संसार के पुस्तकालय में वेद ही सबसे प्राचीन पुस्तक है। इस सिद्धान्त को तो प्रायः सबने ही मान लिया है। जो लोग मिश्र की सभ्यता-संस्कृति को आर्यों की सभ्यता तथा संस्कृति से पुराना मानते हैं, वा जो भारत में द्रविड़ सभ्यता वा जैन धर्म को वैदिक संस्कृति और धर्म से पुराना कहते हैं, उनके पास भी मिश्र, द्रविड़ व जैनों का कोई लेख वा ग्रन्थ वेदों से पुराना नहीं है। सबसे पुराने साहित्य के अधिकारी आर्य ही हैं, और उनमें भी भारतीय आर्य। बस, यदि वेदों में ज्ञान-विज्ञान और कला-संस्कृति के मूल सिद्धान्त हैं तो मानना पड़ेगा कि संसार ने वेद से ही सब-कुछ सीखा है।
संसार के मनुष्यों ने संस्कृति का पाठ वेद से ही पढ़ा। आज सारा संसार पड्ज, ऋषभ, गन्धार, मध्यम, पंचम, धैवत, निषाद- इन सातों स्वरों में ही गाता है। इन सबों का प्रादुर्भाव सामवेद से हुआ है। भूमण्डल में अश्विन्यादि सत्ताईस नक्षत्र प्रकट हैं। इनके नाम अथर्ववेद में हैं। युग, वर्ष, मास, ऋतु, पक्ष, ग्रह इनका वर्णन यजुर्वेद और अथर्ववेद में है। अनेक लाभदायक जड़ी-बूटियां अथर्ववेद में, ओषधियों के सेवन का निर्देश; अनेक पशु-पक्षी-कृमि की जानकारी यजुर्वेद में है- अध्याय २४ में; अन्नों के नाम अध्याय १८ में। वस्त्रों का धारण, आभूषणों से सजावट, रत्नों का उपयोग अथर्ववेद में है। सेना, रण-वाद्य, अनेक शस्त्रास्त्रों के वर्णनों से अथर्ववेद भरा हुआ है। सभ्यता और संस्कृति के उच्च उदाहरण वेदों में विद्यमान हैं। उस पुराने काल में वेदों जैसा सुन्दर संस्कृतिपूर्ण ग्रन्थ तभी तैयार हो सकता है जब कि समाज पूर्ण सुसंस्कृत रहा हो। यदि तत्कालीन समाज पूर्ण सु-संस्कृत था और उसी समाज के व्यक्तियों ने वेद की रचना करी तो फिर वह समाज सु-संस्कृत किस प्रकार हुआ? यदि कहो कि वह समाज अपने-आप विकास के नियमों से लाखों वर्षों में सुसंस्कृत हो गया था, फिर प्रश्न होता है कि उसका वेद से पूर्व और कोई ग्रन्थ क्यों नहीं मिलता?
और क्या बिना कुछ आधारभूत सिद्धान्तों को पाए मनुष्य विकास कर सकता है? मनुष्य को विकास के लिए कुछ संकेत वेद से मिले हैं। आर्यधर्मियों का ही नहीं, अन्य भी ईश्वरविश्वासी धर्मवालों का यही विश्वास है कि आदि-सृष्टि में मनुष्य को ज्ञान भगवान् ने दिया। बाइबल-कुरान बताते हैं कि ईश्वर ने ‘आदम’ (आदि-मनुष्य) को बनाकर सब वस्तुओं के नाम याद करा दिए। वे नाम फ़रिश्तों तक को याद न थे। कुरान के भाष्यकारों ने लिखा है कि हजरत आदम जब स्वर्ग से भूमि पर उतारे गए तो अपने साथ ‘सुरपानी’ भाषा में दस सइफे (अभिलेख) लाए थे। ‘सुरपानी’ सुरवाणी, देववाणी, यह संस्कृत वेदभाषा के नाम हैं। वे आदम के लाए दस ‘सइफे’ ऋग्वेद के दस मण्डल ही तो है! भगवान् ने मनुष्य को वाणी दी, और ज्ञान का भण्डार वेद। उसी मूल ज्ञान को मनुष्य समय-समय पर पल्लवित करता हुआ बहुत बड़े ज्ञान का अधिकारी बन गया।
फिर कालान्तर में जब मनुष्य-जाति भूमि के विविध भागों में बिखरी तो उसकी भाषा में भेद हो गया। विचारधारा बदल गई। परन्तु अपनी विविध भाषाओं और विचारों में भी विविध मनुष्य-जातियां वैदिक भाषा और ज्ञान की मूल नींव को नष्ट न कर सकीं। जैसे कई-कई पीढ़ियों तक दादों-परदादों की मुख्य छवि पर शरीर का गढ़न चला करता है, इसी प्रकार संसार की जातियों को भाषाओं, धर्मों और विचारों में, वेदों की भाषा के शब्दों के मूल और वैदिक धारणाओं के विकृत विचार विद्यमान हैं। श्रीमान् जैकालिया महोदय ने, जो गोआ में जज रहे थे, एक पुस्तक लिखी है- ‘बाइबल इन इण्डिया’। इसमें सप्रमाण सिद्ध किया है कि संसार की भाषाओं की जननी वैदिक भाषा और संसार की जातियों की माता आर्य जाति है।
जो लोग यह मानते हैं कि आदिसृष्टि में मानवाकार एक पशु था, धीरे-धीरे उसके ज्ञान में विकास हुआ, और आज उसके ज्ञान-विकास का मध्याह्न है, ऐसे लोगों को यह जानना चाहिए कि ईश्वर वा ईश्वरास्तित्व के अनंगीकारी लोगों की नेचर (निसर्ग) कोई काम नासमझी का वा आयुक्त नहीं करती। पशु, पक्षी आदि तिर्यक् योनि के जीवों को निसर्ग-प्राप्त व्यवहार-ज्ञान मिला है। परन्तु मनुष्य को कुछ बातों के ज्ञान के अतिरिक्त जीवन की आवश्यक वस्तुओं तक का ज्ञान नहीं। अक्षरमयी वाणी बिना अनुकृति के मनुष्य की जन्मजात कला नहीं है। मनुष्य वानरवत् वृक्षों पर नहीं चढ़ सकता और न वैसी उछल-कूद कर सकता है। मनुष्य की हड्डियां भी ऐसी लचकीली नहीं हैं। मनुष्य पर सींग, दांत, नख आदि रक्षा के साधन भी नहीं हैं।
यदि मनुष्य को नैमित्तिक ज्ञान, निसर्ग (नेचर) वा परमेश्वर की ओर से न मिलता तो वह संसार में पहली ही पीढ़ी में समाप्त हो जाता। ईश्वर ने आदिसृष्टि में ही मनुष्य को नैमित्तिक ज्ञान प्रदान किया। उसी से उसने जगत् के सब पदार्थों को जाना और उसी प्रकार उनका नाम रखा। यही सिद्धान्त शास्त्र ने बताया है-
नामरूपे च भूतानां कर्मणा प्रवर्तनम्। वेद शब्देभ्य: एवादौ निर्मये स महेश्वर:।।
“यो ब्रह्मणो प्रथमो गा अविन्दत्”- ईश्वर ने आदिसृष्टि में ब्रह्मा को वाणी प्रदान करी।
संसार के जीव-अजीव पदार्थों के नाम और कर्मों की प्रवृत्ति वेद से जानी गई।
यदि किसी मनुष्य को नानाविध विचित्र वस्तुओं से भरे भवन में छोड़ दें और वस्तुओं की जानकारी न कराएं तो मनुष्य उन पदार्थों का विपरीत प्रयोग करके हानि भी कर सकता है। क्योंकि मनुष्य चंचल, रचनाप्रिय तथा क्रियावान् होता है। अतः संसार-रूपी भवन में आने पर मनुष्य को यहां के पदार्थों की उचित जानकारी और प्रयोग सिखाने के लिए वेद-ज्ञान से पूर्ण ऋषि, आदिसृष्टि में ही आए और पहली पीढ़ी के मनुष्यों को भाषा तथा संसार की वस्तुओं का प्रयोग एवं समाज के नियम सिखाकर चले गए। “साक्षात्कृत धर्माणो ऋषयो बभूव:’ ऋषि लोगों ने धर्म का साक्षात्कार ईश्वर से किया था। उन्होंने सब मनुष्यों को भाषा, धर्म, सभ्यता और संस्कृति की शिक्षा दी।
सभी धर्मों की विचारधारा में वेद का ज्ञान किसी-न-किसी रूप में अवश्य प्रवाहित होता है। वेद ने ईश्वर को ‘अग्नि’ नाम से कहा तो मूसाई-ईसाई-मुहम्मदी धर्मों में भी ईश्वर को ‘नूर’ (प्रकाश) ही बताया गया है। हजरत मूसा को तथाकथित ईश्वर का साक्षात् हुआ तो ‘नूर’ पर्वत अग्निमय ही दीखा। ईसाइयों का जल से संस्कार (बप्तिस्मा) “आप: शुन्धन्तु मैनस:” आप: (जल वा ईश्वर) मुझे पाप से शुद्ध करें। यह यजुर्वेद के विचार का ही परिणाम है। खुदा का अर्श पानी पर था और ईश्वर का आत्मा जलों पर मण्डलाता था- ये कुरान और बाइबल के विचार “भुवनस्य मध्ये…सलिलस्य पृष्ठे” इस वेद-ज्ञान के “सलिलस्य पृष्ठे” का ही विकृत भाव है।
कलाओं में सर्वोत्कृष्ट कला- नाट्यकला वेद ही से प्रादुर्भूत हुई है। सबसे पहला नाटक ‘इन्द्रविजय’ नाटक इन्द्र-ध्वजारोहण के उत्सव में आर्यों ने खेला था (भारत का नाट्य शास्त्र)। विश्व ने छन्द, अलंकार वेदों से सीखे। कथाएं, संवाद, पहेलियां वेदों से जाने। काव्य के दोष और गुण दोनों वेद से सीखे। इतिहास की शिक्षा देने के लिए ही वेदों में सृष्टि-रचना के इतिहास की कथाएँ आईं जिन्हें विकृति से लोग लौकिक इतिहास समझ लेते हैं। बड़े-बड़े उत्सव वैदिक यज्ञों से सीखे गए। खेती-बाड़ी, वस्त्रों का बुनना वेदों ने सिखाया।
ऋग् मण्डल १०, सूक्त ८५, मन्त्र २-४ तथा मण्डल १, सूक्त ८४, मन्त्र १५ में चन्द्र-विज्ञान, मण्डल १ सूक्त ४० मन्त्र ५-८ में ग्रहण विज्ञान, १-११६-५ में नौविद्या, १०-१२-९ में दार्शनिक विचार, १०-७१ में ज्ञान-महिमा, १०-७५ में सृष्टि-विद्या, १-५० में सूर्य-गुण, १-१६४ में आध्यात्मिक और आधिभौतिक ज्ञान, २-३-६ में शिल्प, ४-५७ में कृषि, १०-९ में जल-चिकित्सा, १०-५७ में कायाकल्प, १०-१२५ में राजसभा की शक्ति, १०-१९१ में समाज-धर्म, इसी प्रकार यत्र-तत्र ज्ञान विद्यमान हैं।
अथर्व काण्ड १ सूक्त, ५ में जल-चिकित्सा, सूक्त २३ में श्वेत कुष्ठ चिकित्सा, २९ में मनोविज्ञान, ३४ में जड़ी-बूटी, काण्ड ४ सूक्त १२ तथा छठे में संजीवनी बूटी तथा अनेक उपयोगी बूटियों का वर्णन है। अथर्व काण्ड १२ में मातृभूमि की स्तुति और उसको सुरक्षित रखने के उपाय, काण्ड १० सूक्त ८ में रहस्यवाद, काण्ड ८ सूक्त ५ तथा काण्ड १० सूक्त ३ में मणि विज्ञान, २ में ब्रह्म-विद्या, काण्ड १९ सूक्त १० मन्त्र १२ में सूर्य-किरण विज्ञान, काण्ड १९ सूक्त ७ में नक्षत्र-वर्णन आदि अनेक विषय तथा जहां-तहां आध्यात्मिक वर्णन है। ३-३० में पारिवारिक शिक्षा और विश्व-प्रेम एवं यत्र-तत्र सत्य की महिमा, ब्रह्मचर्य-महिमा आदि सदाचार-सम्बन्धी शिक्षाएं, मानसिक चिकित्सा आदि अनेक विज्ञान हैं।
यजुर्वेद १८-२३ तथा अथर्व १५-२-११ में गणित के नियमों के सूक्ष्म बीज विद्यमान हैं। यजुर्वेद अध्याय २४ में प्राणि-विज्ञान, अध्याय ३० में मनुष्यों का स्वभावानुसार उपयोग, ३४ में मनोविज्ञान, ४० में ब्रह्मविद्या है; १६-४८ में सेनापति के कर्तव्य, अध्याय २० में राजा, अध्यापक और उपदेशक के कर्तव्य, १२वें अध्याय में हैं। वेद-सागर विविध विज्ञान के रत्नों का भण्डार है।
इस सबको देखकर एक ही मिथ्या हो सकता है- या तो वेदों का निर्माण ऐसे समय में हुआ जब कि मनुष्य-समाज पूर्णतया विद्या-सम्पन्न और सुसंस्कृत था, वा वेदों ने ही यह सब-कुछ मनुष्यों को सिखाया। दोनों ही दशाओं में मानव-संस्कृति के कोश वा मूलाधार वेद ठहरते हैं। भूतल पर और कोई भी पुस्तक ऐसी मिलता ही नहीं। वेदों का प्रभाव मानव-संस्कृति पर पड़ा व तत्कालीन मानव-संस्कृति का प्रतिबिम्ब वेदों में विद्यमान है। इसमें पहली मान्यता तो मनुस्मृति आदि शास्त्रों की है। सब वैदिकधर्मी प्रथम मान्यता को ही मानते हैं।
दूसरी धारणा पर प्रश्न यह होता है कि वैसा सुसंस्कृत समाज किस शिक्षा से बना? क्योंकि मनुष्य बिना सिखाए सीखने की योग्यता नहीं रखता। यदि कहा जाए कि इसके प्रथम अन्य पुस्तक थे, तो प्रमाण चाहिए। कोरी कल्पना मान्य नहीं हो सकती। फिर उन पुस्तकों पर भी प्रश्न होता चला जाएगा तो अनवस्था-दोष आएगा। अतः यही मान्यता ठीक ठहरती है कि आदिशिक्षक वेद ही है। मानव-मात्र ने ज्ञान-विज्ञान, कला-कौशल, शिल्प, सुसंस्कृति वेदों से ही सीखी थी। इसीलिए वैदिक शिक्षा ‘सा प्रथमा संस्कृतिर्विश्ववारा’ अर्थात् वैदिक शिक्षा पहली और सार्वभौम संस्कृति है।
प्रस्तुति- प्रियांशु सेठ
नोट- यह लेख ‘आर्य’ साप्ताहिक अम्बाला छावनी के स्वाध्याय अंक श्रावणी सम्वत् २०१० वि० में प्रकाशित हुआ था।
[साभार- वैदिक ज्ञान-धारा]