अयोध्या वैकुंठ नगर है:
अयोध्या को अथर्ववेद में ईश्वर का नगर बताया गया है और इसकी सम्पन्नता की तुलना स्वर्ग और मानव शरीर के आत्म तत्व परम पिता परमेश्वर से की गई है। जो देवताओं, राक्षसों,शत्रुओं तथा पातक समूह से जीती ना जा सके उसे अयोध्या कहते हैं। अर्थात सत्व गुण विष्णु, रजो गुण ब्रह्मा और। तमो गुण शंकर से परे गुणातीत अवध धाम कहलाता है। ब्रह्मांड स्थित अवध या अयोध्या ही भूतलपिण्ड स्थित अयोध्या धाम है। भगवान ने गोस्वामी तुलसीदास के शब्दों में स्वयं कहा है —
पुनि देखु अवधपुरी अति पावनि।
त्रिविध ताप भव रोग नसावनि।।
आगे पुनः गोस्वामी तुलसीदास ने इसकी महत्ता इन शब्दों में की है –
जद्यपि सब वैकुंठ बखाना।
बेद पुरान विदित जगु जाना।
अवधपुरी सम प्रिय नहिं सोऊ।
यह प्रसंग जानइ कोउ कोऊ।।
राष्ट्र कवि राम धारी सिंह दिनकर ने भी कहा है –
है अयोध्या अवनि की अमरावती
इंद्र हैं दशरथ विदित वेदव्रती।
वह मृतकों को मात्र पार उतारती
यह जीवितों को यही से तारती।।
“अयोध्या दर्शन” गीता प्रेस, गोरखपुर से प्रकाशित पुस्तक में पण्डित श्री रामकुमार दास जी के आलेख “साकेत -दिव्य अयोध्या” के पृष्ठ 57- 58 पर भगवान राम के अष्टाचक्र अयोध्या का वर्णन किया है। जो अथर्ववेद के दसवें कांड के दूसरे सूक्त के 27 से 33 तक सात मंत्रों और कुछ अन्य संपूरित साक्ष्यों के आधार पर निर्मित किया गया है।
तद्वा अथ॑र्वण: शिरो॑ देवकोश: समु॑ब्जित:।
तत्प्राणो अभि र॑क्षति शिरो अन्नमथो मन॑:॥
(अथर्ववेद दसवां कांड, दूसरा सूक्त मंत्र संख्या 27)
अथर्व प्रजापति द्वारा प्रदत्त सिर शीर्ष भाग सरलता से विद्यमान है। वह दोनों का सुरक्षित खजाना है। उस सिर का संरक्षण प्राण अन्न और मन करते हैं। शिर मस्तिष्क का असाधारण सामर्थ्य ऋषि जानते समझते रहे हैं। उसके दिव्य संपदाओं का अक्षय भण्डार मानते रहे हैं। अत्र प्राण और मन उसके क्रमशः स्थूल सूक्ष्म और कारण तंत्र के संरक्षण हैं।
आगे के मन्त्रों में दिव्य अयोध्या नगरी के उपलक्षण से ब्रह्मांड एवम शरीर रूपी आवास को विलक्षण विशेषताओं तथा उनके निवासी दिव्य पुरुष का वर्णन है।
ऊर्ध्वो नु सृष्टा३स्तिर्यङ् नु सृष्टा३:0 सर्वा दिश: पुरु॑ष आ ब॑भूवाँ।३।
(अथर्ववेद दसवां कांड , दूसरा सूक्त मंत्र संख्या 28)
जो पुरुष ब्रह्म की नगरी के ज्ञाता हैं , जिसके कारण ही उसे पुरुष ही कहा गया है, पुरुष ऊपरी दिशा तिरछी दिशा तथा सभी दिशाओं में उत्पन्न होकर अपने प्रभाव का परिचय देते हैं। ऋषियों का यह नियंत्रण और सृजन शील चेतन तत्त्व सभी प्रधानों – सभी दिशाओं में दिखाई देने लगता है।
“पुरं यो ब्रह्मणो वेद यस्याः पुरुष उच्यते ॥
यो वै तां ब्रह्मणो वेदामृतेनावृतां पुरम्।
तस्मै ब्रह्म च ब्राह्माश्च चक्षुः प्राणं प्रजां ददुः ॥”
(अथर्ववेद दसवां कांड, दूसरा सूक्त मंत्र संख्या 29)
जो कोई ब्रह्म के अर्थात परात्पर परमेश्वर, परमात्मा, जगदादि कारण, अचिंत्य वैभव श्री सीतानाथ रामजी की पुरी को जानता है उसे भगवान और भगवान जी के पार्षद -सब लोग चक्षु, प्राण और प्रजा देते हैं। इस पुरी के स्वामी को पुरुष कहते हैं। अर्थात जिसका प्रतिदिन नाम स्मरण किया जाता है,उस पुरुष की पुरी को जानने के लिए श्रुति कह रही है। जो कोई अनन्त शक्ति सम्पन्न सर्व व्यापक, सर्व नियंता, सर्वशेषी, सर्वाधार श्री रामजी की अमृत अर्थात मोक्षानंद से परिपूर्ण जो निश्चय के साथ उस अयोध्या पुरी को जानता है। उसके लिए साक्षात ब्रह्मऔर ब्रह्म के सम्बन्धी अर्थात भगवान के – “हनुमान, सुग्रीव, अंगद, मयंद, सुषेण, द्विविद, दरीमुख, कुमुद, नील, नल, गवाक्ष, पनस, गन्ध मादन, विभीषण, जामवान और दधिमुख” -ये प्रधान षोडश पार्षद अथवा नित्य और मुक्त सर्वजीव मिलकर उत्तम दर्शन -शक्ति, उत्तम प्राण शक्ति अर्थात आयुष्य और बल तथा सन्तान आदि देते हैं।
न वै तं चक्षु॑र्जहाति न प्राणो जरस॑: पुरा ।
पुरं यो ब्रह्म॑णो वेद यस्या: पुरु॑ष उच्यते॑ ॥
(अथर्ववेद दसवां कांड, दूसरा सूक्त मंत्र संख्या 30)
“जिस पुरी का स्वामी परम पुरुष,कहा जाता रहा, अर्थात जिसका निरूपण सर्वत्र वेद शास्त्रों में किया जाता है और वहां भी 28वे मंत्र के पूर्व मंत्रों में जिस पुरुष का निरूपण किया गया है, परब्रह्म श्री राम की इस पुरी अयोध्या को जो कोई जानता है, उस प्राणी को दर्शन शक्ति -अर्थात बाह्य और आभ्यंतर नेत्र तथा शारीरिक और आत्मिक बल मृत्यु से पूर्व निश्चय ही नहीं छोड़ते।”
आठ चक्र और नौ द्वारों वाली अयोध्या देवों की पुरी है, ब्रह्म की उस पूरी के नाम और रूप को स्पष्ट रूप से यह मंत्र बताता है —
अष्टाच॑क्रा नव॑द्वारा देवानां पूर॑योध्या।
तस्यां॑ हिरण्यय: कोश॑: स्वर्गो ज्योतिषावृ॑त:॥
(अथर्ववेद दसवां कांड , दूसरा सूक्त मंत्र संख्या 31)
अयोध्या आठ आवरण पहियों वाला है, इसके प्रधान नौ दरवाजे हैं। जो दिव्यगुण विशिष्ट, भक्ति प्रपत्ति यम नियम आदि मान, परम भागवत चेतना से सेवनीय है। उस अयोध्या पुरी में बहुत ऊंचा अथवा बहुत सुन्दर जो प्रकाश पुंज से ढका हुआ सुवर्णमय मण्डप है। इस मंत्र में अयोध्या का स्वरूप वर्णन है। आठ चक्र और नौ द्वारों वाली यह अयोध्या देवों की पुरी है, उसमें प्रकाश वाला कोष है, जो आनन्द और प्रकाश से युक्त है। मनुष्य का शरीर ही देवों की अयोध्या पुरी है। इसमें आठ चक्र हैं।
प्रथम चक्र
अयोध्या पुरी के चारो ओर कनकोज्जवल दिव्य प्रकाशात्मक आवरण है, जो भीतर से निकलने पर और बाहर से प्रवेश करने पर प्रथम आवरण या प्रथम चक्र है।
ब्रह्मज्योतिरयोध्यायाः प्रथमावर्णे शुभम्।
यत्र गच्छनती कैवल्याः सोहमस्मीति वदिनः।।
(वशिष्ठ संहिता 26 /1 साकेत सुषमा में उद्धृत)
अयोध्या के सर्व प्रथम घेरे में शुभ्र ब्रह्ममयी ज्योति प्रकाशित है। सोहम सोहम या अहम ब्रहमास्मी कहने वाले कैवल्य कमी पुरुष मरने पर इसी ज्योति में प्रवेश करते हैं।
उस आवरण में सर्वत्र दिव्य भव्य प्रकाशमात्र रहता है।
द्वितीय चक्र
बाहर से प्रवेश करने पर द्वितीय किंतु भीतर से निकलने पर
सप्तम आवरण या सप्तम चक्र है, जिसमे प्रवाहमाना सरयू जी हैं —
अयोध्या नगरी नित्या सच्चीनंद रूपिणी।
यस्यानशंशेन वैकुंठो गोलोकादि: प्रतिष्ठितः।।
यत्र श्री सरयू नित्या प्रेम वारि प्रवाहिणी।
यस्यानशंशेन संभूता विरजा दिसरिद्वर:।।
(साकेत सुषमा लेखक पण्डित सरयू प्रसाद पृष्ठ 7)
अयोध्या नगरी नित्य है। वह सच्चीनंद स्वरूपा है। वैकुंठ और गोलोक आ भगवद्धाम अयोध्या के अंश के अंश से निर्मित हैं। इसी नगरी के बाहर सरयू नदी है। जिसमे श्री राम जी के प्रमश्रुओं का जल ही प्रवाहित हो रहा है। विरजा आदि नदियां इसी सरयू के किसी अंश से उद्भूत हैं। इसमें अयोध्या के 12 नाम बतलाए गए हैं। साकेत के पुरद्वारे सरयू केलिकारिणी (बृहद ब्रह्म संहिता पाद 3, अध्याय 1) उस अयोध्या के द्वार पर सरयू नदी कीड़ा करती रहती है।
तृतीय चक्र
बाहर से प्रवेश करने पर तीसरा किंतु भीतर से निकलने पर छठा आवरण या चक्र है, जिसमे महा शिव, महा ब्रह्मा, महेंद्र, वरुण, कुबेर, धर्मराज, दिकपाल, महासूर्य, महाचन्ड यक्ष गंधर्व किन्नर गुह्यक विद्याधर सिद्ध चारण अष्टादश सिद्धियां और नव निधियां दिव्य स्वरूप से निवास करती हैं।
चतुर्थ चक्र
बाहर से चौथा और भीतर से को पांचवा आवरण है उसमें दिव्य विग्रहधारी वेद, उपवेद पुराण उपपुराण ज्योतिष रहस्य, तन्त्र,नाटक,काव्य, कोश,ज्ञान,कर्मयोग ,वैराग्य,यम, नियम काल,कर्म और गुण आदि निवास करते हैं।
पंचम चक्र
बाहर से पांचवा और भीतर से चौथा आवरण है उसमें
भगवान का मानसिक ध्यान करने वाले योगी और ध्यानी जन निवास करते हैं। साकेत के इस घेरे में विद्वान लोग उस सच्चिनमय ज्योति रूप ब्रह्म का निवास बतलाते हैं जो निष्क्रिय, निर्विकल्प निर्विशेष, निराकार, ज्ञानाकार, निरंजन वाणी का अविषय, प्रकृतिजन्य (सत्व रज आदि) गुणों से रहित, सनातन, अन्त रहित,सर्व साक्षी, सम्पूर्ण इंद्रियों एवम उनके विषयों की पकड़ में ना आने वाला,अपितु उन सबको प्रकाश देने वाला, संन्यासियों, योगियों तथा ज्ञानियों का लय स्थान है।
इस आवरण में महा विष्णु लोक, रमा वैकुंठ, अष्ट भुज, भूमापुरुष का लोक, महा ब्रह्म लोक और महा शम्भु लोक है। गर्भोदकशायी और क्षीराब्धिशायी,भगवान विष्णु -ये सभी अयोध्या के चतुर्थ चक्र में रहकर उसी नगरी का सेवन करते हैं।
षष्ठम चक्र
जो बाहर से छठा और भीतर से तीसरा आवरण है उसमें मिथिला पुरी, चित्रकूट, वृन्दावन, महा वैकुंठ, अथवा भूत वैकुंठ आदि विराजमान है। सत्या के उत्तर भाग में भगवान विष्णु का महा वैकुंठ नामक सनातन परम धाम है, जिसका वेदों ने बखान किया है।
सप्तम चक्र
जो बाहर से जाने पर सातवां और भीतर से निकलने पर दूसरा आवरण है उसमें दिव्य द्वादशोपवन एवम चार कीड़ा पर्वत हैं। साकेत के अंतर्गत शोभायुक्त श्री श्रृंगार वन, अदभुत विहार वन, दिव्य परिजात वन, उत्तम अशोक वन, तमाल वन, रसाल (आम्र) वन, चम्पक वन, चन्दन वन, रमणीय प्रमोद वन,श्री नाग केशर वन, अनन्त वन, रम्य कदम्ब वन -ये बारह उपवन हैं। (रुद्र्यामल अयोध्या भाग 30/48 – 50 )
अष्टम चक्र बाहर से जाने पर आठवां और भीतर से निकलने पर पहला आवरण है उसमें नित्यमुक्त भगवद पार्षद रहते हैं और भगवान के अनंतानन्त अवतार भी इसी में रहते हैं। साकेत के दक्षिण द्वार पर श्री राम के प्रति वात्सल्य भाव रखने वाले श्री हनुमान जी( द्वारपाल के रूप में) विराज मान हैं। उसी द्वार देश में संतानिक नाम का वन है, जो श्री हरि (श्रीराम) को प्रिय है। (अयोध्या दर्शन गीता प्रेस गोरखपुर के पृष्ठ 60 – 64 के आधार पर)
इस प्रकार ये आठ चक्र, अर्थात् नस नाड़ियों के विशेष गुच्छे इस शरीर में मज्जातन्तु के केन्द्र रूप है, इन चक्रों में अनंत शक्तियाँ भरी हैं। इस अद्भुत मानव शरीर के अनेक नाम शास्त्रों में वर्णन किये गये हैं, इसे ब्रह्मपुरी ब्रह्मलोक और अयोध्या भी कहते हैं।
शरीर के नवद्वार की तरह अयोध्या के भी नवद्वार –ये नौ द्वार हैं, दो आँख, दो कान, दो नाभि का छिद्र, एक मुख इस प्रकार सिर में सात द्वार हुये आठवाँ गुद्दा द्वारा और नौवाँ मूत्र द्वार है। इन प्रसिद्ध नौ द्वारों वाली होने से इस नगरी का द्वारावती द्वार आदि भी नाम है। ये देवताओं या दिव्य गुण युक्त, आत्माओं के ठहरने का स्थान है। इससे रहने वाले समस्त जड़ और चेतन देवता परस्पर एक दूसरे की भलाई के लिये अपने-अपने स्थान पर हर समय सतर्क व जागरुक हैं। यहां अग्निदेव, नेत्र और जठराग्नि के रूप में पवनदेव श्वाँस-प्रश्वाँस व दस प्राणों के रूप में, वरुण देव जिह्वा और रक्त आदि के रूप में रहते हैं। इसी प्रकार अन्य देव भी शरीर के भिन्न-2 स्थानों में निवास करते हैं।
परम आत्म तत्व, भौतिक मानव शरीर और आयुर्वेद में एक जैसी रचना व्यवस्था है। आयुर्वेद के अनुसार शरीर में आठ चक्र होते हैं। ये हमारे शरीर से संबंधित तो हैं लेकिन हम इन्हें अपनी इन्द्रियों द्वारा महसूस नहीं कर सकते हैं। इन सारे चक्रों से निकलने वाली उर्जा ही शरीर को जीवन शक्ति देती है। आयुर्वेद में योग, प्राणायाम और साधना की मदद से इन चक्रों को जागृत या सक्रिय करने के तरीकों के बारे में बताया गया है। जिस प्रकार से शरीर में व्यवस्था होती है उसी प्रकार की व्यवस्था अयोध्या पुरी में भी की गयी। मानव शरीर (अष्टचक्राः) आठ चक्र और नौ द्वारों से युक्त देवों की अयोध्या कभी पराजित न होने वाली नगरी है । इसी पुरी में ज्योति से ढका हुआ, परिपूर्ण हिरण्यमय, स्वर्णमय कोश है यह स्वर्ग है। आत्मिक आनन्द का भण्डार परमात्मा इसी में निहित है। (विभिन्न सांप्रदायिक ग्रन्थों में आवरनस्थ निवासियों के स्थानों में यत्र तत्र फेर भी है,परंतु तत्त निवासियों के नामों में हेर फेर नहीं है।)
तस्मि॑न्हिरण्यये कोशे त्र्यद्गरे त्रिप्र॑तिष्ठिते।
तस्मिन्यद्यक्षमा॑त्मन्वत्तद्वै ब्र॑ह्मविदो॑ विदु:॥
(अथर्ववेद दसवां कांड , दूसरा सूक्त मंत्र संख्या 32)
उस विशाल सुवर्ण मय मण्डप में आत्मा के समान जो पूजनीय देव विराजमान है, उसी को ब्रह्म स्वरूप ज्ञानवान जन जानते हैं। अथवा विद्वान जन उसी यक्ष को -उसी परमोपास्य देव को परात्पर सनातन महापुरुष जानते हैं। जिस कोश में वह यक्ष विराजमान है,उसमे तीन अरे लगे हुए हैं। अर्थात सत चित आनन्द तीन अरों पर वह मण्डप बना हुआ है। तथा चित अचित् एवम ईश्वर तीनों में प्रतिष्ठित- आदृत है।
इस मंत्र में स्पष्ट ही कहा गया है कि अयोध्या के मध्य में जो सुवर्ण मय मणि मण्डप है, उसमे विराजमान देव को ही विद्वान लोग ब्रह्म कहते हैं। अयोध्या के मणि मण्डप में भगवान श्री राम के अतिरिक्त अन्य कोई भी विराजमान नहीं है। अतः श्री राम जी ही परम ब्रह्म है। इसी अर्थ को पद्म पुराण उत्तर खंड अध्याय 228 में भी विस्तार से वर्णित किया गया है।
भक्त लोग मर कर भगवान विष्णु के उस परम धाम वैकुंठ में जाते हैं जो नाना प्रकार के निवासियों से परिपूर्ण है। परम आनन्द दायक ब्रह्म वही है।वही भगवान श्री हरि का निवास्थान है।वह परकोटों, सात मंजिल महलों तथा रत्न जड़ित प्रसादों से घिरा हुआ है। उसी वैकुंठ धाम के मध्य में जो दिव्य नगरी है, वही अयोध्या नाम से विख्यात है। वह नाना प्रकार के मणियों और सोने के चित्रों से संपन्न है और परकोटो और द्वारों से घिरी हुई है।
उस अयोध्या नगरी के मध्य में एक ऊंचा एवम दिव्य मंडप है, जो वहां के राजा का निवास स्थान है। उसके मध्य में एक आकर्षक और चमकीला सिंहासन है, जो अपने पायों के रूप में स्थित धर्मादि सनातन देवताओं से घिरा हुआ है।अथवा धर्म ज्ञान महैश्वर्य एवम वैराग्य -इन पायों के रूप में स्थित है। अथवा पायों के रूप में क्रमश: ऋग्वेद, सामवेद यजुर्वेद और अथर्ववेद इन चारों वेदों के ही द्वारा वह सिंहासन घिरा हुआ है। शक्ति आधार शक्ति चिच्छक्ति और सदा शिवा -ये धर्मार्थ चार देवताओं की शक्तियां कही गई हैं।
उक्त सिंहासन के मध्य में एक अष्ट दल कमल है जिससे प्रातः कालीन सूर्य की आभा निकलती है। उसके मध्य में कर्णिका भाग को सावित्री कहते हैं जिसपर समस्त देवताओं के स्वामी परातपर पुरुष विराजमान रहते हैं। जो नील कमल की पंखुड़ी जैसे वर्ण वाले हैं। उनमें करोड़ों सूर्यों का प्रकाश है। वे नित्य युवा कुमार भवापन्न भी रहते हैं। वे स्नेह युक्त सुकुमार प्रफुल्ल कमलवत आभा वाले और कोमल चरण सरोरुहों से सम्पन्न हैं।
अष्टदल कमल विभिन्न रत्नों से घिरा हुआ है। उस पर विराजमान रघु श्रेष्ठ,वीर शिरोमणि, धनुर्वेद में निष्णात, मंगलायतन कमल लोचन श्री राम का ध्यान करना चाहिए। साकेत सुषमा में इसे और स्पष्ट करते हुए कहा गया है कि -क्षीरसागर का बैकुंठ, रमा बैकुंठ, महा बैकुंठ, कारण बैकुंठ और वीरजापार आदि वैकुंठ -इन पांचों बैकुंठों का तथा अन्य अनन्त वैकुंठों का मूलाधार -“अयोध्या-साकेत” ही है। वह साकेत पुरी मूल प्रकृति से परे अखंड और अपरिवर्तनीय ब्रह्ममय है, विरजा के दूसरे तीर पर दिव्य मंडप वाली अयोध्या साकेत स्थित है। इसी अयोध्या में श्री सीताराम जी की नित्य विहार भूमि है।
प्रभ्राज॑मानां हरि॑णीं यश॑सा संपरी॑वृताम्।
पुरं॑ हिरण्ययीं ब्रह्मा वि॑वेशाप॑राजिताम्॥
(अथर्ववेद दसवां कांड, दूसरा सूक्त मंत्र संख्या 33)
सर्वांतर्यामी श्री राम जी अत्यन्त प्रकाशमयी मन को हरण करने वाली अथवा सर्व पापों का नाश करने वाली तथा अनन्त कीर्ति से युक्त और सर्व पुरियो में अजेय उस अयोध्या पुरी में प्रविष्ट हैं अर्थात विराजमान हैं।
इस सूक्त और ततसंपूरित अन्य साक्ष्यों में मानव शरीर, उसकी विशेषताओं, गुणों, ब्रह्मांड की प्रकृति और उसके अस्तित्व के संबंध में विभिन्न दार्शनिक प्रश्न उठाए गए हैं। “मनुष्य की अद्भुत संरचना” में मानव कैसा है। संरचना या शरीर. और वह शरीर इतना शक्तिशाली है कि यह किसी भी और सभी बाहरी नकारात्मक प्रभावों, ताकतों का विरोध करने में सक्षम है जो हमारे स्वयं के साथ-साथ ब्रह्मांड की प्रकृति को समझने यानी मोक्ष प्राप्त करने और ब्रह्म के साथ एक होने में बाधा हैं।
प्रसिद्ध पुरातत्ववेत्ता प्रोफेसर बीबी लाल जैसे विद्वानों के अनुसार, इस संदर्भ में अयोध्या शब्द एक व्यक्ति वाचक संज्ञा (एक शहर का नाम) नहीं है, बल्कि एक विशेषण है, जिसका अर्थ है “अभेद्य” श्लोक मानव शरीर (पुर) को आठ चक्रों के रूप में वर्णित करता है और उसके द्वार के नौ छिद्र – (पृष्ठ 47)
ऐसा देखने में आएगा कि व्हिटनी ने अयोध्या शब्द को व्यक्ति वाचक संज्ञा के अर्थ में नहीं, यानी शहर के नाम के रूप में नहीं, बल्कि दो भागों वाले एक यौगिक शब्द के रूप में लिया है। अ-योध्या। पहले भाग का नकारात्मक अर्थ है, और दूसरा उस धातु युद्ध से लिया गया है, जिसका अर्थ है पूरे शब्द का ‘अभेद्य’ होना। यह केवल सही व्याख्या है, यह उस संदर्भ से बिल्कुल स्पष्ट है जिसमें यह शब्द आता है।
इस प्रकार उपरोक्त उद्धृत अथर्वेद दसवां कांड, दूसरा सूक्त मंत्र संख्या 31 का तात्पर्य यह है कि वह शरीर (पुर) जिसमें पुरुष रहता है वह अभेद्य (अ+योध्या) है, जिसमें आठ चक्र (अष्ट-चक्र) और नौ द्वार (नव-द्वार) हैं।
मंत्र क्रमांक में वर्णित अयोध्यापुरी (नगर) 31 वास्तव में मानव संरचना है जिसे देवताओं का शहर या स्वर्ग कहा जाता है जिसे “ब्रह्मपुरी, ब्रह्म नगरी, अमरावती, देवनागरी और अयोध्या आदि” नामों से भी जाना जाता है। ये नाम वैदिक साहित्य में हमारी संरचना के लिए रूपक रूप से उपयोग किए जाते हैं। लेकिन पौराणिक ग्रंथों में, ये देवताओं के अलग-अलग निवास हैं।
मंत्रों का उद्देश्य हमें यह संदेश देना है कि हमारा शरीर हम स्वयं हैं और हमारी संरचना छह बाधाओं जैसे किसी भी विकार के लिए अभेद्य है। हमारा शरीर एक महान गढ़ है और यदि हम स्वयं की विशेषताओं और शक्तियों का उपयोग करते हैं तो बाहरी विनाशकारी ताकतें इसे पकड़ने या तोड़ने में असमर्थ हैं। स्वर्ग जाने के लिए हम ज्यादा बाहर नहीं जाना चाहते। स्वर्ग स्वयं हमारे अंदर है क्योंकि परमात्मा उसमें निवास करता है। हमारा शरीर उसका निवास स्थान है, और इसीलिए यह पुरी (मानव शरीर) अभेद्य है।’ हमें बस इस तथ्य को समझने की जरूरत है।
प्रसिद्ध लेखक पंडित श्री राम शर्मा आचार्य द्वारा इस मंत्र की हिंदी व्याख्या यहां दी गई है। उनके सूक्त के अनुवाद से यह स्पष्ट है कि यह अयोध्या मानव शरीर है जिसमें ब्रह्मा निवास करते हैं और इसका उल्लंघन नहीं किया जा सकता है।
चैतन्य देवों में आत्मा और परमात्मा का यही निवास स्थान है। ये समस्त देव इस शरीर में सद्भाव और सहयोग से प्रीति पूर्वक रहते हैं। इनमें परस्पर प्रेम की गंगा बहती है, किसी को किसी अंग से द्वेष नहीं, सबके काम बंटे हुये हैं। अपने-अपने कार्यों को सम्पादन करने में सभी सचेष्ट एवं दक्ष हैं। भुजायें सब शरीर की रक्षा के लिये सूचना मिलते ही दौड़ती है। मानव शरीर परस्पर युद्धों से रहित अयोध्या जैसा ही है। इस शरीर में 72000 नाड़ियाँ हैं, इनमें इग्ला, पिग्ला और सुषुम्ना तीन नाड़ियाँ विशेष हैं, ये तीन नाड़ियाँ मूलाधार चक्र से प्रारम्भ होकर समस्त शरीर में, अपना जाल सा बनाती हैं। जो पुरुष अपनी केन्द्र शक्तियों को जगाना चाहते हैं । जिस पुरुष ने जिस शक्ति को जगाया, उसने उसी से मनोवाँछित आनन्द प्राप्त किया। प्राचीन ऋषि, मुनि और देवताओं ने अधिकाँशतया अपनी अध्यात्म शक्तियों को जगाया था, इसीलिये तीनों काल, अर्थात् भूत, भविष्य व वर्तमान की बातों को जान लेना, अपनी इच्छानुसार शरीर बदल लेना, अपनी आयु को इच्छानुसार बढ़ा लेना तथा मोक्षादि सुख प्राप्त कर लेना उन्हें सब सुलभ होता था।
लखनऊ से प्रकाशित संस्कृति पर्व पत्रिका “चक्रस्थ अयोध्या” विषय को प्रमुखता देते हुए नवम्बर 2023 का अपना अप्रतिम विशेषांक प्रकाशित कर रहा है। इसके दिव्य प्रधान संपादक श्री हनुमान जी महाराज हैं। नियमित संपादक डॉ. संजय तिवारी, संस्थापक, “भारत संस्कृति न्यास” हैं। भारत की आधुनिक संत परंपरा के देदीव्यमान नक्षत्र, अखिल भारतीय संत समिति के राष्ट्रीय महामंत्री पूज्य स्वामी जीतेंद्रानंद जी सरस्वती के अभिभावकत्व एवं निर्देशन में अब संस्कृति पर्व का “चक्रस्थ अयोध्या” अंक अपना स्वरूप ग्रहण कर रहा है।
इस अतिविशिष्ट अंक में वह सब कुछ प्राप्त होगा जो उत्सुकता के साथ कोई भी श्री अयोध्याजी और श्री रामजन्म भूमि के बारे में जानने की इच्छा रखते हैं। इस अंक के संपादकीय संरक्षक पद्मश्री आचार्य विश्वनाथ प्रसाद तिवारी जी हैं। “चक्रस्थ अयोध्या” संस्कृति के संरक्षण और संवर्धन में निरंतर प्रयत्नशील मासिक पत्रिका संस्कृति पर्व ने श्री अयोध्या जी में 22 जनवरी 2024 को भगवान श्रीराम की जन्मभूमि पर निर्मित भव्य श्रीराम मंदिर की प्राणप्रतिष्ठा एवं लोकार्पण के अवसर पर एक अति विशिष्ट अंक प्रकाशित करने का निर्णय लिया है। “चक्रस्थ अयोध्या”शीर्षक के इस अंक में अतिविशिष्ट सामग्री प्रस्तुत की जा रही है। मेरे जैसे अन्य अनेक विद्वान इस अंक में सहयोग कर रहे हैं। यह अंक निश्चय ही ऐतिहासिक और संग्रहणीय बन रहा है। मेरी अंतः उर से शुभकामनाएं इसके साथ है। इस अंक में जिन विषयों को समायोजित करने का लक्ष्य है उनमें कुछ प्रमुख बिंदु इस प्रकार हैं_
1. श्री अयोध्या जी का उद्भव और महात्म्य
2. श्रीराम जन्मभूमि का इतिहास
3. श्री राम जन्मभूमि आंदोलन का 500 वर्षों का संघर्ष
4. श्रीराम जन्मभूमि आंदोलन के निमित्त न्यायिक प्रक्रिया
5. श्रीराम जन्म भूमि के ऐतिहासिक प्रमाण
6. श्रीराम जन्मभूमि की प्राप्ति के लिए समाज का बलिदान
7. श्री राम जन्मभूमि : ऐतिहासिक तिथि 6 दिसंबर 1992
8. श्रीराम रथ यात्रा
9. शीर्ष न्यायालय का निर्णय
10. मंदिर की आधारशिला , 5 अगस्त का प्रधानमंत्री का ऐतिहासिक उद्बोधन
11. नव्य अयोध्या
12. अन्य अनेक आलेख और रिपोर्ट आदि।
(लेखक भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण, आगरा मंडल, आगरा में सहायक पुस्तकालय एवं सूचनाधिकारी पद से सेवामुक्त हुए हैं। वर्तमान समय में उत्तर प्रदेश के बस्ती नगर में निवास करते हुए समसामयिक विषयों,साहित्य, इतिहास, पुरातत्व, संस्कृति और अध्यात्म पर अपना विचार व्यक्त करता रहते हैं।)