Sunday, December 22, 2024
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मुगल बादशाह औरंगजेब के इशारे पर मिर्जा राजा जयसिंह को जहर दिया गया था

28 अगस्त 1667 : मिर्जा राजा जयसिंह की मृत्यु बुरहानपुर में हुई। 
मिर्जा राजा जयसिंह की बहादुरी के प्रसंग भारत के हर कौने में है । अफगानिस्तान से लेकर दक्षिण भारत तक उन्होंने हर युद्ध जीता । पर ये लड़ाइयाँ उन्होंने अपने लिये नहीं मुगलों के लिये लड़ीं थीं। पर एक दिन ऐसा आया जब  मुगल बादशाह औरंगजेब की योजना से उन्हें जहर देकर मार डाला गया ।
मुगल बादशाह औरंगजेब अपनी क्रूरता के लिये ही नहीं कुटिलता के लिये भी जाना जाता है । वह अपने भाइयों की हत्या करके और पिता को जेल में डालकर गद्दी पर बैठा था । उसने अपनी एक पुत्री को जेल में डाला और एक पुत्र जान बचाकर भागा था । औरंगजेब द्वारा राजपूत राजाओं के साथ की गई कुटिलता की भी कई कहानियाँ इतिहास के पन्नों में दर्ज हैं। जोधपुर के राजा महाराज जसवंतसिंह की भी हत्या की गई थी । उन्हें युद्ध अभियान के लिये पहले काबुल भेजा गया और उनके शिविर में किसी अज्ञात ने उनकी हत्या कर दी थी । ठीक इसी प्रकार मिर्जा राजा जयसिंह की मध्यप्रदेश के बुरहानपुर में विष देकर हत्या की गई।
 राजा जयसिंह आमेर रियासत के शासक थे । उन्होंने केवल ग्यारह वर्ष की आयु में गद्दी संभाली‌‌ थी । वे 1621 से 1667 तक आमेर के शासक रहे । उनके पूर्वजों ने अपनी रियासत को विध्वंस से बचाने के लिये बादशाह अकबर के समय मुगल सल्तनत से समझौता कर लिया था । इस समझौते के तहत आमेर के राजा को मुगल दरबार में सेनापति पद मिला और आमेर की सेना ने हर सैन्य अभियान में मुगल सल्तनत का साथ दिया । मुगल दरबार में यह सेनापति पद आमेर के हर उत्तराधिकारी को रहा । इसी के अंतर्गत राजा जयसिंह जब मुगल सेनापति बने बने तब जहांगीर की बादशाहत थी । फिर शाहजहाँ की । और अंत में औरंगजेब के शासन काल में भी वे सेनापति रहे ।
उन्हें 1637 में शाहजहाँ ने “मिर्जा राजा” की उपाधि दी थी । राजा जयसिंह ने मुगलों की ओर से 1623 में अहमदनगर के शासक मालिक अम्बर के विरुद्ध’, 1625 में दलेल खां पठान के विरुद्ध, 1629 में उजबेगों के विरुद्ध, 1636 में बीजापुर और गोलकुंडा के विरुद्ध तथा 1937 में कंधार के सैन्य अभियान में भेजा और राजा जयसिंह सफल रहे । उन्होंने हर अभियान में मुगल सल्तनत की धाक जमाई । उनकी बहादुरी और लगातार सफलता के लिये अजमेर क्षेत्र इनाम में मिला और 1651 में तत्कालीन बादशाह शाहजहाँ ने अपने पौत्र सुलेमान की साँझेदारी में कंधार की सूबेदारी दी ।
इसके बाद 1651 ई. में शाहजहां ने इन्हें सदुल्ला खां के साथ में कंधार के युद्ध में नियुक्त किया ।
बादशाह जहांगीर और शाहजहाँ के कार्यकाल में तो सब ठीक रहा पर राजा जयसिंह औरंगजेब की आँख की किरकिरी पहले दिन से थे । इसका कारण 1658 में हुआ मुगल सल्तनत के उत्तराधिकार का युद्ध था । यह युद्ध शाहजहाँ के बेटों के बीच हुआ था । बादशाह शाहजहाँ के कहने पर राजा जयसिंह ने दारा शिकोह के समर्थन में युद्ध किया था । पहला युद्ध दारा शिकोह और शुजा के बीच बनारस के पास बहादुरपुर में हुआ हुआ था । इसमें जयसिंह की विजय हुई । इस विजय से प्रसन्न होकर बादशाह शाहजहाँ ने इनका मनसब छै हजार का कर दिया था ।
बादशाहत के लिये दूसरा युद्ध मध्यप्रदेश और महाराष्ट्र की सीमा पर 15 अप्रैल 1658 को हुआ। यह युद्ध दारा शिकोह और औरंगजेब के बीच हुआ । इस युद्ध में भी राजा जयसिंह ने दारा शिकोह के पक्ष में युद्ध किया । लेकिन इस युद्ध में औरंगजेब का पलड़ा भारी रहा । मुगल सेना पीछे हटी और आगरा की सुरक्षा के लिये तगड़ी घेराबंदी की गई। बादशाह ने इस सुरक्षा कवच का नेतृत्व करने के लिये भी राजा जयसिंह को ही चुना । औरंगजेब ने एक रणनीति से काम किया । उसने सीधे आगरा पर धावा बोलने की बजाय अपनी एक सैन्य टुकड़ी को  राजस्थान के उन हिस्सों में उत्पात मचाने भेज दिया जो राजा जयसिंह के अधिकार में थे ।
 राजा जयसिंह के सामने एक विषम परिस्थिति बनी । आमेर के राजाओं ने अपने क्षेत्र की सुरक्षा के लिये ही तो मुगलों से समझौता किया था लेकिन अब संकट में आ  गया था । औरंगजेब ऐसा करके राजा जयसिंह को समझौते के लिये तैयार करना चाहता था । राजा जयसिंह ने भी भविष्य की परिस्थिति का अनुमान लगाया और बातचीत के लिये तैयार हो गये । 25 जून 1658 को मथुरा में दोनों की भेंट हुई और राजा जयसिंह ने औरंगजेब को अपना समर्थन देने का वचन दे दिया । मार्च 1659 में देवराई के पास हुये निर्णायक युद्ध में राजा जयसिंह ने औरंगजेब की ओर दारा शिकोह के विरूद्ध अहरावल दस्ते का नेतृत्व किया ।
औरंगजेब ने सत्ता संभालने के बाद राजा जयसिंह को मनसब तो यथावत रखा पर पूर्ण विश्वास न कर सका । वह राजा जयसिंह को ऐसे युद्ध अभियानों पर भेजता  जो कठिन होते । पर राजा सभी अभियानों में सफल रहे । औरंगजेब ने उन्हे दक्षिण में छत्रपति शिवाजी महाराज के विरुद्ध भी भेजा । औरंगजेब की ओर से शिवाजी महाराज के साथ पुरन्दर की संधि राजा जयसिंह ने ही की थी । और राजा पर विश्वास करके ही शिवाजी महाराज औरंगजेब से चर्चा के लिये आगरा आये थे । जहाँ बंदी बना लिये गये । शिवाजी महाराज को इस प्रकार बंदी बना लेने से राजा जयसिंह भी आश्चर्यचकित हुये और सावधान भी ।
औरंगजेब शिवाजी महाराज को विष देकर मारना चाहता था । लेकिन शिवाजी महाराज समय रहते सुरक्षित निकल गये । यह घटना अगस्त 1666 की है । शिवाजी महाराज के इस प्रकार सुरक्षित निकल जाने पर औरंगजेब को राजा जयसिंह पर संदेह हुआ । बादशाह को लगा कि इसमें राजा जयसिंह का हाथ हो सकता है । चूँकि शिवाजी महाराज की निगरानी में राजा जयसिंह का भी एक सैन्य दस्ता लगा था । इसलिए बादशाह को राजा जयसिंह पर गहरा संदेह होना स्वाभाविक भी था । पर बादशाह ने सीधे और तुरन्त कार्रवाई करने की बजाय मामले टालने का निर्णय लिया ।
अंततः जून 1667 में राजा जयसिंह को दक्षिण के अभियान पर भेजा गया । बरसात के चलते राजा बुरहानपुर में रुके थे । मुगल सेना की प्रत्येक सैन्य टुकड़ी में भोजन बनाने वाली खानसामा टीम सीधे बादशाह के आधीन सामंतों के नियंत्रण में होती थी । इस अभियान में भी यही व्यवस्था थी । 28 अगस्त 1667 को भोजन में विष देकर राजा जयसिंह की हत्या कर दी गई । बुरहानपुर में राजा जय सिंह की 38 खम्बों की छतरी बनी है जो राजा जयसिंह के पुत्र राम सिंह ने अपने पिता की स्मृति में बनवाई थी ।
(लेखक राजनीतिक व ऐतिहासक विषयों पर शोधपूर्ण लेख लिखते हैं )

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