हिंदू धर्म शास्त्रों से जो सीख हमें मिलती है वह परिश्रम करते रहने की है, निरंतर चलते रहने की है, अभ्यास करते रहने की है क्योंकि बिना अभ्यास के विद्या भूल जाती है या विस्मृत हो जाती है-‘बिनाभ्याषे विषम् विद्या’!
मनुष्य को लगातार कार्य करते रहना चाहिए और वर्तमान का सदुपयोग भी करते रहना चाहिए ! कहा भी गया है- अपने लक्ष्यों के प्राप्ति के लिए हमेशा सजग रहना चाहिए! समय प्रतिकूल हो तब भी काम करना बंद नहीं करना चाहिए !किसी भी कार्य को कल के लिए टालना असफल जीवन की आधारशिला है !दुनिया के महान व्यक्ति केवल इसलिए सफल हो पाए क्योंकि वह प्रति क्षण अपने उद्देश्यों में संलग्न रहे! कर्म करने पर तो हार या जीत कुछ भी मिल सकती है परंतु कार्य न करने पर तो केवल हार ही मिलती है! पुरुषार्थ के आगे तो भाग्य भी विवश होकर फल देने के लिए बाध्य हो जाता है ! प्रत्येक भव्य इमारत सफेद पेपर पर मात्र एक कल्पना ही होती है! उसे वास्तविक रूप देने के लिए धरातल पर उतरना होता है और कार्य करना होता है ! इसलिए अपने संकल्प पूर्ति में सदैव संलग्न रहना चाहिए!कभी भी समय को व्यर्थ नहीं गंवाना चाहिए! अपने प्रयत्न जारी रखने चाहिए! सफलता बाहें फैलाकर स्वागत करने के लिए खड़ी है! वर्तमान का सदुपयोग एक स्वर्णिम भविष्य को जन्म देती है!
हम यदि ठान लें कि अपने पौरुष से सफलता हासिल करनी है तो लक्ष्य में विजय निश्चित ही मिलेगी लेकिन इसके लिए हमें परिश्रम करनी होगी। इंग्लिश में कहते हैं कि ‘There is no short cut to Success’ नहीं कभी होगा था और नहीं कभी होगा इसलिए लगातार परिश्रम करते रहना चाहिए। हितोपदेश में कहा गया है–
“उद्यमेन हि सिध्यन्ति कार्याणि न मनोरथैः!
न हि सुप्तस्य सिंहस्य मुखे प्रविशन्ति मृगाः! “
अर्थात्- परिश्रम करने से ही कार्य सफल होते हैं न कि मन में इच्छा करने से ! जैसे कि सोए हुए शेर की मुंह में हिरण अपने आप नहीं आता बल्कि शेर को परिश्रम करनी पड़ती है उसी प्रकार हम मनुष्यों को भी सफलता पाने के लिए लगातार परिश्रम करना चाहिए! उपरोक्त पंक्तियाँ भले ही पुरानी है लेकिन इसका महत्व आज भी उतनी ही है जितनी कि हजारों साल पहले थी! हम में से बहुत से लोग ऐसे हैं जो भाग्य का रोना रोते रहते हैं और कठिन परिश्रम करने से चूक जाते हैं! किसी भी काम में सफल होने के लिए आवश्यक परिश्रम नहीं करने और भाग्य के भरोसे बेठे रहने वालों के लिए इन चींटियों से प्रेरणा अवश्य लेनी चाहिए।
‘योजनानां सहस्रं तु शनैर्गच्छेत पिपीलिका!
आगच्छन् वैनतेयोपि पदमेकं न गच्छति!! ‘
अर्थात् अगर चींटी चल पड़ती है तो वह धीरे-धीरे चलकर भी हजारों कोस चली जाती हैं लेकिन यदि गरुड़ भी अपनी जगह से नहीं हिला तो वह एक पग भी आगे नहीं बढ़ सकता ! इस प्रकार हम लोगों को भी अपने जीवन में ‘चरैवेति ‘का अनुपालन करते हुए आगे बढ़ते और परिश्रम करते रहना चाहिए!
मारकंडेय पुराण में बताया गया है कि-
“प्रयाति वांछितम् वान्य दृढं ये व्यसायिन:!
नाविज्ञातम् न चागम्यं नाप्राप्यम् दिक्चेह वा! “
अर्थात् दृढ़ संकल्प वाले कर्मनिष्ठ व्यक्ति ही सफलता को प्राप्त करते हैं! मनस्वी व्यक्ति के लिए इस संसार में कोई वस्तु अप्राप्य नहीं है और कोई भी स्थान अगम्य नहीं है! उदाहरण के तौर पर यदि हम देखें तो उत्तानपाद राजा के पुत्र थे ध्रुव लेकिन उन्होंने अपने पुरुषार्थ से ही अद्भुत स्थान प्राप्त कर लिया !तभी तो उन्हें आकाश का ध्रुव स्थान प्राप्त हुआ! कहां पृथ्वी और कहां आकाश ? युगों- युगों में भी जो अमरत्व उन्हें मिला है वह पुरुषार्थ से ही सम्भव हुआ है!
डॉ सुनीता त्रिपाठी ‘जागृति’ अखिल भारतीय राष्ट्रवादी लेखक संघ (नई दिल्ली)