मुंबई। मोहन राकेश द्वारा संपादित कहानी संग्रह “पांच लंबी कहानियां” में फणीश्वर नाथ रेणु की “तीसरी क़सम अर्थात मारे गए गुलफ़ाम” कहानी पढ़कर गीतकार शैलेंद्र की आंखें छलछला उठीं। उन्होंने 23 अक्टूबर 1960 को रेणु जी को पत्र लिखकर ‘तीसरी क़सम’ कहानी पर फ़िल्म बनाने की अनुमति मांगी और रेणु जी से उन्हें तत्काल अनुमति मिल गई।
14 जनवरी 1961 को पूर्णिया (बिहार) में ‘तीसरी क़सम’का मुहूर्त हुआ। गीतकार शैलेंद्र, निर्देशक बासु भट्टाचार्य और सहायक निर्देशक बासु चटर्जी के साथ जाने-माने छायाकार सुब्रत मित्र इस अवसर पर मौजूद थे। प्रायः नायक और नायिका के चयन के बाद ही फ़िल्म का मुहूर्त होता है। दिलचस्प बात यह है कि उस वक़्त किसी को भी यह पता नहीं था कि हिरामन और हीराबाई के चरित्र को कौन अभिनीत करेगा। यह रोचक क़िस्सा बयान किया वड़ोदरा से पधारे लेखक इंद्रजीत सिंह ने जो शैलेंद्र के व्यक्तित्व और रचनाकर्म पर तीन पुस्तकों का संपादन कर चुके हैं।
रविवार 23 जून 2024 को चित्रनगरी संवाद मंच मुम्बई की ओर से मृणालताई गोरे हाल, केशव गोरे स्मारक ट्रस्ट गोरेगांव में आयोजित सिने सम्वाद में इंद्रजीत सिंह ने बताया कि हिरामन की भूमिका के लिए सर्वप्रथम शैलेंद्र ने अभिनेता महमूद को लेने का मन बनाया था। एक दिन उन्होंने अपने मित्र राज कपूर को ‘तीसरी क़सम’ की कहानी सुनाई और हिरामन की भूमिका के लिए महमूद को लेने की बात की। राज कपूर को यह बात रास नहीं आई। तब शैलेंद्र ने कहा- आप ही हिरामन बन जाइए। राज कपूर तैयार हो गए मगर गम्भीर होकर बोले- मेरा सारा पेमेंट एडवांस देना होगा। शैलेंद्र सन्नाटे में आ गए। राज कपूर ने मुस्कुराते हुए कहा- निकालो एक रुपया, मेरा पारिश्रमिक पूरा एडवांस। यानी राज कपूर ने ‘तीसरी क़सम’ में अभिनय के लिए अपने मित्र शैलेंद्र से सिर्फ एक रूपया लिया था।
‘तीसरी क़सम’ की पटकथा जाने माने पटकथाकार नवेंदु घोष ने लिखी है। रेणु की सहमति से पटकथा में कुछ नए पात्र जोड़े गए। ठाकुर विक्रम सिंह (अभिनेता इफ़्तिख़ार) मूल कहानी में नहीं है। लेकिन पटकथा में यह पात्र जोड़ा गया। इस पात्र के ज़रिए खलनायक का जो चरित्र निर्मित हुआ उसने फ़िल्म कथा को गतिशील बना दिया। इंद्रजीत जी ने फ़िल्म के गीत संगीत पर भी विस्तार से चर्चा की।
‘तीसरी क़सम’ को पूरा होने में लगभग साढे 5 साल लग गए। 14 जनवरी 1961 को फ़िल्म का मुहूर्त हुआ और आखिरकार जुलाई 1965 में फ़िल्म पूरी हुई। 15 सितंबर 1966 को बिना प्रचार के दिल्ली में फ़िल्म का प्रीमियर हुआ। फ़िल्म को दर्शक नहीं मिले और चौथे दिन ही उसे सिनेमा हॉल से उतार लिया गया। दो-ढाई लाख में बनने वाली फ़िल्म का बजट बीस-बाइस लाख पहुंच गया।
आगे जो कुछ हुआ आप सब जानते हैं। क़र्ज़ दाताओं ने शैलेंद्र के घर के चक्कर लगा लगा कर उनका जीना मुश्किल कर दिया। आख़िरकार शैलेंद्र को अपनी जान देकर इस सपने की क़ीमत चुकानी पड़ी। 14 दिसंबर 1966 को शैलेंद्र जी इस दुनिया से रुख़सत हो गए। सन् 1967 में राष्ट्रीय फ़िल्म पुरस्कारों की घोषणा हुई। ‘तीसरी क़सम’ को सर्वश्रेष्ठ फ़िल्म का स्वर्ण कमल पुरस्कार प्राप्त हुआ। ये सारा क़िस्सा इंद्रजीत सिंह ने बहुत आत्मीयता से और विस्तार से बयान किया। श्रोताओं ने उनसे कई सवाल भी पूछे। उन्होंने सबके संतोषजनक जवाब दिए।
कार्यक्रम की शुरुआत में ‘धरोहर’ के अंतर्गत सुप्रसिद्ध कवि वीरेंद्र डंगवाल की एक महत्वपूर्ण कविता का पाठ कवि हरि मृदुल ने किया। दूसरे सत्र में कथाकार सूरज प्रकाश के नेतृत्व में क़िस्सागोई की एक खुली चर्चा रखी गई जिसमें सुबोध मोरे, विवेक अग्रवाल, दीनदयाल मुरारका आदि कई मित्रों ने भागीदारी की।
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