरे बेटों से बढ़कर था और है। मुझ जैसे रोजेदार को इस हालत में बुलाया कि तेरे और मेरे अलावा कोई और न हो। तुझे इन अजनबी लोगों पर यकीन है, जो दौलत के लालच में तेरे चारों तरफ इकट्ठा हो गए हैं।”
बूढ़े जलालुद्दीन ने बड़े प्यार से अलाउद्दीन का हाथ पकड़ा और नौका की तरफ खींचकर कुछ कहने लगा। तभी पहले से तय एक साजिश के पूरा होने का समय आ गया। एक महमूद सालिम नाम के साधारण सैनिक ने जलालुद्दीन पर तलवार से वार किया। उसका हाथ कट गया। वह जख्मी होकर नदी की तरफ भागा। भागते हुए जलालुद्दीन की आवाज सुनाई दे रही है- “ऐ अभागे अला! तूने यह क्या किया?“ अब इख्तियारुद्दीन नाम का शख्स पीछे दौड़ा और सुलतान को पटककर सिर काट डाला। खून टपकता हुआ कटा हुआ सिर अलाउद्दीन के सामने लाया गया।
रोजा इफ्तारी के पहले ही जलालुद्दीन खिलजी का कत्ल किया गया। उसके कटे हुए सिर को भाले की नोक पर टांगा गया। कड़ा और मानिकपुर की गलियों में उसे घुमाया गया। फिर पूरे अवध में जलालुद्दीन खिलजी का कटा हुआ सिर घुमाया गया ताकि अब हर आमोखास को खबर हो जाए कि अलाउद्दीन खिलजी सुलतान के तख्त पर बैठने के लिए तैयार है। दिल्ली अब दूर नहीं है। गंगा साक्षी थी कि सात साल पहले जलालुद्दीन खिलजी ने इसी कड़ा नाम की जगह पर क्या किया था?
 
तब अलाउद्दीन की जगह पर मलिक छज्जू नाम का एक तुर्क कड़ा में काबिज था। वह बलबन का सगा भतीजा था और जलालुद्दीन के खिलाफ बगावत पर उतारू हो गया था। जलालुद्दीन उसकाे जवाब देने के लिए फौज सहित आया था।
 
छज्जू की फौज में बड़ी तादाद में हिंदू भी थे। दिल्ली की फौज के आगे छज्जू टिक नहीं पाया। जब हारे हुए लोग बंदी बनाकर जलालुद्दीन के सामने लाए गए तो इस सुलतान ने इंसाफ क्या किया? उसने सारे हिंदुओं को हाथी के पैरों तले कुचलवा दिया और मुसलमानों को बरी कर दिया था।
 
ऐसे एकतरफा इंसाफ को दस्तावेजों में बार-बार इस्लामी न्याय लिखा गया है। वे इसे ही इस्लाम कहते थे। अब रमज़ान के मुबारक महीने में रोजे के दिन जलालुद्दीन खिलजी को धोखे से बुलाकर बेरहमी से कत्ल करने वाला कोई काफिर हिंदू नहीं था।
 
वह भी एक दीनदार मुसलमान था। वह उसका भतीजा था। उसके साथ अपनी बेटी की शादी भी की थी। वह भतीजा भी था और दामाद भी। वह अच्छे से जानता था कि इस्लाम में रमज़ान के महीने की क्या जगह है। वह जानता था कि चचाजान रोजे पर हैं।
 
उसे मालूम था कि नमाज़ के बाद इफ्तारी का वक्त है। लेकिन एक तलवार ने बचकर भागते हुए सुलतान का सिर धड़ से अलग कर दिया था। वह खून टपकता हुआ सिर अलाउद्दीन के सामने लाया गया। जियाउद्दीन बरनी ने लिखा है- “अलाउद्दीन ने दो बार शहादत के कलमे पढ़े।“
अलाउद्दीन ऐसा क्यों न करता। आखिर वह भी तो एक दीनदार मुसलमान था।
 

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