गांधी, पटेल, और नेहरु इसी झूठ के बोझ के तले मर गये और देश पर भी इसे लाद गये, अब आप भी वही कर रहे हैं।
एक मूर्ख आत्महत्या पर उतारु हिंदू ही ये कर सकता है। पृथ्वीराज चौहान ने किया, मराठों ने आपस में लड़ के किया, गाँधी, पटेल और नेहरु ने किया, और अब हमारे प्यारे लोकप्रिय, लोकनायक, जननायक, विकास पुरुष और महान नेता और देश के सब से सफल प्रधान मंत्री श्रीमान नरेंद्र मोदी भी यही कर रहे हैं। सामने मुंह बाये खतरा खड़ा है और ये ‘सब का साथ, सब का विकास’ की बीन बजा रहे हैं। इस शुतुरमुर्गी मानसिकता ने ही राष्ट्र के शरीर में पैठे इस्लामवाद के कैंसर को जड़ से उखाड़ फेंकने की जगह उसे पनपने का अवसर दिया।
चुनाव जीतते हैं ‘तुष्टीकरण नहीं, सब को न्याय’ के नाम पर; सत्ता में आते ही नारे बदल जाते हैं।
इसी तुष्टिकरण में देश बँट गया।स्वतंत्रता से पहले गाँधी, पटेल, नेहरू, और काँग्रेस को जिन्ना से लेकर चर्चिल तक ने केवल हिंदुओं का नेता माना। हिंदू वोटोँ से प्रांतीय सरकारें बनाईं। इक्का दुक्का काँग्रेसी मुसलमान उन सीटों पर जीते जो जिहादियों के लिये आरक्षित थीं। उत्तर-पश्चिम सीमांत प्रदेश भी इस्लामवाद के नाम पर मुसलमान अन्ततोगत्वा जिन्ना के साथ चला गया। लेकिन काँग्रेसी और गाँधी तुष्टीकरण का खेल खेलते रहे। मौलाना आज़ाद को अध्यक्ष बना दिया काँग्रेस का अंग्रेजों को समझाने के लिये कि देखो हम कितने ‘सेक्यूलर’ हैं, जिहादियों का नेतृत्व भी करते हैं।
मुसलमानों ने ठेंगा दिखा के मौलाना आज़ाद को जाति बाहर कर दिया।
फिर भी गांधी, पटेल, और नेहरु, मौलाना और ना जाने कितनों को ढोते रहे अपनी पीठ पर। परिणाम शून्य। जिहादियों ने पाकिस्तान भी ले लिया और हमारे सिर पर भी बैठे रहे। भला हो श्यामा प्रसाद मुखर्जी और गोपीनाथ बारदोलई और सिखों का। वो नहीं अड़े और लड़े होते तो कैबिनेट मिशन की योजना के अनुसार पूरा बंगाल, और असम जिन्ना ले के जाता। उधर सिख और हिन्दू पंजाब में एक साथ नहीं खड़े होते तो पूरे पंजाब में मुस्लिम लीग का राज होना तय था। गाँधी, पटेल, नेहरु और काँग्रेस ने तो प्रस्ताव पारित कर के कैबिनेट मिशन की योजना को मान ही लिया था।
डरपोक और कापुरुष गांधी और काँग्रेसी न होते तो हिंदुस्तान नहीं बँटता।
खून-खराबा देख के अहिंसक गाँधी और उनके शिष्य घबरा जाते थे। जिन्ना और जिहादी ये जानते थे। हिन्दू और सिख लड़ने के लिये तैय्यार थे। जिहादी दंगे का प्रारंभ करते थे, लेकिन बाद में पिटते थे। डायरेक्ट एक्शन डे पर कलकत्ता में दंगा शुरु तो जिहादियों ने किया लेकिन अंत हिंदुओं और सिखों ने किया। नोआखाली का जवाब बिहार में दिया गया। पंजाब में भी सिख और हिंदु लड़े नहीं तो अमृतसर भी पाकिस्तान में जाने वाला था।
सरदार पटेल ने राजे रजवाड़ों को मिलाया इस से बड़ा झूठ तो कोई हो ही नहीं सकता। राजे रजवाड़े और नवाब अपनी हिंदू प्रजा के दबाव में भारत में मिले। एक राज्य था जम्मू और काश्मीर जहाँ मुसलमान अधिक थे, वहाँ समस्या खड़ी हो गई। जूनागढ़, हैदराबाद, मैसूर, कोचीन, भोपाल, जोधपुर में हिंदु बाहुल्य नहीं होता तो आज के कर्नाटक, आंध्र, तेलगांना, राजस्थान, मध्यप्रदेश, और केरल राज्य भारत के मानचित्र में नहीं होते।
केवल हिन्दू एकता से भारत बचा और उसका आज का ये स्वरुप खड़ा हुआ। उसके लिये गाँधी, पटेल, नेहरु, और काँग्रेस को श्रेय देना धोखाधड़ी और मक्कारी है। और जो मुसलमान ये दावा करते हैं कि इस भारत के निर्माण में उनका हाँथ था, वो महा बेईमान हैं। मुसलमानों ने जिहादियों का साथ दिया और इस देश को तोड़ा और अभी भी वही कर रहे हैं।
गाँधी, पटेल और नेहरु भी इस यथार्थ को जानते थे।
लेकिन शुतुरमुर्ग बने रहते थे। ऐसा नहीं कि उन्हें हिंसा से परहेज था। नेहरु ने मना नहीं किया था सरदार पटेल को जूनागढ़ और हैदराबाद में सेना भेजने के लिये।आपरेशन पोलो की सफलता की मिठाई नेहरु ने भी बाँटी और खाई थी। जूनागढ़ के मुद्दे पर गाँधी अनशन पर नहीं बैठे थे। हिंदु एकता और ध्रुवीकरण का खूब लाभ उठाया काँग्रेसियों ने लेकिन जब संविधान सभा में बहस होती थी तो तुष्टिकरण का खेल चालू हो जाता था।
सारे काँग्रेसी ज्ञानी ध्यानी अपने लंबे भाषणों में ५ हजार साल पुरानी भारतीय सभ्यता पर भाषण झाड़ते थे लेकिन उसमें ‘सब का साथ, सब का विश्वास’, और सेक्यूलरिस्म की पूँछ जोड़ देते थे। संविधान सभा में आब्जेक्टिव रिजोल्यूशन ( उद्देश्य प्रस्ताव) लाया गया।मुस्लिम लीग और अंग्रेजों को संतुष्ट करने के लिये धार्मिक अल्पसंख्यकों को विशेष अधिकार और सुरक्षा की बात कही गई। देश का वह बंटवारा रोक रहे थे जो वैसे भी हो चुका था कैबिनेट मिशन की योजना के तहत। देश का बंटवारा भी हो गया लेकिन अल्पसंख्यकों के विशेष अधिकार बने रहे। हिंदु दूसरे दर्जे के नागरिक हो गये और आज तक हैं।
ये नाटक रुका नहीं। देश की स्वतंत्रता और बंटवारे के बाद भी सारे विश्व को ये दिखाया जाता रहा कि देखिये भारत में हिंदु मुसलमान किस तरह प्रेम से रहते हैं। क्यों?
कश्मीर के मुसलमानों को लुभाना था। जब भी काश्मीर की बात होती थी मुसलमानों को भेजा जाता था संयुक्त राष्ट्र संघ में भारत का पक्ष रखने के लिये। मुस्लिम देशों की बैठक हो तो भारत से मुसलमान प्रतिनिधि भेजे जाते थे, ये दिखाने के लिये कि देखो हम भी मुसलमान हैं। ऐसी क्या विवशता थी भाई ऐसा करने की? हिंदु मोतीचूर के लड्डू पर मुसलमानी मुलम्मा चढ़ाने की? मुसलमान देश भी इस नाटक को समझते थे और साफ कह देते थे कि भाई हम तुम को मुसलमान नहीं मानते, ख्वामख्वाह गले न पड़ो। लेकिन कभी फखरु मियाँ तो कभी मुल्ला हामिद अंसारी अचकन और चूड़ीदार पहने, सिर पर टोपी लगाये अरबी और ईरानी दरबारों में हाजिरी बजाने के लिये भेजे जाते रहे।
१९४६-४७ के बाद ये साफ हो गया था कि भारत का अस्तित्व हिंदुओं के कारण है। जिहादियों का भारत की अखंडता और एकता से रत्ती भर लेना देना नहीं। जो इक्का दुक्का राष्ट्रवादी मुसलमान अपनी हिंदु सभ्यता और संस्कृति पर गर्व करते हैं वही हमारे हैं, बाकी सब जब अवसर मिलेगा इस्लामी राष्ट्रवाद का झंडा उठा के खड़े हो जायेगें। १९४६-४७ में भी यही किया था। ये धरातलीय य़थार्थ जानते हुये भारतीय गणराज्य की नितियों और रणनितियों का निर्धारण होना चाहिये था।
लेकिन घूम फिर कर बात ‘तुष्टीकरण’ पर आ जाती है। ‘उनको’ खुश रखना है। क्यों खुश रखना है?
राष्ट्रप्रेम और देश के प्रति वफादारी वजीफे और हजारों करोड़ के पैसे की खैरात बाँट कर खरीदोगे? उर्दू और इस्लाम के विद्वानों को प्रशासनिक सेवाओं में घुसा कर खरीदोगे? ७० साल से कश्मीर में और अन्य राज्यों में यही करते रहे। क्या हुआ? मुफ्तखोर मुसलमान नेता और मौलाना माल काटते रहे, ब्लैकमेल चलता रहा। उनको पता था कि यही रास्ता है। मुख्य धारा से जुड़ जाएगें तो कौड़ी के तीन हो जाएंगे। अलगाववाद की तलवार भाँजते रहो, हिंदू बनिये जिजिया देते रहेगें और हिंदुस्तान हमारी ऐशगाह बना रहेगा। कोई कारण ही नहीं था उनके पास मुख्य धारा से जुड़ने का।
कुछ प्रबुद्ध तर्कशास्त्री हिंदू तर्क देते हैं कि २० करोड़ हैं उनको निकाल तो नहीं सकते ना।
निकालने की बात कौन कर रहा है? रहें इस देश और जमीन को अपना समझ कर। हिंदू तो यहाँ तक कहते नहीं थकते कि ‘ओ भारत के मुसलमानों तुम हमारे ही भाई हो, इसी भारत माँ की कोख से जन्में हो, धर्म बदल गया हो पर खून एक ही है।’ और जब ये देश उनका है तो अल्पसंख्यक-बहुसंख्यक क्या? जैसे बाकी के हिंदू रहते हैं वैसे ही रहें। भारतीय सभ्यता और संस्कृति को अपना मानें, इस देश को सजायें, संवारें और इसके सुख-दुख के भागीदार हों। चालबाजियाँ ना करें, इस देश पर ‘कौम’ के कब्जे के सपने ना देखें।
मुसलमान नहीं थे क्या मराठा और सिख साम्राज्य में? महाराजा रणजीत सिंह के साम्राज्य की जनसंख्या का ८०% मुसलमान ही थे।
उस समय भी काश्मीर घाटी में ८०% मुसलमान थे, जो डोगरा राजाओं की प्रजा थे। सब प्रेम से ही रहते थे। जो कुछ जिहादी अलगाव का नाटक रचते थे, सिख और डोगरा योद्धाओं की तेज और सन्नद्ध तलवारें उनको रास्ते पर ले आतीं थीं। मराठा साम्राज्य में तो मुसलमान बादशाह और नवाबों को मराठा सेना बाहरी आक्रमण से बचाती थी और उनसे चौथ वसूलती थी। तो ये सोचना कि २० करोड़ हैं तो बिना ‘तुष्टिकरण’ के १०० करोड़ हिंदुओं के साथ प्रेम से नहीं रह सकते, मूर्खता है।
उन्हें ये बताने की आवश्यकता है कि वो माने या ना मानें यथार्थ है कि भारत हिंदू राष्ट्र और राज्य ही है, और भारतीय संविधान मूलत: ‘हिंदु’ संविधान है और इसकी रचना में शरिया से कोई प्रेरणा नहीं ली गई थी। ये स्वीकार करो, भारत की मूल धारा से जुड़ो, भारत माँ के पुत्र पुत्रियों की तरह अपने सुख-दुख बाँटते हुए जीवन-यापन करो और ये बाबर, तैमूर, अकबर, औरंगजेब, जिहाद, गजवा-ए-हिंद, आज़ादी , जैसी बकवास बंद करो नहीं तो राष्ट्र दोह के दोषी माने जाओगे । भारत की संप्रभुता, अखंडता, और इस की मूल संस्कृति पर प्रश्न चिन्ह लगाओगे तो यहाँ नहीं रहोगे।
ये नहीं मानते हो तो कहीं और जाओ, इस देश को नर्क मत बनाओ। यदि जिहाद फिहाद जैसी बकवास करोगे, षडयंत्र रचोगे तो उल्टा टाँग दिये जाओगे और लेशमात्र दया की आशा मत करना। शासन व्यवस्था की क्रूरता और कोप से बचना है तो अनुशासन में रहना होगा। यहाँ कोई समझौता नहीं होगा। तुम किसी गांव, जिले, या प्रदेश में बहुसंख्या में भी हो तो भी भारत के हो। पुन: भारत को बांटने और मुस्लिम बहुल क्षेत्रों में शरिया कानून लगाने की बात भी करोगे तो या तो मारे जाओगे या जेल में सड़ोगे।
अब ये गांधीवादी गुजराती बनियागिरी और लेन देन और राजनितिक धंधेबाजी बंद होनी चाहिये।
अल्पसंख्यक मंत्रालय का कोई औचित्य नहीं इस देश में। यदि इस देश को संप्रदाय, पंथ, भाषा, नस्ल, और जाति के आधार पर बाँटा जायेगा तो सभी अल्पसंख्यक होगें सिवाय जिहादियों के। वोटोँ की जोड़-तोड़ में जो विभाजन होता है उसमें मुसलमान निर्णायक भूमिका में ऐसे ही तो आते हैं। ये पुराना खेल है, जिन्ना भी भीम-मीम षडयंत्र रचता था। ऐसे षडयंत्रों को राष्ट्रदोह की परिधि में लाना चाहिये क्यों कि ये लोकतंत्र को धता बताने और ठेंगा दिखाने के साथ-साथ ‘भारत तोड़ने’ और इसकी हिंदू प्रवृत्ति पर कुठाराघात है। जो भी ऐसी ‘भारत तोड़क’ शक्तियाँ या विचारधाराएँ हैं उनका हर स्तर पर सामना, तीव्र विरोध, और प्रशासनिक मर्दन और संहार करना होगा, ढके छुपे तरीके से नहीं बल्कि खुल के।
“भय बिन होये ना प्रीत” मंत्रजाप चीन के लिये नहीं, भारत की अंदरुनी सुरक्षा के लिये अधिक कारगर होगा।
मुंबई, महाराष्ट्र, और गुजरात में ये मंत्र अब तक काम कर रहा है। भय रहेगा तो छद्मवेशी जिहादी प्रेम से रहेगें। जावेद अख्तर, आमिर खान, ओवेसी, मदूदी, फलाना, ढिमका, सब होश में रहेगें। और इनका सब से बड़ा भय क्या है? हिन्दू एकता और जागरुकता। जब तक ये है, भाई-चारा और प्रेम व्यवहार बना रहेगा। सब शांति से रहेगें। सारे जिहाद बंद हो जायेगें। मुल्लाओं और मौलानाओं का जूनून भी उतर जायेगा, और वो समाज के लफंगों को नियंत्रण में रखेगें। तुष्टिकरण होगा तो दिमाग और चढ़ेगा और पढ़े लिखे शातिर दिमाग जिहादियों की जमात खड़ी होगी।
हिंदु ये सोच के कि सरकार हमारी है, हमारी सुरक्षा करेगी, सड़क पर नहीं उतरते, बम नहीं फोड़ते, संगठित नहीं होते।
लेकिन प्रशासन, न्यायपालिका और पुलिस में जकात फाऊंडेशन से निकले पढ़े लिखे छ्द्मवेशी जिहादी, जनेयू के मक्कार वामपंथी, और उदारवादी-वामी अमरीकी विश्वविद्यालयों से कानून पढ़ के लौटे खानदानी न्यायाधीश बैठे हों तो क्या होगा? कौन सुरक्षा देगा हिंदुओं को? कौन उनकी बहू बेटियों को अपमान और बलात्कार से बचायेगा? वो थाने पर जायेगें तो जिहादी थानाध्यक्ष उल्टा उन्हीं को जेल में डालेगा और शरिया कानून मानने की सलाह देगा। जकात फाऊंडेशन मुसलमान अपराधियों और हत्यारों को कानूनी मदद मुहैया करायेगा।
यही सब हुआ था १९४६-४७ में। हिंदुओं के बल पर सत्ता में आये नेता ‘सब का साथ, सब का विकास, सब का विश्वास’ की माला जपने लगे। फिर वही गलती दुहराई जा रही है।इस बार परिणाम और भयंकर होंगें।
(लेखक राजनीतिक विश्लेषक हैं और कन्याकुमारी के विवेकानंद केंद्र से जुड़े रहे हैं)