प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने बुधवार (19 जून, 2024) को नालंदा विश्वविद्यालय का उद्घाटन किया। नालंदा में प्राचीन काल में भी विश्वविद्यालय रहा है, लेकिन इस्लामी आक्रांता बख्तियार खिलजी ने इसे तबाह कर दिया था। अब इस तबाही के 800 वर्षों के बाद भाजपा की सरकार ने यहाँ नव-निर्माण करवाया है। 1749 करोड़ रुपए की लागत से ज्ञान का नया परिसर स्थापित हुआ है। जहाँ प्राचीन विश्वविद्यालय का खँडहर है, राजगीर में उससे कुछ ही दूरी पर नया परिसर बना है।
नालंदा में कई स्तूप, विहार और मंदिर हुआ करते थे। जहाँ तक नालंदा विश्वविद्यालय की बात है, यहाँ कई देशों के 10,000 छात्र पढ़ते थे और 2000 आचार्य विद्यादान में तल्लीन रहते थे। छात्रों के रहने, खाने-पीने और शिक्षा निःशुल्क होती थी। नए कैम्पस में 40 क्लासरूम हैं, जिनमें 1900 छात्र बैठ सकते हैं। 300 सीटों वाले 2 ऑडिटोरियम भी हैं और 550 छात्रों की क्षमता वाला एक हॉस्टल भी। 2000 की क्षमता वाला एक एम्पीथिएटर भी है। 12वीं सदी में ध्वस्त हुए प्राचीन विश्वविद्यालय को UN ने 2016 में धरोहर घोषित किया था।
नालंदा विश्वविद्यालय को लेकर इतिहासकारों ने किया ‘खेल’
क्या आपको पता है कि नालंदा विश्वविद्यालय के सहारे भी वामपंथी इतिहासकारों ने जम कर ‘खेला’ किया है। चूँकि नालंदा विश्वविद्यालय में बौद्ध आचार्य भी थे, इसीलिए वामपंथी इतिहासकारों ने इसे ‘बौद्ध बनाम हिन्दू’ का रंग दिया। बौद्ध और हिन्दू, दोनों ही सनातन धर्म के अंग हैं। बुद्ध ने कभी वेदों को नहीं नकारा, उन्होंने वही सन्देश दिया जो उपनिषदों का है। बौद्ध धर्म में भी रामायण-महाभारत की कथाएँ हैं, भले ही बदले हुए स्वरूप में। ऐसे में मार्क्सिस्ट इतिहासकारों ने खूब प्रोपेगंडा रचा।
इससे उनके दो हित पूरे होते हैं – पहला, इस्लामी आक्रांता को क्लीनचिट, और दूसरा, सनातन धर्म में विभाजन पैदा करना। इसी में से एक नाम आता है DN झा का। उन्होंने तो नालंदा विश्वविद्यालय की तबाही के लिए ‘धर्मान्ध हिन्दुओं’ को ही जिम्मेदार ठहरा दिया। हिन्दू राजा वहाँ दान देते थे, हिन्दू छात्र वहाँ पढ़ते थे, हिन्दू शिक्षक उन्हें पढ़ाते थे और वहाँ हिन्दू साहित्य थे – फिर भला हिन्दू क्यों अपने ही विश्वविद्यालय को जलाएँगे? डीएन झा ने तिब्बती साहित्य का सहारा लेकर अलूल-जलूल निष्कर्ष दिए।
डीएन झा ने तिब्बती साहित्य के हवाले से दावा किया कि कलचुरि वंश के कर्ण नामक राजा ने कई बौद्ध विहारों को तबाह किया। एक तरफ DN झा का कहना है कि अंग्रेजों के आने से पहले हिन्दू कोई धर्म था ही नहीं, दूसरी तरफ वो ‘धर्मान्ध हिन्दुओं’ को नालंदा विश्वविद्यालय में स्थित 90 लाख पुस्तकों वाले पुस्तकालय को जलाने का ठीकरा फोड़ते हैं। इतना विरोधाभास? इसके लिए उन्होंने जिस पैग सैं ज़न झंगनामक पुस्तक का हवाला दिया है, उसे तिब्बती लेखक सुंपा खान-. येस पाल जोर Sumpa Khan-Po Yece Pal Jor ने लिखा है।
यानी, डीएन झा ने हिन्दुओं को बदनाम करने के लिए नालंदा विश्वविद्यालय को जलाए जाने के 500 वर्ष बाद की पुस्तक का हवाला दिया। जबकि, 13वीं शताब्दी में लिखी गई फ़ारसी किताब तबकात-ए-नासिरी में स्पष्ट दर्ज है कि नालंदा को किसने जलाया। जिस तिब्बती किताब का DN झा ने हवाला दिया है, उसमें भी लिखा है कि 2 युवा भिक्षुओं ने 2 भिखारियों पर पानी छींट दिया, जिस कारण गुस्साए भिखारियों ने 9 मंजिले पुस्तकालय ‘रत्नोदधि’ को आग के हवाले कर दिया।
क्या ये विश्वास किया जा सकता है कि जहाँ हजारों लोग रह रहे थे, वहाँ दो भिखारियों ने तबाही मचा दी? 12000 लोगों की मौजूदगी वाले विशाल परिसर में 2 भिखारी इमारत दर इमारत घूमते रहे, आग लगाते रहे और उन्हें किसी ने रोकने की हिम्मत नहीं की? आज अगर कोई कहानीकार ये लिख दे कि मंगल ग्रह से उतरे एलियनों ने नालंदा विश्वविद्यालय को जलाया था, तो ये वामपंथी इतिहासकार बख्तियार खिलजी को क्लीन-चिट देने के लिए ये भी मान लेंगे, साथ ही कहने लगेंगे कि वो एलियन हिन्दू थे।
नालंदा विश्वविद्यालय का पुस्तकालय 3 इमारतों में फैला हुआ था, जिनमें से एक नौ मंजिला था। विश्वविद्यालय की मुख्य इमारत 1400 * 400 फ़ीट की थी, जो खुदाई में पता चला। ह्वेनसांग ने अपनी याददाश्त के हिसाब से 7 विहार और 8 हॉल होने की बात बताई है। अफगानिस्तान से जब इस्लामी आक्रांता भारत में घुसे, उत्तर-पश्चिमी हिस्से से इधर आए और रास्ते में जितने भी बुद्ध विहार या बुद्ध की प्रतिमाएँ आईं, उन्हें वो तोड़ते गए। आज भी उनकी यही सोच कायम है, उदाहरण के लिए बामियान के बुद्ध की प्रतिमा को देख लीजिए। सदियों साल पुरानी इस मूर्ति को मार्च 2001 में तालिबान ने उड़ा दिया।
आचार्यों का नरसंहार, किताब समझाने वाला भी कोई नहीं बचा: फ़ारसी इतिहास
आपको ये जान कर आश्चर्य होगा कि बख्तियार खिलजी मात्र 200 घुड़सवारों को लेकर नालंदा विश्वविद्यालय पहुँचा था। उस समय के इतिहासकार मिन्हाजुद्दीन ने लिखा है कि ऊँची दीवारों और बड़ी-बड़ी इमारतों के कारण नालंदा विश्वविद्यालय बख्तियार खिलजी को किसी किले की तरह लगा और उसने हमला बोल दिया। उसने लिखा है कि वहाँ रहने वालों में अधिकतर ऐसे ब्राह्मण थे जिन्होंने अपने बाल मुँडा रखे थे, उन सभी का सामूहिक नरसंहार कर दिया गया।
इसमें लिखा है कि वहाँ बड़ी संख्या में पुस्तकें मिलीं, लेकिन चूँकि सारे हिन्दू मारे जा चुके थे इसीलिए उन किताबों में क्या लिखा है ये समझाने वाला एक व्यक्ति भी नहीं था। अंत में अवलोकन के बाद इस्लामी आक्रांताओं को पता चला कि वो किला नहीं बल्कि एक यूनिवर्सिटी था। जीत के बाद बख्तियार खिलजी सुल्तान कुतुबुद्दीन ऐबक के पास पहुँचा और उसने इतना लूटा हुआ धन दिया कि उसे सुल्तान ने उपहारों से नवाजा। अन्य दरबारी उससे जलने लगे।
ये सब सन् 1197 के करीब हुआ। 2004 में ‘इंडियन हिस्ट्री कॉन्ग्रेस’ के अध्यक्ष रहेडीएन झा ने अपने उद्बोधन में ये बात कही थी कि तिब्बती स्रोतों के हिसाब से कर्ण ने बौद्ध विहारों को ध्वस्त किया, जलाया। उन्होंने जिस किताब का हवाला दिया उसमें शिक्षक की हत्या के बाद उसके खून के दूध में बदलने, शरीर से फूल निकल कर आकाश में उड़ने, भिखारी द्वारा 12 साल गड्ढे में बैठ कर साधना करने, अग्नि की राख को भिक्षुओं पर फेंकने से उनके जले और शास्त्रों से जल की धारा बह निकलने के कारण कई किताबों के बच जाने की बातें लिखी हैं।
बताइए, कल को ये वामपंथी इतिहासकार हैरी पॉटर की फिल्म देख कर भी इसे इतिहास बताने लगेंगे, अगर उसमें से हिन्दुओं को बदनाम करने के लिए कुछ मसाला उन्हें मिले। आपने कभी किताबों से पानी की धारा निकलते देखी है? राख फेंके जाने से इमारतों को जलते देखा है? खून को दूध में परिवर्तित होते देखा है? शरीर से फूल निकल कर आकाश में उड़ते देखा है? 12 साल गड्ढे में साधना करने से चमत्कारिक सिद्धि मिलते देखा है? ये सारे चमत्कार उन वामपंथी इतिहासकारों के लिए ‘इतिहास’ हैं, जो रामायण-महाभारत को फिक्शन बताते हैं जबकि इसके कई सबूत मौजूद हैं आज भी।
90 साल का शिक्षक, 70 छात्र… क्या से क्या हो गया नालंदा
कलचुरि वंश के कर्ण के संबंध में भी डीए झा ने बीएनएस यादव की किताब ‘द सोसाइटी एन्ड कल्चर इन नॉर्दर्न इंडिया इन द 12th सेंचुरी’ का उदाहरण दिया है। इसमें लिखा है कि तिब्बती साहित्य लिखते हैं कि कर्ण ने मगध के विहारों को तबाह किया। हालाँकि, अगली ही पंक्ति में वो लिखते हैं कि इस पर विश्वास करना कठिन है। इस पंक्ति को डीए झा ने छिपा लिया। झा ने दो भिखारियों को ‘हिन्दू’ कैसे कह दिया, इसका तो कोई स्रोत ही नहीं है। जबकि यादव ने इस प्रकरण पर शक जताया है।
इसी तरह भारत विरोधी विदेशी इतिहासकार ऑड्रे ट्रश्के लिखती हैं कि भारत में बौद्ध धर्म के पतन के पीछे इस्लाम नहीं है। इसके लिए वो कहती हैं कि नालंदा विश्वविद्यालय स्वाभाविक रूप से हिन्दू था, बौद्ध परंपरा भी उसका हिस्सा था। ये थी इवन डेज की बात। ऑड डेज पर यही इतिहासकार कहते हैं कि बौद्ध धर्म का हिन्दू धर्म से कोई वास्ता नहीं और नालंदा यूनिवर्सिटी हिन्दू था ही नहीं। इतना ही नहीं, बख्तियार खिलजी को क्लीन चिट देने के लिए वामपंथियों ने जगह का भी हेरफेर किया।
ऑड्रे ट्रश्के का मानना है कि नालंदा विश्वविद्यालय इस घटना के कई दशक बाद तक संचालित होता रहा। जबकि सच्चाई में भिक्षु धर्मस्वामिन ने लिखा है कि सारे आचार्य तुर्कों के खौफ से भाग गए थे, सारी इमारतें तबाह कर दी गई थीं और वहाँ कुछ बचा ही नहीं था। इसके बाद भी बचे-खुचे ढाँचों में मात्र 70 छात्र पढ़ रहे थे। खँडहरों में 90 वर्षीय राहुल श्रीभद्र उन छात्रों को पढ़ाते थे। बोधगया के राजा बुद्धसेन और ओदंतपुरी (अब बिहारशरीफ) के समृद्ध ब्राह्मण जयदेव वित्तीय रूप से विश्वविद्यालय की मदद करते रहे।