भारत के इतिहास में पहली मसाला फिल्म बनाने का श्रेय जाता है बॉम्बे टॉकीज को, जिसने फिल्म ‘किस्मत’ बनाई। इस फिल्म ने उस दौर सफलता का वो चेप्टर लिख दिया जिसे आज भी कई निर्देशक लिखने की कोशिशों में लगे हैं। 1943 में, आजादी के भी 4 साल पहले एक ऐसी फिल्म रिलीज हुई जो 187 हफ्ते यानि करीब साढ़े तीन साल तक कलकत्ता के रॉक्सी थिएटर में चलती रही।
आज के दौर में कमर्शियल सिनेमा का मतलब ही मसाला फिल्में हो गया है। हर कोई ‘जोड़-तोड़’ कर फिल्में बनाने की प्रक्रिया को ‘मसाला फिल्म’ का नाम दे देता है। लेकिन क्या आप जानते हैं भारत में पहली बार ‘मसाला फिल्म’ नाम की चीज किसने बनाई और उस फिल्म का क्या हश्र हुआ था? भारत के इतिहास में पहली मसाला फिल्म बनाने का श्रेय जाता है बॉम्बे टॉकीज को, जिसने ‘किस्मत’ बनाई। इस फिल्म ने उस दौर हमें सफलता का वो चेप्टर लिख दिया कि आज भी कई निर्देशक उसे लिखने की कोशिशों में लगे हैं। फिल्म के इतिहासकार आपको बताएंगे कि 1943 में, आज़ादी के भी 4 साल पहले एक ऐसी फिल्म रिलीज हुई जो 187 हफ्ते यानि करीब साढ़े तीन साल तक कलकत्ता के रॉक्सी थिएटर में चलती रही। यही नहीं कुछ सालों बाद इस फिल्म को री-रिलीज किया गया और तब भी इस फिल्म ने रजत जयंती (सिल्वर जुबली) यानि 25 हफ्तों तक धुआंधार कमाई की। इस फिल्म की खासियत सिर्फ इसकी कमाई ही नहीं थी। बल्कि कॉन्टेंट के नजरिये से देखा जाए तो ये भारत की पहली एंटी-हीरो वाली फिल्म थी।
‘किस्मत’ की समीक्षा में उड़ाई गई थीं धज्जियां
‘किस्मत’ में पहली बार अशोक कुमार ने एक नेगेटिव किरदार निभाया। इस से पहले के हीरो हमेशा अच्छे हुआ करते थे। कोई ऐब नहीं होता था। चोरी, धोखाधड़ी, टोपी पहनाने के कारनामों वाला पहला हीरो बने अशोक कुमार। इस फिल्म की सफलता कुछ ऐसी हुई की देव आनंद, शम्मी कपूर, राजकुमार, सुनील दत्त और अब तो लगभग हर फिल्म में हीरो, नेगेटिव शेड वाले ही रोल करता नजर आता है। अमिताभ बच्चन ने किस्मत के फॉर्मूले को सीरियसली लिया और वो चोर के बजाये सीधे माफिया ही बनने में दिलचस्पी रखते नजर आये। फिल्म पत्रकारिता में बाबूराव पटेल की समीक्षा से सब डरते थे। उनकी मैगज़ीन फिल्म इंडिया में उन्होंने किस्मत फिल्म की धज्जियां बिखेर दी। नौजवानों को गलत राह पर ले जाने वाला बताया। अशोक कुमार की लोकप्रियता को देख कर कौन युवा अपराधी या जेबकतरा नहीं बनाना चाहेगा? ऐसा भारी भरकम स्टेटमेंट भी दिया। गौरतलब है कि बाबूराव पटेल अपनी समीक्षाएं लिखने के लिए “जूड़ास” तखल्लुस का इस्तेमाल किया करते थे। जी हाँ, वही जूड़ास जिसने कुछ चांदी के सिक्कों के लिए जीसस क्राइस्ट को बेच दिया था। मजे की बात ये है कि सुप्रसिद्ध नाट्यकर्मी हबीब तनवीर साहब तब फिल्म इंडिया के असिस्टेंट एडिटर थे और बाबूराव के साथ काम किया करते थे।
‘किस्मत’ ने पहली बार किसी नायक को डार्क शेड में दिखाया। लॉस्ट एंड फाउंड का फॉर्मूला भी पहली बार इस्तेमाल हुआ। फिल्म में हास्य भी था, रोनाधोना भी था, राष्ट्रभक्ति भी थी और मनोरंजन भी था, हैपी एंडिंग भी थी। यानी ऑल-इन-वन। ‘किस्मत’ यह भी बताती है कि नायक भले ही परिस्थितियों का शिकार हो कर बुरे रास्ते पर चल रहा हो लेकिन उसमें मुख्यधारा में लौटने की इच्छा रखता है। वह प्रेम भी कर सकता है। गा भी सकता है। बेशक ‘किस्मत’ का नायक हिंसक नहीं है। वह छोटा चोर है। इसी फिल्म में एक अविवाहित लड़की को पहली बार गर्भवती होते हुए दिखाया था।
इस तूफानी फिल्म को लिखा था सैयद वाजिद हुसैन रिज़वी उर्फ़ आगा जानी कश्मीरी ने जिन्होंने किस्मत के अलावा भी ढेरों सुपरहिट फिल्में लिखी। फिल्म के निर्देशक थे ज्ञान मुखर्जी जिन्होंने क्राइम और फिल्म्स को जोड़ने का काम शुरू किया था अपनी पहली फिल्म “गीता” से। इस फिल्म के बारे जानकारी उपलब्ध नहीं है। ज्ञान की दूसरी फिल्म “झूला” में भी क्राइम की कहानी थी। कमाल की बात है कि गुरुदत्त ने काफी समय तक ज्ञान मुखर्जी को असिस्ट किया था और गुरुदत्त की शुरूआती दौर की फिल्में ज्ञान मुखर्जी की तर्ज पर क्राइम और स्टाइल पर आधारित होती थीं। एक और प्रसिद्द निर्देशक शक्ति सामंत भी ज्ञान के असिस्टेंट थे। जो बात कम लोग जानते हैं वो है कि गुरुदत्त की फिल्म कागज़ के फूल, उन्होंने अपने गुरु ज्ञान मुख़र्जी के सम्मान में बनायीं थी और गुरुदत्त की ही फिल्म प्यासा उन्होंने गुरु को समर्पित की थी।
इस फिल्म में एक देशभक्ति गीत भी था- दूर हटो ऐ दुनिया वालों हिंदुस्तान हमारा है। सोचिये कि आज़ादी से पहले की फिल्म लेकिन सेंसर बोर्ड ने ध्यान न देकर गाने को पास कर दिया। गाने में ये बोल भी थे – तुम किसी के आगे न झुकना, जर्मन हो जा जापानी। फिल्म में ऐसा दिखाया गया था कि जर्मनी और जापान के लोगों को भारत के लोग संदेसा दे रहे हैं कि वो भारत से दूर रहें लेकिन ये गाना गाँधी जी के भारत छोडो आंदोलन की घोषणा के तुरंत बाद ही आ गया था।
थिएटर में गाना खत्म होने पर फिल्म रोक दी जाती। रील को रिवाइंड किया जाता और गाना फिर से दिखाया जाता। ऐसा एक बार नहीं, हर शो में कई कई बार होता था। गाने की लोकप्रियता ने फिल्म के लिए जादू का काम किया लेकिंन गीतकार कवि प्रदीप को इस गाने की वजह से अंडरग्राउंड होना पड़ा था क्योंकि जब ब्रिटिश सरकार को गाने का महत्त्व समझ आया और असली मतलब उन तक पहुंचा तो उन्होंने प्रदीप के नाम का वारंट निकाल दिया था। वैसे किस्मत का जलवा कुछ कदर था कि कहावत बन गयी थी – जिसने किस्मत नहीं देखी, उसकी किस्मत नहीं चलती।
साभार- https://www।facebook।com/profile।php?id=61551952226423 से