कुतुबुद्दीन ऐबक, मोहम्मद गौरी का गुलाम था। कुतुबुद्दीन, मोहम्मद गौरी गौरी के बाद दिल्ली का सुल्तान बना। मोहम्मद गौरी ने इसको खरीदा था। गुलामों को सेनिको की सेवा के लिए खरीदा जाता था। कुतुबुद्दीन ऐबक ने गुलाम वंश कि स्थापना की। इसकी मृत्यु घोड़े से गिरकर नहीं हुई। बल्कि मेवाड़ के स्वामीभक्त घोड़े शुभ्रक के कारण हुई।
कुतुबुद्दीन ऐबक ने दिल्ली में विष्णु मन्दिर को तोड़ कर कुव्वत उल इस्लाम मस्जिद बनाई। अजमेर में संस्कृत विद्यालय को तोड़कर ढाई दिन का झोपड़ा नामक मस्जिद का निर्माण करवाया। उसने दिल्ली में कुतुबमीनार का निर्माण करने के लिए सताइस २७ मन्दिरों को तुड़वा दिया।
ऐसा शासक उदार और दानी कैसे हो सकता हैं जैसा कि इतिहास में लिखा गया है। क्योंकि सत्य को छुपाया गया है।
शुभ्रक घोड़ा और कुतुबुद्दीन ऐबक :
जिसने ग्यारह बारह वर्ष में घुड़सवारी शुरू की हो और घोड़े पर बैठकर कई लड़ाइयां लड़ी हो क्या घोड़े से गिरकर मर सकता हैं ?
कुतुबुद्दीन ऐबक ने राजपूताना में बहुत अत्याचार किए। और मेवाड़ के राजकुंवर कर्ण सिंह को बंदी बनाकर लाहौर ले गया। राजकुंवर शुभ्रक नामक एक स्वामीभक्त घोड़ा था। जो कुतुबुद्दीन को पसन्द आ गया और उसे भी साथ ले गया।
लाहौर में मेवाड़ के कुंवर को बंदी बनाया। लेकिन एक दिन कैद से छूटने के प्रयास में राजकुंवर को मौत की सजा सुनाई गई। और तय हुआ कि राजकुंवर कर्ण सिंह जी का सिर काट कर चौगान खेला जाएगा। चौगान एक प्रकार का खेल होता है, जिसे आजकल पोलो की तरह खेलते हैं।
एक कैदी की तरह समय पर महाराज कुंवर कर्ण सिंह को लाहौर के जन्नत बाग लाया गया। कुतुबद्दीन ऐबक स्वयं शुभ्रक घोड़े पर सवार होकर अपनी टीम के साथ जन्नत बाग में आया।
मेवाड़ के स्वामीभक्त शुभ्रक ने जैसे ही कैदी की अवस्था में राजकुंवर को देखा तो उसकी आँखों से आँसू निकलते लगे । जैसे ही सिर काटने के लिए कर्ण सिंह जी को जंजीरों से खोला, तो शुभ्रक से देखा नहीं गया अपने स्वामी की ऐसी दशा को।
शुभ्रक ने पलक झपकते ही कुतुबुद्दीन ऐबक को पटक दिया। और उसके सीने पर तब तक प्रहार करता रहा जब तक उसके प्राण पंखेरू उड़ नहीं गए। तुर्क सैनिक सम्हले तब तक अपने स्वामी कर्ण सिंह के पास पहुंचा।
इस स्थिति का फायदा उठाकर कर्ण सिंह सैनिकों से छूटे और शुभ्रक पर सवार हो गए। शुभ्रक अपने पूरे वेग से मेवाड़ की और दौड़ने लगा। तीन दिन बाद मेवाड़ की राजधानी चित्तौरगढ़ की सीमा में प्रवेश कर गया।
शुभ्रक चितौड़गढ़ किले में पहुंचा, उसे संतोष था कि उसने अपने स्वामी को पहुंचा दिया। लेकिन जैसे ही राजकुंवर कर्ण सिंह जी शुभ्रक से उतरे और अपने प्रिय अश्व को पुचकारने के लिए हाथ बढ़ाया तो पाया कि वह तो प्रतिमा बना खड़ा था …….. वो निष्प्राण था। उसके सिर पर हाथ रखते ही निष्प्राण शरीर लुढ़क गया।
हमे भारत के इतिहास में यह तथ्य कहीं नहीं पढ़ाया गया क्योंकि वामपंथी और मुल्लापरस्त लेखक कुतुबद्दीन ऐबक की ऐसी दुर्गति वाली मौत को छुपाना चाहते थे। जब कि फारसी की कई प्राचीन पुस्तकों में लिखी बताई गई हैं।