ध्रुपद गायक बैजू बावरा का काल पंद्रहवीं शताब्दी का माना जाता है। तानसेन से अपने मुकाबले में बैजू ने राग मालकौंस गाया। इसके प्रभाव से पत्थर पिघल गया। पिघले हुए पत्थर में बैजू ने अपना तानपुरा फेंका। पत्थर ठंडा होने पर तानपुरा पत्थर में गड़ा रह गया। तानसेन पत्थर पिघलाकर तानपुरा निकाल नहीं सके। पंद्रहवीं शताब्दी तक पत्थर को राग शक्ति से पिघलाया जा सकता था।
आज ये कथा स्वामी सूर्यदेव जी की पोस्ट से एक क्लू मिलने के बाद लिखी जा रही। गुरुदेव लिखा कि प्राचीन काल में शिल्पकार राग मालकौंस गाते हुए ग्रेनाइट के पत्थरों को काटते थे। जब तक कोई विधि न हो ग्रेनाइट को कलात्मक ढंग से काट नहीं सकते। गुरुदेव ने बहुत अच्छे से अल्केमी को एक्सप्लेन किया। पत्थरों को किसी तरह मुलायम बनाकर फिर सूक्ष्म कारीगरी करने की थ्योरी नई नहीं है। इस पर कई वर्ष से शोध किया जा रहा है। कंबोडिया से भी एक मिथक निकल कर आया है।
कंबोडिया में एक विशेष पत्थर होता था। इसे म्यूजिकल स्टोन कहते थे। संगीत वाले पत्थर विश्व के अनेक भागों में पाए जाते हैं, जो एक विशेष राग उत्सर्जित करते हैं। संभव है कंबोडिया के वे जादुई पत्थर विशेष क्रिया के बाद राग मालकौंस की ध्वनि निकालने लगते होंगे। कंबोडिया मिथक कहता है कि इस विशेष पत्थर से बाकी बड़ी चट्टानों को पिघलाया/मुलायम किया जाता था।
ऋग्वेद में एक पौधे का उल्लेख है। पक्का नाम नहीं पता। American cliff swallow नामक अमेरिकी चिड़िया प्राचीन काल में पथरीली चोटियों में छेद कर घोंसला बना लेती थी। वह पर्टिकुलर स्थान पर इस पौधे की पत्तियों का रस प्रयोग करती थी। स्पष्ट है कि चोंच पत्थर को नहीं छेद सकती। प्राचीन पेरू निवासियों ने इस पक्षी की सहायता से उस पौधे का पता लगाया और उसका प्रयोग अपने अचंभित करने वाले निर्माणों में किया। कुछ कहते हैं वह पौधा विलुप्त हो गया और कुछ कहते हैं कि वह अब भी सर्वाइव कर रहा है।
कर्नाटक के होयसलेश्वर मंदिर में पत्थर को मुलायम बनाकर अविश्वसनीय शिल्प बनाने का जीवंत प्रमाण देखा जा सकता है। कहना मुश्किल है कि वे कौनसी विधि प्रयोग में ला रहे थे। अधिक विश्वास इस बात का है कि वे राग मालकौंस की शक्ति से ऐसा कर रहे थे। विश्व के अन्य भागों में भी ये कार्य हो रहा था।