यह ऐतिहासिक निर्णय है, मध्यप्रदेश उच्च न्यायालय की इंदौर खंडपीठ के आदेश पर धार स्थित भोजशाला का आर्कियोलॉजीकल सर्वे ऑफ इंडिया द्वारा सर्वेक्षण किया जा रहा है। प्लेसेज ऑफ वर्शिप एक्ट की आड़ में इतिहास बोध से वंचित नहीं किया जा सकता? पूजा और नमाज के अधिकार पर बहस से पहले यह सत्यापित होना आवश्यक है कि राजाभोज की विरासत पर कमाल मौला का मुलम्मा आखिर चढ़ा कैसे? मैं स्पष्टत: भोजशाला को राजाभोज की विरासत इसलिए कह रहा हूँ क्योंकि यह सत्य वर्ष 1902 में एएसआई द्वारा किए गए सर्वेक्षण में उजागर हुआ था। एक विशाल हवनकुण्ड और उसके चारों ओर अलंकृति स्तंभों की परिधि के भीतर देवी-देवताओं की अनेक प्रतिमाएं स्वयं देखी परखी जा सकती हैं। यह ऐसा ही है जैसे मंदिर को तोड़ कर औरंगजेब ने केवल गुंबद तान दिए और बन गई ज्ञानवापी मस्जिद। अब सारे साक्ष्य चीख चीख कर कह रहे हैं कि मंदिर ही है, दीवार भी मंदिर की, प्रतिमाएं भी देवी देवताओं की, सामने सदियों से बैठे हुए नंदी भी। प्राप्त तो महादेव भी हुए हैं लेकिन माननीय अदालत के निर्णय की प्रतीक्षा उचित है, वजूखाने में प्राप्त प्रतिमा यदि महादेव की सिद्ध होती है तो गंगा-जमुनी तहजीब की गंगा और जमुना अलग अलग धाराओं में बह सकती है। जानते बूझते देवी-देवताओं और इतिहास का अनादर क्यों? यह बड़ा प्रश्न है जिसका ज्ञानवापी के संदर्भ में उत्तर देना यही होगा, साथ ही साथ यही वस्तुस्थिति भोजशाला की भी है। आईये राजाभोज की भोजशाला पर थोड़ी चर्चा करते हैं। आज के वक्तव्य में हम तीन उपविषयों की चर्चा करने जा रहे हैं – प्रथम कि कौन थे राजाभोज? द्वितीय कि राजाभोज की वाग्देवी कौन थी, कैसी थी? और तीसरा प्रश्न की भोजशाला विवाद क्या है? विषय के अंत में हम ए.एस.आई. के सर्वेक्षण की महत्ता पर बात करेंगे।
कौन थे राजाभोज?
यह प्रश्न हृदय को द्रवित करता है। आप इतिहास के छात्रों से भी यह प्रश्न करेंगे तो उन्हे खिलजियों-मुगलों का पूरा खानदान रटा होगा लेकिन अधिकांश ठिठक जाएंगे कि भोज कौन थे, कहाँ के शासक थे। राजाभोज मुहावरों और किंवदंतियों तक में इस तरह समाविष्ट हैं कि आज की पीढ़ी उन्हें मिथक और काल्पनिक तक मानने लगी है। इसलिए रेखांकित करें और अपनी पीढ़ी को भी सजग करें कि मध्यभारत के विशाल परिक्षेत्र पर शासन करने वाले राजाभोज परमार या पंवार वंश के नवें शासक थे।
विदित है कि परमार वंशीय राजाओं ने धारानगरी अथवा वर्तमान धार नगर को अपनी राजधानी बनाते हुए आठवीं शताब्दी से चौदहवीं शताब्दी के पूर्वार्ध तक गौरवपूर्ण शासन किया था। राजाभोज की प्रतिष्ठा यह भी है कि वर्तमान मध्यप्रदेश की राजधानी भोपाल की प्रतिष्ठा उनके ही नाम से है जो क्षेत्र कभी भोजपाल अथवा भूपाल कहा जाता था। राजाभोज ने इसी स्थान पर विशाल कृत्रिम झील का निर्माण कराया था जिसका विस्तार एक समय पर भोजपुर के चर्चित शिव मंदिर तक था। राजाभोज की प्रतिष्ठा केवल गौरवशाली योद्धा की नहीं थी, उन्हें अद्भुत भवनों का निर्माता कह कर भी इति नहीं की जा सकती, वे जल संरक्षण की अवधारणा के आरम्भिक सूत्रधारों में से एक थे, कहना भी अतिश्योक्तिपूर्ण नहीं।
वे सही मायनों में सरस्वती उपासक थे जिनके विषय में कहा जाता है कि उन्होंने चौंसठ प्रकार की सिद्धियाँ प्राप्त की थीं साथ ही उन्होंने धर्म, ज्योतिष्य, आयुर्वेद, व्याकरण, वास्तुशिल्प, विज्ञान, कला, नाट्यशास्त्र, संगीत, योगशास्त्र, दर्शन, राजनीतीशास्त्र आदि विषयों पर चौरासी ग्रंथ लिखे। उनकी प्रमुख कृतियों में ‘समरांगण सूत्रधार’, ‘सरस्वती कंठाभरण’, ‘सिद्वान्त संग्रह’, ‘राजमार्तण्ड’, ‘योग्यसूत्रवृत्ति’, ‘विद्या विनोद’, ‘युक्ति कल्पतरु’, ‘चारु चर्चा’, ‘आदित्य प्रताप सिद्धान्त’, ‘आयुर्वेद सर्वस्व श्रृंगार प्रकाश’, ‘प्राकृत व्याकरण’, ‘कूर्मशतक’, ‘श्रृंगार मंजरी’, ‘भोजचम्पू’, ‘कृत्यकल्पतरु’, ‘तत्वप्रकाश’, ‘शब्दानुशासन’, आदि प्रमुख हैं। ”भोज प्रबंधनम्” उनकी आत्मकथा है।
राजा भोज की वाग्देवी
अब दूसरे प्रश्न अर्थात बात राजा भोज की वाग्देवी की कर लेते हैं। जानते हैं कि राजा भोज और विद्या की देवी सरस्वती का सह-सम्बंध कैसा था? मेरुतुंगाचार्य द्वारा विरचित प्रमुख जैन ग्रंथ प्रबंध चिंतामणि के अनुसार धारानगरी में जहाँ वर्तमान भोजशाला स्थित है, राजाभोज ने इसी स्थान पर माता सरस्वती का अनेक बार दर्शन और साक्षात्कार प्राप्त किया है। क्या यही कारण है कि जैसे ही हम भोजशाला के भीतर प्रवेश करते हैं, यह पाते हैं कि मुख्य द्वार के पास दाहिनी दीवार पर काली पाषाण शिला के ऊपर कूर्मशतकम अथवा पारिजात मंजरी नाटक के प्रथम दो अंक खुदे हुए हैं जिनमें पर्यटक आसानी से ओम सरस्वतयै: नम: का अवलोकन कर सकते हैं। राजा भोज और माता सरस्वती के इस भक्तिपूर्ण सम्बंध को इस बात से भी समझा जा सकता है कि भोजशाला के बाहर ही एक छोटा कुँआ है, जिसे अक्लकूप अथवा सरस्वती कूप कहा जाता है। आज भी जनसाधारण की यह धारणा है कि इस कुएं का पानी पीकर जड़बुद्धि व्यक्ति भी विद्वान हो जाते हैं, सरस्वती के उपासक बन जाते हैं। इस जनमान्यता से स्पष्ट भी होता है कि यह परमारवंशीय शासक न केवल स्वयं अध्येता था अपितु विद्यानुरागियों, विद्वानों, कवियों, शोधकर्ताओं, अभियंताओं, वैज्ञानिकों आदि के संरक्षक भी थे।
भोजशाला को कभी भारत के महत्वपूर्ण रहे शिक्षा संस्थानों में गिना जाता है। यह भी प्रामाणित है कि यहाँ कभी भव्य सरस्वती प्रतिमा अथवा वाग्देवी स्थापित रही होंगी। प्राचीन साहित्य में देवी सरस्वती विद्याधारी, वीणावादिनी, भारती, महाविद्या तथा महावाणी आदि सहित वाग्देवी भी पर्याय के रूप में उल्लेखित है। भोजशाला के मुख्य गर्भगृह में वाग्देवी की श्वेत संगमरमर की प्रतिमा स्थापित थी जो मध्यकाल में आक्रांता द्वारा हटवा दी गई थी। अभी अवशेष स्वरूप एक दीवार पर सफेद संगमरमर का कमल फूल उकेरा देखा जा सकता है।
धार नगरी में वर्ष 1875 में पुरातत्व विभाग के श्री के.के.लेले आदि को खुदाई करते हुए वाग्देवी की खण्डित की गयी जो प्रतिमा प्राप्त हुई थी उसे तत्कालीन भोपावर स्टेट के पोलिटिकल एजेंट मेजर किनकेड के द्वारा लंदन ले जाया गया। भारतीय विरासत की अंग्रेजों द्वारा की गयी लूट आज भी वहां के रॉयल म्यूजियम में सुरक्षित और प्रदर्शित की जाती है, जहाँ वाग्देवी की संगमरमर की निर्मित इस प्रतिमा को देखा जा सकता है। सरस्वती कंठाभरण जैसे महान ग्रंथ के रचयिता राजा भोज की आराध्या यही वाग्देवी हैं जिन्हें श्रृंगार मंजरी कथा कृति में सौभाग्य तथा यश देने वाली साथ ही स्निग्ध पदों से नर्तन करने वाली बताया गया है।
वाग्देवी स्त्रोत में कहा गया है कि देवी भारती अपने ललित पदों से समूचे जगत के रंगमंच पर नर्तन करती हैं और सबको नचाती हैं – समझा जा सकता है कि राजा भोज द्वारा साकार की गयी वाग्देवी की प्रतिमा इन्हीं ग्रंथों में उल्लेखित विवरणों के अनुरूप होनी चाहिये। पडताल कीजिये तो आपको ज्ञात होगा राजा भोज द्वारा संवत 1091 में वाग्देवी की प्रतिमा की स्थापना भोजशाला में की गई थी। कोलकाता से प्रकाशित पत्रिका रूपम के 1924, जनवरी अंक में श्री के.एन.दीक्षित के हवाले से उल्लेख मिलता है कि ब्रिटिश संग्रहालय में स्थित प्रतिमा ही राजा भोज की आराध्या वाग्देवी की प्रतिमा है। प्रतिमा के पादपीठ पर संवत 1091 (ईस्वी सन् 1134) का लेख उत्कीर्णित है। इस प्रतिमा में जो उत्कीर्णन है उसके मुख्यांश का अनुवाद है – यह माता वाग्देवी की मनोहारी प्रतिमा है जो कि राजा भोज की धारा नगरी की विद्या को धारण करती है।
राजा भोज की चर्चित वाग्देवी की प्रतिमा अभंगलास्य मुद्रा में है जिसे मकराना के संगमरमर से बनवाया गया था। इस प्रतिमा में उत्तर और दक्षिण भारतीय मूर्तिकला के विशिष्ट लक्षणों का समाहार है। प्राप्त प्रतिमा के चार हाथों में से आगे के दो हाथों का आधा भाग खंडित और लुप्त है। सिर पर मुकुट, कंधे तक लटकते हुए कानों में कुंडल, कंठ में मोतियों का हार, वक्षस्थल पर मुक्ता जट्ट पट्टी और उनकी कटि भी चारों ओर से अलंकृत है। इस प्रतिमा में देवी की सेवा में 5 प्रधान आकृतियां भी उत्कीर्णित हैं विशेष रूप से उनकी बाई ओर अपने हाथों में एक माला लिए हुए एक उड़ती हुई नारी की आकृति गढी गयी है। प्रतिमा रूप में वाग्देवी देवी ध्यान अवस्था में हैं। उनका मुख सुंदर तथा शांत है। यह प्रतिमा चार फुट ऊँची, नौ इंच मोटी तथा दो फीट चार इंच चौडी है जिसके निर्माण व स्वरूप में जैन शिल्पकला का प्रभाव भी स्पष्ट दृष्टिगोचर होता है।
इस विवेचना के पश्चात हम तीसरे और महत्वपूर्ण प्रश्न की ओर आगे बढ़ते हैं कि भोजशाला विवाद क्या है? राजा भोज जिनका कि राज्यकाल वर्ष 1010 1055 ई. माना जाता है, उन्होंने वर्ष 1034 ई. में धार नगर में सरस्वती सदन भोजशाला निर्माण करवाया एवं यहाँ पर वाग्देवी प्रतिमा की स्थापना की थी। समय बदल गया तथा वर्ष 1305 से 1401 ई. के मध्य धार ने सबसे पहले मुस्लिम आक्रांता अलाउद्दीन खिलजी का आघात सहा। राजाभोज की विरासत को नष्ट करने का वृतांत यहीं से आरंभ होता है जबकि वर्ष 1269 में कमाल मौलाना नाम का फ़क़ीर धार आया जोकि यहाँ पर 36 वर्ष तक रहा था।
कमाल मौला ने धार के संबंध में बहुत सी सामरिक महत्व की जानकारियाँ एकत्रित की जिसे उसने खिलजियों से साझा कर दिया। इन्हीं जानकारियों के आधार पर वर्ष 1305 में भोजशाला को नष्ट करने का कार्य मतिमंद आक्रान्ताओं द्वारा किया गया था। सूफी भारत में क्या दे गए इस पर बहस से पहले हमसे क्या क्या छीना और काबिज हो गए यह जानना आवश्यक है। 1305 में अलाउद्दीन खिलजी के आक्रमण के समय भोजशाला के शिक्षकों और विद्यार्थियों ने भी खिलजी की इस्लामिक सेना का विरोध किया था। खिलजी द्वारा लगभग 1,200 छात्र-शिक्षकों को बंदी बनाकर उनसे इस्लाम कबूल करने के लिए कहा गया लेकिन इन सभी ने इस्लाम स्वीकार करने से मना कर दिया। इसके बाद इन विद्वानों की हत्या कर दी गई थी और उनके शवों को भोजशाला के ही विशाल हवन कुंड में फेंक दिया गया था।
कमाल मौला की मौत के कई दशकों बाद वर्ष 1456 में महमूद खिलजी द्वारा भोजशाला परिसर में ही मौलाना कमालुद्दीन का मकबरा व दरगाह को बनवा दिया गया। कमाल मौला मस्जिद के बगल में चार इस्लामी मकबरे और हैं। इनमें प्रमुख है कमालुद्दीन चिश्ती धारवी (1238-1330) की दरगाह, जिसको मालवा सल्तनत के दौरान बनवाया गया था। ध्यान रहे कि इन मस्जिदों दरगाहों का निर्माण भारतीय शिक्षा के प्रतिमानों और विरासतों पर हुआ है, बिलकुल वैसे ही जैसे विष्णु स्तम्भ का कुतुबमीनार में परिवर्तन कर पास के सत्ताईस हिन्दू और जैन मंदिरों को नष्ट कर दिल्ली में कुव्वत-उल-इस्लाम मसजिद बनवाई गई थी। मेरा स्पष्ट मानना है कि धार की भोजशाला का विध्वंस नालंदा विश्वविद्यालय के बख्तियार खिलजी द्वारा किए गए नाश जैसा ही पापपूर्ण और घृणित कार्य था। जिसके बाद सूफी सूफी की रट और उनके योगदानों की पाठ्यपुस्तकों में रेलमपेल, सोचिए कि क्यों है?
गंगा जमूनई तहजीब से गंगा को अलग जमुना को अलग कर के देखेंगे तो ही उस तहजीब को पाएंगे जिसका काम तोडऩा और कब्जा करना रहा है। यही राजा भोज की महान विरासत और विद्या के मंदिर के साथ हुआ है। मुसलमानों ने भारतीय शिक्षा संस्थानों को निर्दयता से नष्ट किया फिर वह चाहे खिलजी हो या औरंगजेब, थाली इनकी एक ही है चट्टे बट्टे अलग अलग दिखते हैं। वर्ष 1732 ई. में मुस्लिम शासन का अभिशाप कटा और धार की भूमि मराठों के अधीन हो गई। भोजशाला से मुसलमान दावे भी मराठा शासन के साथ साथ समाप्त हो गए थे।
जैसा कि वक्तव्य के आरंभ में मैंने बताया था कि धार नगरी में वर्ष 1875 में पुरातत्व विभाग के श्री के.के.लेले आदि को खुदाई करते हुए वाग्देवी की खण्डित की गयी जो प्रतिमा प्राप्त हुई थी उसे तत्कालीन भोपावर स्टेट के पोलिटिकल एजेंट मेजर किनकेड के द्वारा वर्ष 1880 ई. में लंदन ले जाया गया। वर्ष 1909 ई. में धार रियासत द्वारा एन्शीएंट मान्यूमेंटएक्ट को लागू कर भोजशाला को संरक्षित स्मारक घोषित कर दिया गया। वर्ष 1934 में इस स्थान पर अवैध कब्जे हटवा कर यहाँ भोजशाला नाम की पट्टिका धार प्रशासन द्वारा लगवा दी गई।
यहाँ पर इतिश्री हो जानी चाहिए थी लेकिन 1935 में अजमेर उर्स के दौरान मुसलमान उग्र हो गए और भोजशाला को कमाल मौला की मस्जिद बताते हुए उस पर अधिकार के लिए हिंसक प्रतिरोध पर उतारू हो गये। इससे डर कर दिनांक 24.08.1935 को धार राज्य के दीवान श्री नाडकर ने शुक्रवार को भोजशाला के भीतर ही मुसलमान समुदाय को नमाज पढने की अनुमति दे दी। इतना ही नहीं भोजशाला के मुख्य द्वार के बाहर बेतरतीब कब्रिस्तान पनपता रहा, भूमि का अतिक्रमण होता रहा और सबकुछ डंके की चोट पर। इतने से भी शांति नहीं थी तो 21 से 23 दिसंबर 1944 को कमालउद्दीन चिश्ती का पहला उर्स हुआ और इसे दंगे में परिवर्तित कर दिया गया।
धार नागरी के जागरूक नागरिकों के इस गुण्डागर्दी के विरोध में अपना स्वर उठाना आरंभ कर दिया था। वर्ष 1952 से इतिहास शोध, साक्ष्य संकलन के माध्यम से सनातन मान्यता ने अपनी विरासत पर दावा किया और भोज उत्सव मनाना आरंभ किया। भोजशाला में सरस्वती जन्मोत्सव की यह शुरुआत केशरीमल सेनापति, प्रेमप्रकाश खत्री, बसंतराव प्रधान, ताराचंद अग्रवाल आदि इतिहास के प्रति जागरुक नागरिकों ने की। 29 नवंबर 1952 को भोजशाला को भारतीय पुरातत्व विभाग द्वारा संरक्षित स्मारक घोषित कर दिया गया। 1988 को भोजशाला मे एक प्रतिमा पाई गई जो धार संग्रहालय को सौंप दी गई है। 1994 को सनातन मतावलंबियों ने भोजशाला पर अपना दावा प्रस्तुत करते हुए सभी घरों पर केसरिया ध्वज लहरा दिए।
वर्ष 1995 को शिवसेना के जिलाध्यक्ष द्वारा भोजशाला मे झण्डा फहराने का प्रयास किया गया जो प्रशासन ने नहीं होने दिया। फरवरी, 1995 को लगभग पचास व्यक्तियों के एक समूह ने भोजशाला में प्रवेश कर हनुमान चालीसा का पाठ किया। 23 अप्रैल 1995 को हिन्दू और मुस्लिम समुदायों के मध्य एक आम सहमति बनी कि शुक्रवार को मुसलमान नमाज पढ़ सकते हैं और मंगलवार को हिन्दू सुन्दरकांड का पाठ करेंगे। 11 अगस्त 1996 से 13 दिसंबर 1996 का समय घटनाप्रधान रहा, प्रतिबंधों के बाद भी मुस्लिम समुदाय ने दो बार अपने मृतकों के शवों को भोजशाला परिसर में दफनाया। दोनों ओर से पथराव की घटनाएं हुई और अनिश्चित काल के लिए कफ्र्यू लगा, उर्स को भी स्थगित करना पड़ा।
आंदोलनों का प्रतिफल था कि प्रशासन – भोजशाला के निकट के कब्रिस्तान को 9 मई 1997 को बंद करने का आदेश देना पड़ा। भोजशाला के भीतर ही एक कमरे में मुस्लिम समुदाय के एक व्यक्ति का अवैध कब्जा था, उससे प्रशासन ने कक्ष 12 मई 1997 को खाली करावा लिया गया। सोच कर देखिए कि यह जानते हुए भी कि यह स्थान देवी सरस्वती का आराधना स्थल भी माना जाता है, मांस मछली की दूकाने इस स्मारक के साथ लगा कर ही सजा करती थी, इसे भी 20 जनवरी 1997 को हटवाने के लिए प्रशासन बाध्य हुआ।
12 मई 1997 को ही प्रशासन द्वारा यह निर्णय लिया गया कि प्रति शुक्रवार दोपहर एक से तीन बजे तक मुस्लिम समुदाय के लोग नमाज पढ़ सकते है, प्रति वसंत पंचमी को हिन्दू समुदाय के लोग प्रार्थना कर सकते हैं शेष दिन यह स्थान संग्रहालय की तरह जन अवलोकनार्थ सशुल्क खोला जाएगा। विरासत सनातन योद्धा व अध्येता भोज की और साप्ताहिक प्रवेश का अधिकार मुसलमानों को जबकि हिंदुओं के लिए साल का केवल एक दिन? इस निर्णय पर पुरातत्व विभाग द्वारा 5 फरवरी 1998 को मुहर लगा दी गई, यह असंतुलित निर्णय था जिसमें प्राधिकारी को ही बेदखल कर दिया गया था इसलिए असंतोष बढ़ाना ही था।
आंदोलन उग्र होता गया विशेष रूप से वर्ष 2002 से 2003 के बीच आन्दोलन में लाठीचार्ज हुए, गोलियां चली, जाने गयीं। इस बीच रथयात्राएं निकाली गयीं और जैसे जैसे आवाज तीखी हुई प्रशासन को अपनी भूल समझ में आने लगी। 7 अप्रेल 2003 को हिंदुओं को प्रति मंगलवार सूर्योदय से सूर्यास्त तक नि:शुल्क प्रवेश व पूजा अर्चना की अनुमति प्राप्त हो गई। जो फूल चढ़े हमारे सर पर ही चढ़ें की मानसिकता से काजी मोईनुद्दीन ने इस अनुमति के विरोध में याचिका डाली जिसे खारिज कर दिया गया। वर्ष 2013 तथा 2016 में दोनों समुदायों के मध्य अत्यधिक तनाव की स्थिति निर्मित हुई थी जब वसंत पंचमी का दिवस शुक्रवार को पड़ा था। 12 फरवरी 2016 को तो पुलिस ने वसंत पंचमी पर दर्शन करने पहुंचे लोगों को दोपहर में जबरदस्ती बाहर निकाल दिया, इस दौरान लाठीचार्ज हुआ। बाद में पुलिस सुरक्षा में 25 लोगों को पुलिस वाहन में लाकर नमाज पढ़वाई गई। स्वाभाविक था कि यह कदम विवाद उत्पन्न करने वाला था।
इन घटनाक्रमों के दृष्टिगत यह महत्वपूर्ण है कि एएसआई सर्वेक्षण करें और अपनी रिपोर्ट प्रस्तुत करे। पूजा और नमाज के अधिकार पर तो बाद में निर्णय होता रहेगा, पहले यह तो साफ साफ सामने आ जाए कि राजा भोज की विरासत को कब क्यों और किसने नष्ट किया है? भोजशाला मैं स्वयं गया हूँ, मैंने अनेक यंत्रों, अभिलेखों, स्तंभों और देवी-देवताओं की आकृतियों को स्वयं देखा है और प्रथम दृष्टया ही यह साफ हो जाता है कि भोजशाला राजा भोज की ही विरासत है।
मैंने यह भी पाया कि अनेक प्रतिमाओं और आलेखों को स-प्रयास नष्ट करने का यत्न किया गया है जिससे की साक्ष्य मिट जाये। यदि भोजशाला का आप भ्रमण करेंगे तो स्तंभों पर की कई प्रतिमाओं को आप घिसा हुआ पाएंगे। यह एक मानसिकता है जिसे उजागर करना आवश्यक है। माननीय अदालत के आदेश पर हुए ए.एस.आई. सर्वेक्षण का हृदय से स्वागत और आभार, नीर क्षीर विवेक होगा यह हम जानते हैं। ध्यान रहे भोजशाला धार्मिक विषय है इसमें संदेह नहीं लेकिन उससे पहले यह इतिहास की थाती है इसलिए पूरा सच सामने आना ही चाहिए।
(लेखक एनएचपीसी में इंजीनियर तथा प्रसिद्ध लेखक हैं )