सोमवार (11 दिसंबर) को सर्वोच्च न्यायालय ने धारा 370-35ए को बहाल करने संबंधित 23 याचिकाओं पर अपना फैसला सुना दिया। पांच न्यायाधीशों की संविधान खंडपीठ ने एकमत होकर मोदी सरकार द्वारा 5 अगस्त 2019 को उपरोक्त धाराओं के संवैधानिक क्षरण को न्यायोचित बताया।
अदालत के विस्तृत फैसले का मर्म यह है कि धारा 370 एक अस्थायी प्रावधान था, जम्मू-कश्मीर के पास कोई आंतरिक संप्रभुता नहीं थी, राष्ट्रपति को धारा 370-35ए हटाने का अधिकार था और लद्दाख को अलग करने का निर्णय भी वैध था। इस पृष्ठभूमि में देश का एक राजनीतिक-वैचारिक वर्ग, जोकि इन धाराओं का प्रत्यक्ष-परोक्ष समर्थक है— वह अदालत के फैसले से हताश है और उसे ‘मौत की सजा’ बता रहा है। वास्तव में, शीर्ष अदालत का निर्णय राष्ट्रीय विचारधारा की भी विजय है, जिसने दशकों तक देश के एकीकरण हेतु, राष्ट्रहित के लिए और जिहादी-वामपंथी दर्शन के खिलाफ सतत संघर्ष किया है।
राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ और भारतीय जनसंघ (अब भाजपा) प्रारंभ से धारा 370-35ए के खिलाफ आंदोलित रहे है। जहां नवंबर 1947 में संघ के प्रारंभिक चिंतकों में से एक— बलराज मधोक ने प्रजा परिषद की स्थापना करके जम्मू-कश्मीर को मिले विशेषाधिकार का विरोध किया, तो जनसंघ के संस्थापक डॉ. श्यामा प्रसाद मुखर्जी ने “एक देश में दो निशान, दो विधान नहीं चलेंगे…नहीं चलेंगे” नारा देकर भारत में जनजागरुकता अभियान चलाया।
इसी दौरान वर्ष 1953 में डॉ.मुखर्जी कश्मीर में गिरफ्तार कर लिए गए और पुलिस हिरासत में अपने प्राणों का बलिदान दे दिया। उसी वर्ष से आरएसएस अबतक 27 संकल्प-पत्र पारित कर चुका है, जिसमें इन धाराओं से विघटन-अलगाव को बढ़ावा, तो भ्रष्टाचार को प्रोत्साहन मिलने की बात कही गई और जम्मू-कश्मीर को एक संघ शासित प्रदेश में बदलने का आग्रह आदि भी किया गया। इस दिशा में आरएसएस का अंतिम संकल्प वर्ष 2020 में आया था, जिसमें 5 अगस्त 2019 को धारा 370-35ए का संवैधानिक क्षरण करने के लिए प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की राजनीतिक इच्छाशक्ति की प्रशंसा की गई थी।
धारा 370-35ए को हटाना क्यों आवश्यक था, इसपर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का 12 दिसंबर को विभिन्न समाचारपत्रों में प्रकाशित कॉलम महत्वपूर्ण है। उनके अनुसार, “जम्मू-कश्मीर में जो कुछ हुआ था, वह हमारे राष्ट्र और वहां के लोगों के साथ एक बड़ा विश्वासघात था।“ जब प्रधानमंत्री इन धाराओं को धोखा बताते हैं, तब वे उस मानसिकता को रेखांकित करते है, जिसका अंतिम उद्देश्य ही इस देश का और उसकी मूल सनातन संस्कृति का विखंडन करना है। नैरेटिव बनाया जाता है कि स्वतंत्रता के समय धारा 370-35ए रूपी विशेषाधिकार, भारतीय परिसंघ में जम्मू-कश्मीर रियासत के विलय हेतु शर्त का हिस्सा था। यह विचार भ्रांति और मिथ्या है, जिसे वर्षों से पाकिस्तान के वैचारिक मानसपुत्र और खंडित भारत में वाम-उदारवादी समूह द्वारा अपने निहित स्वार्थ की पूर्ति हेतु रट रहे है।
जब दूसरे विश्व युद्ध की समाप्ति के पश्चात अंग्रेज 1947 में भारत छोड़ने पर विवश हुए, तब सभी रियासतों ने तत्कालीन वाइसराय और गवर्नर-जनरल लॉर्ड माउंटबेटन द्वारा बनाए ‘इंस्ट्रूमेंट ऑफ एक्सेशन’ पर बिना किसी शर्त हस्ताक्षर करके भारतीय परिसंघ में विलय किया था। जिस ‘विलय-पत्र’ पर जम्मू-कश्मीर के तत्कालीन महाराजा हरिसिंह ने हस्ताक्षर किया था, उसका प्रारूप (फुल स्टाप, कोमा, एक-एक शब्द सहित) भी बिल्कुल वही था, जिसपर अन्य सभी रियासतों ने भारत में विलय के दौरान हस्ताक्षर किया था।
अक्टूबर 1947 में पाकिस्तान द्वारा जिहादी हमले के बाद जो पत्र महाराजा हरिसिंह ने माउंटबेटन को लिखा था, उसमें उन्होंने कहीं भी रियासत को कोई विशेषाधिकार दिए जाने का उल्लेख नहीं किया था। परंतु कुटिल माउंटबेटन बड़ी चतुराई के साथ विलय प्रक्रिया में ‘विवाद’ शब्द जोड़ दिया। यह औपनिवेशिक कोपभाजन अंग्रेजों का महाराजा हरिसिंह के प्रति घृणा का प्रकटीकरण था, क्योंकि महाराजा हरिसिंह ने 1930-31 में लंदन स्थित हाउस ऑफ लॉर्ड्स के गोलमेज सम्मेलन में भारत की स्वतंत्रता का खुलकर समर्थन किया था। इसमें ब्रितानियों को पंडित नेहरू और उनके घोर सांप्रदायिक परममित्र शेख अब्दुल्ला का सहयोग भी मिला, जिसने कालांतर में कश्मीर को गहरे संकट में डाल दिया।
जैसे भारतीय उपमहाद्वीप में मुस्लिम अलगाव पैदा करने लिए अंग्रेजों ने अपने वफादार और ‘दो राष्ट्र सिद्धांत’ के जनक सैयद अहमद खान को चुना, ठीक वैसे ही कश्मीर में ब्रितानियों को अपनी कपटपूर्ण योजना की पूर्ति हेतु विश्वासपात्र की आवश्यकता थी। यह खोज शेख अब्दुल्ला पर जाकर खत्म हुई, जो 1931 में अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय के विषैले इको-सिस्टम से ग्रस्त होकर वापस घाटी लौटे थे। तब रियासत में सांप्रदायिक सद्भाव और समरसता का वातावरण था।
महाराजा हरिसिंह के पुत्र, कांग्रेसी नेता और पूर्व केंद्रीय मंत्री डॉ. कर्ण सिंह की आत्मकथा इसकी बानगी है। कश्मीर पहुंचते ही शेख ने देशभक्त महाराजा हरिसिंह को मुस्लिम विरोधी बताना शुरू कर दिया। यह स्थिति तब थी, जब स्वयं शेख ने अपनी आत्मकथा ‘आतिश-ए-चिनार’ में स्वीकार किया था— “महाराजा सदैव मजहबी विद्वेष से ऊपर थे और वह अपने कई मुस्लिम दरबारियों के निकट थे।” फिर भी हाथों में कुरान लेकर और श्रीनगर की मस्जिदों से उन्होंने महाराजा हरिसिंह के खिलाफ विषवमन किया।
जब वर्ष 1946 में ‘कश्मीर छोड़ो’ आंदोलन के दौरान शेख गिरफ्तार हुए, तब पं.नेहरू ने उनके समर्थन में मुकदमा लड़ने की घोषणा कर दी। श्रीनगर जाने की कोशिश कर रहे पं.नेहरू भी गिरफ्तार कर लिए गए। यही से पं.नेहरू की आंखों में महाराजा हरिसिंह खटकने लगे, जिसने आगे चलकर कश्मीर को समस्या बनाकर देश की सुरक्षा को गर्त में पहुंचा दिया और पर्दे के पीछे से धारा 370-35ए को संविधान में जोड़ा दिया। जब पं.नेहरू को अपनी गलती और शेख की वास्तविक जिहादी मंशा का आभास हुआ, तब अगस्त 1953 में उन्होंने देशविरोधी गतिविधियों में लिप्त शेख के गिरफ्तारी के आदेश दे दिए। तब स्वयं पं.नेहरू भी ’अस्थायी’ धारा 370-35ए को हटाने के पक्षधर थे। 27 नवंबर 1963 को लोकसभा में पं.नेहरू ने कहा था, “अनुच्छेद 370 के क्रमिक क्षरण की प्रक्रिया चल रही है। इस संबंध में कुछ नए कदम उठाए जा रहे हैं और अगले एक या दो महीने में उन्हें पूरा कर लिया जाएगा।”
यदि पं.नेहरू कुछ समय और जीवित रहते, तो वे इसे अपने शासनकाल में ही हटा चुके होते। 1975 में पं.नेहरू की सुपुत्री और तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने उसी शेख अब्दुल्ला से समझौता (कश्मीर अकॉर्ड) करके उन्हें फिर से जम्मू-कश्मीर का मुख्यमंत्री बना दिया। कालांतर में शेख ने फिर अपना असली मजहबी रंग दिखाना शुरू कर दिया। ‘निजाम-ए-मुस्तफा’ की मांग को गति मिली और 1980-90 के दशक में स्थानीय मुस्लिमों ने जिहादी उन्माद में 31 हिंदू मंदिरों को तोड़ दिया। ‘काफिर’ कश्मीरी पंडितों की दिनदहाड़े हत्या होने लगी। श्रीनगर के स्थानीय अखबारों में आतंकी संगठन विज्ञापनों देकर हिंदुओं को कश्मीर छोड़ने या मौत के घाट उतारने की खुलेआम धमकी देने लगे। परिणामस्वरूप, पांच लाख से अधिक कश्मीरी पंडित पलायन कर गए।
धारा 370-35ए के रहते कश्मीर में क्या हालात थे, वह किस विषाक्त दौर से गुजर रहा था और अगस्त 2019 के बाद क्षेत्र किस सकारात्मक परिवर्तन का साक्षी बन रहा है, उसे मैंने कई अवसरों पर इस कॉलम में लेखबद्ध किया है। सर्वोच्च न्यायालय का निर्णय ऐतिहासिक है। परंतु जबतक घाटी के मूल बहुलतावादी दर्शन के ध्वजवाहक— पंडित अपने घर नहीं लौट आते और वहां सुरक्षित अनुभव नहीं करते, यह बदलाव अधूरा है।
(लेखक वरिष्ठ स्तंभकार, पूर्व राज्यसभा सांसद और भारतीय जनता पार्टी के पूर्व राष्ट्रीय-उपाध्यक्ष हैं।)