(स्वतंत्रता दिवस पर विशेष )
दोहराती हूं सुनो लहू से लिखी कुर्बानी,
जिसके कारण धूल भी चंदन है राजस्थानी।
9 मई सन् 1540 का सूरज स्वर्णिम रश्मियां बिखेर रहा था,
दिल्ली में सरताज का सिंहासन डोल रहा था।
सिसोदिया राजवंश में मुगलों का काल जन्मा था,
मेवाड़ मुकुटमणी महाराणा प्रताप जिनका नाम था।
अकबर का दुर्ग में संदेसा आया,
सुन जिसको मेवाड़ी शौर्य पर अंधियारा छाया।
“हमारी अधीनता स्वीकार कर लो,
सियासत हमें समर्पित कर दो,
शाही फरमान न माना तो बहुत पछताओगे,
मेवाड़ी मुकुट की शान न बचा पाओगे,
राणा का शीश कटा पाओगे।”
सुन फरमां बिजली की तरह क्षितिज तक फैल गया अंबर में,
क्रोध से लरजा राणा का शौर्य ज्वाला बन दौड़ा रक्तधार में।
“गर धरा की आन गई घाव नहीं भरने का,
उठो वीरों !समय आ गया कट मर स्वाभिमान बचाने का ।
एकलिंग की शपथ!
महाप्रलय के घोर प्रभंजन भी अब न रोक पाएंगे,
परचम सिसोदिया राजवंश का ही फहराएंगे।”
बजा कूच का शंख,हर-हर महादेव की ध्वनि लहराई,
सज गए हाथी-घोड़े,सैनिकों ने जय-जयकार लगाई।
शब्द-शब्द राणा का था तूफानी,
अकबर देखेगा अब केसरिया तलवारों का पानी।
जिसके कारण धूल भी चंदन है राजस्थानी,
दोहराती हूं सुनो लहू से लिखी कुर्बानी।
हल्दीघाटी की माटी हुई सुभट अभिमानी,
लाडला आ गया समर करने बन गई क्षत्राणी।
मानसिंह के लाखों सैनिक राणा के चंद सेनानी,
छांट-छांट शीश हलाल कर रहे बन दरिया तूफानी।
बज चले नभ में बरछे, भाले,शर, तरकस,तलवार,
रक्त अरी का पीने को मातृभूमि रही थी जीभ पसार।
चौकड़ी भर-भर चेतक शत्रु का मस्तक फोड़ा था,
तन पर उसके जो राणा का कोड़ा था।
महारूद्र सा गरजा करने को मातृभूमि का सतित्व अभिमानी,
लाल रंग से स्नान कर बन गया शूरवीर अमर-सेनानी।
जिसके कारण धूल भी चंदन है राजस्थानी,
दोहराती हूं सुनो लहू से लिखी कुर्बानी।
अकबर मचला था पानी में आग लगा देने को,
पर पानी प्यासा बैठा था ज्वाला पी लेने को।
धम्मक-धम्मक धमक गया हाथी रामप्रसाद हिमगिरि बनने को,
शंकर का डमरु बन तांडव मचाया मेवाड़ी मान बचाने को।
सूंड में पकड़ तलवार अरी पर कर रहा वार- पे -वार,
मुगलों के अनेकों हाथी दिए पसार।
भीषण रण से दहली दिल्ली की दीवारें,
शत्रु ने रच डाली चक्रव्यूह की लकीरें।
फंस गया वीर सेनानी हुसैन खां का बंदी बना,
यह देख मातृभूमि का सीना चीत्कार उठा!
“अरे कायरों!नीच बांगडों ,छल से क्या रण करते हो?
किस बूते जवां मर्द बनने का दम भरते हो?”
मानो मां पर अंबर ने अग्निशिरा छोड़ा था,
भेंट अनूठी देख अकबर का सीना हुआ चौड़ा था।
अश्रुधार में नहाया हाथी पुकारा गया जब पीरप्रसाद,
स्वामी से बिछुड छा गया घोर अवसाद।
अकबर के छप्पन भोग को मुंह तक ना लगाया था,
त्याग अन्न-जल शहादत की लिख गया नई अमर-गाथा था।
देख यह अकबर का अंतस मन भर आया,
“जिसके हाथी को मैं ना झुका पाया ,उसके स्वामी को क्या झुकाऊंगा?”
कह अकबर भी फूट-फूट कर रोया था।
एक-एक कर कुर्बान हो गए सभी मेवाड़ी पशु सेनानी,
राणा पर लेकिन रंचक आंच न आने पाई।
चेतक-हाथी की शहादत पर भारत मां भी रोई थी,
उसने अपनी दो प्यारी ज्वलंत मणियां खोई थी।
धन्य-धरा ,धन्य-मेवाड़ ,धन्य-बलिदानी!
बस यही है स्वामीभक्ति, शौर्य ,पराक्रम, देशप्रेम की सच्ची कहानी,
जिसके कारण धूल भी चंदन है राजस्थानी,
दोहराती हूं सुनो लहू से लिखी कुर्बानी।