दहेज़ की वेदी पर,
स्वाहा हो गया बहुत कुछ ,,
कभी पिता की कमाई
कभी भाई के अरमान सारे,,,,
सोचती रहती मां बेटी के लिए
हर एक दिन जो बीतता
दे कर हर सुख सुविधा
शायद खरीद लूं खुशियां,,,,
भूल जाती है जाने क्यू वो
वो भी तो लाई थी दान
फ़िर कहा गई उसके हिस्से
की सारी खुशियां, सारे अरमान,,,,
बेटियां कोई बेकार सामान नही
बाप,भाई की कमर तोड़े
ऐसा कोई ब्याज का दाम नहीं
बंद कर दो समझना बोझ इसको
यह घर की शान है, कबाड़ नहीं,,,,,
जब वक्त और पैसा दोनो बराबर
बेटा और बेटी की परवरिश बराबर
फिर शादी में खर्चा भी हो बराबर
यह होगा तब ही समाज होगा बराबर ,,,,,
रेणु सिंह राधे, कोटा (राजस्थान)