Friday, November 22, 2024
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संसद हंगामे के लिए नहीं, ये सार्थक विमर्श का मंच है

18वीं लोकसभा की कार्यवाही चल रही है। नई संसद से बड़ी आशाएं हैं। संसदीय कार्यवाही पर पूरे देश की निगाहें लगी हुई हैं। संसद लगभग डेढ़ अरब लोगों के हर्ष, विषाद और प्रसाद की भाग्य विधाता है। देश की इच्छा है कि सत्ता पक्ष और विपक्ष राष्ट्रीय समृद्धि के लिए लोकसभा में प्रेमपूर्ण संवाद करें। लेकिन सत्र के पहले दिन ही राष्ट्रपति के अभिभाषण पर तीन बार हंगामा किया गया।

दूसरे दिन से अभिभाषण के धन्यवाद प्रस्ताव पर चर्चा प्रस्तावित थी। भारी शोरगुल हुआ। व्यवधान के कारण सदन स्थगित हो गया। सिर मुड़ाते ही ओले पड़े। संसदीय प्रणाली भारतीय संवैधानिक व्यवस्था का मूल आधार है। चुनाव में देश की जनता ने एक समूह को बहुमत देकर सरकार चलाने का जनादेश दिया है, साथ ही राष्ट्रहित में सुझाव देने व आलोचना करने की जिम्मेदारी दूसरे क्रम पर आए अल्पमत जनसमूह को सौंपी है।

विपक्ष देश के अल्पमत का प्रतिनिधित्व करता है। विपक्ष और विपक्ष के नेता की विशिष्ट भूमिका होती है। ब्रिटेन के एक प्रधानमंत्री हेरल्ड मैकमिलन ने कहा था, ‘‘विपक्ष के नेता की स्थिति कठिन होती है। दोष निकालना व आलोचना करना उसका काम है। संसद और राष्ट्र के प्रति विपक्ष की विशेष जिम्मेदारी है।‘‘ बीते वर्षों में विपक्ष की भूमिका ने निराश किया है। सदनों में व्यवधान हैं। बीते कुछ वर्ष से धारणा बनी है कि सदन चलाने की जिम्मेदारी केवल सरकार की है जबकि सदन चलाने की जिम्मेदारी दोनों की है।

पंडित जवाहरलाल नेहरू ने ठीक लिखा था कि, ‘‘संसदीय प्रणाली में न केवल सशक्त विरोधी पक्ष की आवश्यकता होती है बल्कि सरकार और विरोधी पक्ष के बीच सहयोग भी आवश्यक होता है। हम जहां तक ऐसा करने में सफल होंगे, वहां तक हम संसदीय जनतंत्र की ठोस नींव रखने में सफल होंगे।‘‘ हंगामा, नारेबाजी, बहस के दौरान सदन से बहिर्गमन और सदन के भीतर प्लेकार्ड प्रदर्शित करना विपक्ष का अधिकार मान लिया गया है। लेकिन देश की जनता अपने प्रतिनिधियों से ऐसी उम्मीद नहीं रखती। व्यवधान के कारण विपक्ष भी जनहित के मुद्दे नहीं उठा पाता। महत्वपूर्ण मुद्दों की ओर सरकार का ध्यानाकर्षण भी नहीं हो पाता। ऐसे तरीकों से जनोपयोगी मुद्दों का भी विषयांतर हो जाता है।

संविधान निर्माताओं ने संसदीय पद्धति अपनाई। संविधान सभा ने 29 अगस्त 1947 को डॉ. आम्बेडकर की अध्यक्षता में मसौदा समिति बनाई थी। सभा ने डॉक्टर आम्बेडकर को संविधान निर्माण से जुड़ी संघ शासन समिति, संघ व प्रांतीय विधान समिति, मौलिक अधिकार समिति सहित सभी समितियों के विचार मसौदे में सम्मिलित करने का काम सौंपा था। डॉ0 आम्बेडकर ने सभा में 4 नवंबर 1948 के दिन संविधान का मसौदा प्रस्तुत किया और कहा कि, ‘‘भारत जैसे देश में दायित्व की छानबीन जरूरी है। संविधान में शासन की स्थिरता के बजाय जवाबदेही को ज्यादा महत्व दिया गया है। इसलिए इसमें संसदीय पद्धति की सिफारिश की गई है। संसद में प्रश्न, ध्यानाकर्षण और इसी तरह के अन्य प्रस्ताव संसदीय कार्यवाही के माध्यम से सरकार को उत्तरदायी बनाते हैं।‘‘

संसद सरकार की जवाबदेही सुनिश्चित करने का श्रेष्ठ मंच है। इसकी जिम्मेदारी विपक्ष को सौंपी गई है। संसदीय कार्यवाही को विपक्ष ही आदर्श स्थिति में पहुंचा सकता है। वस्तुतः सत्ता पक्ष और विपक्ष परस्पर शत्रु नहीं होते। दोनों सगे भाई हैं। विधान बनाना जटिल काम है। सरकार जरूरी विधायन के लिए यथाविधि प्रस्ताव लाती है। विपक्ष यथाविधि विरोध करता है। संशोधन प्रस्ताव रखता है। इसी तरह बजट के पारण में सत्ता पक्ष व विपक्ष की साझा भूमिका होती है।

विपक्ष संसदीय कार्यवाही का प्रतिष्ठित हिस्सा है। संसदीय कार्यवाही को उत्कृष्ट बनाना सत्ता पक्ष व विपक्ष का कर्तव्य है। दोनों की आत्मीयता से सदन में विचार विमर्श का वातावरण बनता है। हंगामा करने का कोई औचित्य नहीं है। दुनिया के अनेक देशों में संसदीय जनतंत्र सफल हो रहा है। ब्रिटिश संसद में हंगामा और हुल्लड़ नहीं होते। बी.बी.सी. के अनुसार बीते सैकड़ों वर्षों से ब्रिटिश हाउस ऑफ कॉमंस को 1 मिनट के लिए भी स्थगित नहीं किया गया।

कनाडा, ऑस्ट्रेलिया, अमेरिकी कांग्रेस, स्विट्जरलैंड की संघीय सभा, चीन की नेशनल पीपुल्स कांग्रेस, जापान की डायट और फ्रांस की संसद प्रायः सुचारू रूप से चलती है। भारत जैसा हंगामा इन जनप्रतिनिधि संस्थाओं में नहीं होता। शोर और हंगामों से राष्ट्रीय क्षति होती है। दुर्भाग्य से 18वीं लोकसभा की शुरुआत ही स्थगन व्यवधान से हुई है। यहां शपथ ग्रहण के दौरान ही अप्रिय प्रसंग देखने को मिले हैं। कुछ मान्यवरों ने शपथ में अपनी तरफ से अनावश्यक शब्द जोड़े। इससे संवैधानिक शपथ की गरिमा का उल्लंघन हुआ है।

संसद भाग्य विधाता है। तमाम अवरोधों के बावजूद 17वीं लोकसभा की उत्पादकता संतोषजनक रही है, लेकिन शोर शराबा और अप्रिय शब्द प्रयोग के चलते कार्यवाही निराश करती है। मूलभूत प्रश्न है कि शोर और बाधा डालकर क्या हम कार्यपालिका को ज्यादा जवाबदेह बना सकते हैं या तथ्य और साक्ष्य रखते हुए प्रभावी भूमिका का निर्वहन कर सकते हैं। स्वाभाविक ही सदन में शालीन और मर्यादित आचरण व वक्तव्य का कोई विकल्प नहीं है। भारत में संसदीय प्रणाली का इतिहास काफी प्राचीन है। वैदिक काल में भी यहां सभा और समितियां थीं। संविधान सभा की कार्यवाही के दौरान धारदार बहसें हुई थीं।

संविधान सभा की कार्यवाही 165 दिन चली थी। 17 सत्र हुए थे। पहली लोकसभा में पंडित नेहरू, डॉक्टर श्यामा प्रसाद मुखर्जी, पुरुषोत्तम दास टंडन, सेठ गोविंददास और हरि विष्णु कामथ जैसे लोग थे। बाद की लोकसभाओं में भी 1968 तक सदस्य धैर्य से सुनते थे। मर्यादा में बोलते थे। फिर हंगामा आदि कारणों से संसद की कार्यवाही का समय घटता रहा है। सदस्यों की शिकायत रहती है कि सदन की बैठकें कम होती हैं। उन्हें बोलने का पर्याप्त समय नहीं मिलता। संविधान सभा (18-5-1949) में प्रोफेसर के. टी. शाह ने संसद को कम से कम 6 माह तक चलाने का प्रस्ताव किया था। अध्यक्ष मावलंकर का विचार भी वर्ष में सात-आठ माह सदन संचालन का था।

आदर्श सदन संचालन व संसद की गरिमा के लिए विशेषाधिकारों की उपस्थिति है। ब्रिटिश हाउस ऑफ कॉमंस की विशेषाधिकार समिति ने 1939-40 में सदस्यों को प्राप्त विशेषाधिकारों का कारण बताया था कि, ‘‘सदस्य संसद में बिना किसी बाधा के अपना कर्तव्य पालन कर सकें। शोर, हल्ला-गुल्ला सदन के वेल में जाना विशेषाधिकार नहीं है। विशेषाधिकार जिम्मेदारी बढ़ाते हैं। हाउस ऑफ कॉमंस की एक समिति ने 1951 में मजेदार टिप्पणी की थी, ‘‘विशेषाधिकारों के कारण सदस्य समाज के प्रति अपनी जिम्मेदारियों से मुक्त नहीं हो जाते बल्कि संसद सदस्य होने से अन्य नागरिकों की तुलना में उनके दायित्व और भी बढ़ जाते हैं।‘‘

संसद अपनी प्रक्रिया की स्वामी है। विशेषाधिकार असामान्य उन्मुक्ति हैं। वे कार्यवाही में मर्यादा पालन में साधक हैं। इन सबके बावजूद कार्यवाही में व्यवधान होते हैं। विशेषाधिकार सहित सांसदों को मिलने वाली सुविधाएं व अधिकार सदन में मर्यादापूर्वक और परिपूर्ण वाक् स्वातंत्र्य के प्रयोग को शक्ति देने के लिए हैं। सदन में अमर्यादित आचरण उचित नहीं होते। विश्वास है कि 18वीं लोकसभा में जनोपयोगी राष्ट्रीय विमर्श होगा। सदस्यगण, पक्ष-प्रतिपक्ष मिलजुल कर भारत को विकसित राष्ट्र बनाने के लिए संकल्पबद्ध होंगे। सत्ता पक्ष और प्रतिपक्ष परस्पर आत्मीयता के वातावरण में अपने कर्तव्य का पालन करेंगे।

(लेखक उप्र विधानसभा के अध्यक्ष रह चुके हैं)

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