Wednesday, November 13, 2024
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भारत की अंतरिक्ष कूटनीति : सतत विकास और क्षेत्रीय सहयोग के लिए साझेदारी

भारत का लक्ष्य अंतरिक्ष के क्षेत्र में वैश्विक खिलाड़ी के रूप में अपनी भूमिका बढ़ाना है. इसके लिए वो सस्ती प्रौद्योगिकी और ग्लोबल साउश के देशों के साथ सहयोगात्मक प्रयासों के माध्यम से अंतरिक्ष तकनीकी में पहले क्षेत्रीय नेता और फिर वैश्विक ताक़त बनना चाहता है.

हाल ही में भारत ने 23 अगस्त 2024 को अपना पहला राष्ट्रीय अंतरिक्ष दिवस मनाया. इस कार्यक्रम की थीम थी ‘चांद पर जाकर ज़िंदगी को छूना: भारत की अंतरिक्ष गाथा’. भारत की अंतरिक्ष यात्रा एक ऐसे समय में सफल हो रही है, जब अंतर्राष्ट्रीय राजनयिक मंच पर अतंरिक्ष के क्षेत्र पर काफ़ी ध्यान केंद्रित किया जा रहा है. विश्व आर्थिक मंच (डब्ल्यूईएफ) के मुताबिक 2035 तक वैश्विक अंतरिक्ष अर्थव्यवस्था के 1.8 ट्रिलियन डॉलर तक पहुंचने की उम्मीद है, जो 2023 में 630 मिलियन डॉलर से कुछ ही ज़्यादा थी. अंतरिक्ष अर्थव्यवस्था कई उद्देश्यों को पूरा करती है, जैसे कि हमारे रोज़मर्रा के कामकाज को सुनिश्चित करने में सैटेलाइट्स की प्रमुखता बढ़ाना, आपदा का सामना करने की तैयारियों को लेकर मौसम की सटीक भविष्यवाणी, कृषि के लिए रिमोट सेंसिंग तकनीक, जल संसाधन प्रबंधन, शैक्षिक गतिविधियों को सुविधाजनक बनाना, टेलीमेडिसिन को बढ़ावा देना, और बड़े पैमाने पर सतत विकास और स्थिरता के नैरेटिव में योगदान देना.

भारत की अंतरिक्ष यात्रा एक ऐसे समय में सफल हो रही है, जब अंतर्राष्ट्रीय राजनयिक मंच पर अतंरिक्ष के क्षेत्र पर काफ़ी ध्यान केंद्रित किया जा रहा है.

बाहरी अंतरिक्ष क्षेत्र में मिलने वाली सफलता विकास साझेदारी के माध्यम से क्षमता निर्माण को बढ़ावा देती है. इतना ही नहीं इसकी मदद से सैन्यीकरण और प्रौद्योगिकियों का शस्त्रीकरण करके उन्नत देश अपने महत्वपूर्ण रणनीतिक उद्देश्यों को भी पूरा करते हैं. शायद ये साइबर युद्ध और क्षुद्रग्रहों (एस्टोरॉइड्स) और चंद्रमा जैसे खगोलीय पिंडों पर संसाधनों के खनन का परिणाम भी हो सकता है. इस लिहाज से देखें तो विकासशील देशों के लिए ये बात बहुत महत्वपूर्ण है कि वो भी अंतरिक्ष कूटनीति में शामिल हों.

इससे वो विदेश नीति के उद्देश्यों और अपने विकास लक्ष्यों को साकार कर सकेंगे. उन्हें भी घरेलू अंतरिक्ष क्षमताओं को बढ़ाने के लिए अंतरिक्ष विज्ञान और प्रौद्योगिकी का लाभ उठाने की कोशिश करनी चाहिए. इससे वैश्विक अंतरिक्ष कार्यक्रम में उनकी अपनी हिस्सेदारी भी बनी रहेगी. दरअसल, कमजोर आर्थिक स्थिति की वजह से विकासशील देशों के लिए अंतरिक्ष विज्ञान और प्रौद्योगिकी के क्षेत्र में निवेश और उसका विकास करना एक चुनौती है. हालांकि भारत के लिए, अपने दक्षिण एशियाई पड़ोसियों के साथ, अंतरिक्ष कूटनीति क्षेत्रवाद को बढ़ावा देने में मदद कर सकती है. इससे स्थिरता के एजेंडे को भी बढ़ावा मिलता है.

अंतरिक्ष प्रौद्योगिकी की वर्तमान स्थिति: ग्लोबल नॉर्थ बनाम ग्लोबल साउथ
बाहरी अंतरिक्ष से संबंधित मामलों की देखरेख और निगरानी करने के लिए दो अंतर्राष्ट्रीय निकाय बनाए गए हैं. ये हैं बाहरी अंतरिक्ष मामलों के लिए संयुक्त राष्ट्र कार्यालय (UNOOSA) और बाहरी अंतरिक्ष के शांतिपूर्ण उपयोग पर संयुक्त राष्ट्र समिति (COPUOS). इन दोनों संगठनों के काम और उनके फैसलों में स्थायी पांच देशों का बहुत ज़्यादा प्रभाव होता है. इन पांच में से चार देश ग्लोबल नॉर्थ से संबंधित हैं. इन संगठनों पर ग्लोबल नॉर्थ के प्रभाव और दबाव की वजह से बाहरी अंतरिक्ष के क्षेत्र में नवउपनिवेशवाद की चिंताएं पैदा होती हैं, क्योंकि अंतरिक्ष शोध में सच्चे ‘विजेता’ वो हैं, जिनके पास पहले से ही प्रभावित करने की शक्ति है और जिनकी आर्थिक क्षमताएं मज़बूत हैं.

उदाहरण के लिये अमेरिका की शीर्ष अंतरिक्ष संस्था, नेशनल एरोनॉटिक्स एंड स्पेस एडमिनिस्ट्रेशन (नासा) ने साल 2023 में साइकी नाम के एस्टोरॉइड का पता लगाने के लिये “साइकी” अंतरिक्ष यान लॉन्च किया, जो अद्वितीय धातुओं की दृष्टि से बहुत ज़्यादा समृद्ध है. ये संभावित रूप से अमेरिका को अपने फायदे के लिए एस्टोरॉइड के संसाधनों का खनन करने की मंजूरी देगा.

अंतरिक्ष कार्यक्रम को लेकर यूरोपीय संघ (ईयू) की वतर्मान में जो पहल चल रही है, उसे ‘कोपरनिकस’ कार्यक्रम कहा जाता है. इसका मुख्य काम सुरक्षा और निगरानी का है. इससे यूरोपीय संघ की सीमा की निगरानी, अवैध इमिग्रेशन का पता लगाने और महत्वपूर्ण बुनियादी ढांचे पर नज़र रखने में मदद मिलेगी.

अंतरिक्ष कार्यक्रम को लेकर यूरोपीय संघ (ईयू) की वतर्मान में जो पहल चल रही है, उसे ‘कोपरनिकस’ कार्यक्रम कहा जाता है. इसका मुख्य काम सुरक्षा और निगरानी का है. इससे यूरोपीय संघ की सीमा की निगरानी, अवैध इमिग्रेशन का पता लगाने और महत्वपूर्ण बुनियादी ढांचे पर नज़र रखने में मदद मिलेगी. हालांकि, इसके घोषणापत्र में इस बात का स्पष्ट रूप से उल्लेख नहीं किया गया है, लेकिन संघर्ष के समय कोपरनिकस का इस्तेमाल सैन्य निगरानी के लिए या फिर किसी तरह के ख़तरों के ख़िलाफ समय रहते कार्रवाई करने के लिए किया जा सकता है. चीन ने सह-कक्षीय एंटी-सैटेलाइट (ASAT) प्रौद्योगिकी का प्रदर्शन किया. ये ‘गैर-सहयोगात्मक’ लक्ष्यों से जुड़ सकता है. उन्हें अक्षम कर सकता है.यहां तक कि उन्हें नष्ट कर सकता है. ये भारत और बाहरी अंतरिक्ष में उसके रणनीतिक इरादे के लिए एक बड़ी चिंता का विषय है. ASAT के माध्यम से चीन की बढ़ती अंतरिक्ष शक्ति ने भारत को अपने हितों की रक्षा के लिए अंतरिक्ष शस्त्रीकरण प्रौद्योगिकियों में अपनी क्षमताओं में निवेश करने के लिए मजबूर किया है.

ग्लोबल नॉर्थ के देशों की मज़बूत आर्थिक स्थिति और अंतरिक्ष प्रौद्योगिकियों तक शुरुआती पहुंच के फायदे की वजह से उनके पास ग्लोबल साउथ के राष्ट्रों पर एक महत्वपूर्ण और निश्चित बढ़त है. वालरस्टीन के ‘कोर’, ‘अर्ध-परिधि’ और ‘परिधि’ देशों के लेंस के माध्यम से विकसित देशों ने “कोर” पर कब्जा कर लिया है. ऐसे में विकासशील देशों, जिनमें से अधिकांश को ‘परिधि’ के रूप में देखा जाता है, को अंतरिक्ष क्षेत्र में शोध के लिए खुद अवसरों का निर्माण करना चाहिए. इन देशों को लंबे समय में अंतरिक्ष कूटनीति के अपने लक्ष्य को आगे बढ़ाना चाहिए. इस संदर्भ में देखें तो बाहरी अंतरिक्ष शासन में अपनी जगह बनाने की कोशिश में ग्लोबल साउथ के देशों के बीच कई पहल हुई हैं. (तालिका-1)

इंडियन इंस्टीट्यूट ऑफ रिमोट सेंसिंग (आईआईआरएस) और एशिया और प्रशांत में संयुक्त राष्ट्र से संबद्ध अंतरिक्ष विज्ञान और प्रौद्योगिकी शिक्षा केंद्र (सीएसएसटीईएपी) के माध्यम से भारत विशेषज्ञता की सुविधा प्रदान करता है और सूचनाएं साझा करता है.

उन्नति (यूनिस्पेस नैनोसैटेलाइट असेंबली और ट्रेनिंग, UNNATI), भारतीय अंतरिक्ष अनुसंधान संगठन (इसरो) द्वारा संचालित नैनोसैटेलाइट के संयोजन और निर्माण का एक अंतर्राष्ट्रीय प्रशिक्षण कार्यक्रम है।

दक्षिण पूर्व एशिया में रिमोट सेंसिंग की सुविधा देने के लिए वियतनाम में भारत एक बड़े केंद्र का निर्माण कर रहा है. इस सेंटर से अंतरिक्ष-आधारित प्रणाली के संचालन की विश्वसनीय सुविधा दी जाएगी.

लैटिन अमेरिकी और कैरेबियाई देश
अमेरिका के साथ साझा सहयोग के माध्यम से, यूरोपीय अंतरिक्ष एजेंसी (ईएसए) ने इटली और अर्जेंटीना के साथ मिलकर कई सैटेलाइट लॉन्च किए हैं. इसके अलावा इसने चीन के साथ भी अपना सहयोग बढ़ाया है

महासागरों की निगरानी के लिए अर्जेंटीना और ब्राज़ील संयुक्त रूप से SABIA Mar सैटेलाइट बना रहे हैं.

इक्वाडोर, मैक्सिको और कोलंबिया के बीच LATCOSMOS-C कार्यक्रम का लक्ष्य लैटिन अमेरिका से पहला क्रू मिशन लॉन्च करना है. यानी इस कार्यक्रम के तहत अंतरिक्ष यात्री भेजने का लक्ष्य है.

अफ्रीका
मिस्र की अंतरिक्ष एजेंसी ने 50 से अधिक समझौतों पर हस्ताक्षर किए हैं. पृथ्वी के अवलोकन, रिमोट सेंसिंग और जल प्रबंधन पर ध्यान केंद्रित करते हुए उसने चीन, अमेरिका, कनाडा, यूरोपीय संघ और जापान के साथ संयुक्त सहयोगी तंत्र भी बनाए हैं.नाइजीरिया ने आपदा प्रबंधन तारामंडल और अफ्रीकी संसाधन प्रबंधन तारामंडल के हिस्से के रूप में सैटेलाइट भी लॉन्च किए हैं.दक्षिण अफ्रीकी अंतरिक्ष एजेंसी धीरे-धीरे भारत, फ्रांस, रूस और अन्य अफ्रीकी देशों के साथ सहयोग बढ़ा रही है.

दक्षिणपूर्व एशिया
वियतनाम ने भी अंतरिक्ष क्षमताओं का निर्माण किया है.  अंतरिक्ष सहयोग के क्षेत्र में वो जापान, इज़राइल और नीदरलैंड के साथ अपनी तकनीकी क्षमताओं का निर्माण कर रहा है.स्पेस टेक्नोलॉजी और एप्लीकेशन पर आसियान की उप-समिति (एससीओएसए) अंतरराष्ट्रीय संगठनों के साथ सहयोगात्मक अंतरिक्ष प्रौद्योगिकी अनुप्रयोगों, क्षमता निर्माण, तकनीकी के हस्तांतरण आदि के लिए आसियान देशों के बीच अंतरिक्ष सहयोग की सुविधा प्रदान करती है.
स्रोत: Namdeo & Vera, 2023

भारत की अंतरिक्ष कूटनीति
भारत समेत ज़्यादातर विकासशील देश अपने अंतरिक्ष कार्यक्रम के लिए,एक हद तक, पश्चिमी देशों या फिर चीन से उन्नत राष्ट्रों पर निर्भर हैं. इसके अलावा अंतरिक्ष की खोज संबंधित गतिविधियों में उनकी भागीदारी ‘डेटा एकत्र करने और संचारित करने’ के आस-पास घूमती है, जिससे इन देशों की आबादी के बीच कनेक्टिविटी बढ़ाई जा सके और इस तरह उन्हें भी विकास की सुविधा मिल सके. हालांकि भारत अब अंतरिक्ष कूटनीति को आगे बढ़ाने और सतत विकास को नए स्तर पर ले जाने की कोशिश कर रहा है. इससे ना सिर्फ भारत के स्पेस प्रोग्राम में प्रगति हो रही है, बल्कि ग्लोबल साउथ में अन्य देशों के विकास में भी मदद मिली है. उदाहरण के लिये भारत ने 2019 में नेटवर्क फॉर स्पेस ऑब्जेक्ट ट्रैकिंग एंड एनालिसिस (NETRA ) प्रोजेक्ट किया था.

ये स्पेस सिचुएशनल अवेयरनेस (एसएसए) प्रणाली मलबे और अन्य खतरों का पता लगाने के लिये बाहरी अंतरिक्ष में प्रारंभिक चेतावनी प्रदान करती है. इससे मिलने वाली जानकारी को अन्य विकासशील देशों के साथ साझा किया जा सकता है, जिससे उन्हें अपनी एसएसए पहलों में मदद मिल सके. भारत की कम लागत वाली और उचित प्रक्षेपण सेवाओं, विशेष रूप से इसरो के ध्रुवीय उपग्रह प्रक्षेपण यान (पीएसएलवी) ने अंतर्राष्ट्रीय समुदाय का ध्यान आकर्षित किया है. इसके अलावा, भारत के पास सक्रिय रिमोट सेंसिंग सैटेलाइट्स का सबसे बड़ा समूह है जो EOS-06 (2022) और EOS-07 (2023) जैसे पृथ्वी अवलोकन को प्राथमिकता देता है.
इन उपग्रहों से मिले डेटा का उपयोग कृषि, जल संसाधन और शहरी योजना जैसे क्षेत्रों में किया जा सकता है. बाहरी अंतरिक्ष में अपनी कूटनीति की पहल के हिस्से के रूप में भारत अपने क्षेत्रीय सहयोगियों और अन्य विकासशील देशों के साथ अपने विकास लक्ष्यों को सुविधाजनक बनाने के लिए ऐसी जानकारी साझा कर सकता है.

इसके अलावा, 2017 में इसरो ने साउथ एशिया सैटेलाइट (एसएएस) भी लॉन्च किया, जिसे GSAT-9 के रूप में भी जाना जाता है. ये एक जियोस्टेशनरी यानी भूस्थिर संचार उपग्रह है, जो “दक्षिण एशियाई देशों पर पर कवरेज़ के साथ KU-बैंड के तहत विभिन्न संचार अनुप्रयोगों को सुविधा प्रदान करता है. GSAT-9 की कुछ प्रमुख विशेषताओं में दूरदराज के क्षेत्रों में बेहतर बैंकिंग प्रणालियों और शिक्षा के लिए दूरसंचार संपर्क बढ़ाना शामिल है. इसके साथ ही GSAT-9 की मदद से उपयोगी प्राकृतिक संसाधनों का मानचित्रण, प्राकृतिक आपदाओं के लिए मौसम का पूर्वानुमान, स्वास्थ्य परामर्श और अन्य संबद्ध सेवाओं के लिए लोगों से लोगों के बीच संपर्क प्रदान करने जैसे सुविधाएं मिलती हैं.

भारत को स्पेस प्रोग्राम के विकास में एक प्रमुख क्षेत्रीय ताक़त और अंतरिक्ष कूटनीति में एक वैश्विक खिलाड़ी बनने के अपने प्राथमिक उद्देश्य पर नज़र बनाए रखनी चाहिए. इस संदर्भ में देखें तो पीएम मोदी द्वारा GSAT-9 को दक्षिण एशियाई क्षेत्र के लिए एक ‘उपहार’ बताना प्रासंगिक घोषणा है.

इससे स्पष्ट है कि सतत विकास लक्ष्यों (एसडीजी) को हासिल करने के लिए अपने पड़ोसी देशों के सामाजिक-आर्थिक विकास को सुविधाजनक बनाने का भारत का एजेंडा उल्लेखनीय है. फिर भी, भारत को स्पेस प्रोग्राम के विकास में एक प्रमुख क्षेत्रीय ताक़त और अंतरिक्ष कूटनीति में एक वैश्विक खिलाड़ी बनने के अपने प्राथमिक उद्देश्य पर नज़र बनाए रखनी चाहिए. इस संदर्भ में देखें तो पीएम मोदी द्वारा GSAT-9 को दक्षिण एशियाई क्षेत्र के लिए एक ‘उपहार’ बताना प्रासंगिक घोषणा है. ये शायद बाहरी अंतरिक्ष में क्षेत्रीय एकता और बड़े सहयोग की वकालत करने वाला भारत का सबसे मज़बूत संकेत भी था. इसके अलावा, हाल के बजटीय आवंटन में अंतरिक्ष विभाग के लिए 13,042.75 करोड़ रुपये का प्रावधान किया गया. ये पिछले वित्तीय वर्ष से 498.84 करोड़ रुपये अधिक है.
अब आगे क्या?
चूंकि कई विकासशील देशों, विशेष रूप से दक्षिण एशिया के देशों के पास, अपने खुद के अंतरिक्ष कार्यक्रमों और प्रौद्योगिकियों को विकसित करने के साधनों की कमी है, इसलिए ग्लोबल साउथ के लिए अंतरिक्ष कूटनीति चुनौतियों से भरी है. बड़े पैमाने पर पैसों की आवश्यकता के अलावा, कई विकासशील देशों की परस्पर विरोधी प्राथमिकताएं, अलग-अलग उद्देश्य और इस क्षेत्र की सीमित समझ है. स्वाभाविक रूप से, वैश्विक बहुसंकट और भू-राजनीतिक प्रवाह के कारण विकासशील देशों की अलग-अलग अंतरिक्ष कूटनीति प्राथमिकताओं के बीच तालमेल बनाना चुनौतीपूर्ण है. विशेषज्ञों का ये भी मानना है कि ग्लोबल साउथ के देशों में अंतरिक्ष कूटनीति पर राजनीतिक इच्छाशक्ति और स्पष्ट रणनीतिक या नीतिगत ढांचे की भी कमी है. इसकी वजह से इन देशों के बीच अंतरिक्ष सहयोग की पहल अस्थायी और अस्थिर होती है, जो कभी भी विफल हो सकती है.

इसके अलावा जब बात निवेश, तकनीकी कौशल, मानव संसाधन और नियामक तंत्र की आती है तो उन्नत देशों पर बहुत ज़्यादा निर्भरता होती है. इससे विकासशील देशों की संप्रभुता के अतिक्रमण और ऋण के जाल जैसे भू-राजनीतिक ख़तरे पैदा हो सकते हैं. इसकी वजह से लंबे समय में उनके फैसले लेने की शक्ति कम हो सकती है.

इस लिहाज से देखें तो सतत विकास पर ग्लोबल साउथ के एजेंडे को आगे बढ़ाने के लिये भारत की अंतरिक्ष पहल ज़रूरी हो जाती है, क्योंकि इससे कम लागत वाले विकासात्मक समाधानों को अहमियत मिलती है. अपनी G20 अध्यक्षता के हिस्से के रूप में भारत ने वॉयस ऑफ द ग्लोबल साउथ समिट के माध्यम से विकासशील देशों को एक मंच प्रदान करने की बात कही थी. ऐसे में अंतरिक्ष कूटनीति में भारत की पहल ना सिर्फ दक्षिण-दक्षिण सहयोग (SSC) बल्कि उत्तर-दक्षिण सहयोग को बढ़ावा देने की दिशा में एक उल्लेखनीय कदम है. भरत ने साथी विकासशील देशों के साथ अपने विकास के अनुभव को साझा करने का जो वादा किया है, वो ग्लोबल साउथ की अंतरिक्ष कूटनीति में अंतर को पाटने के लिए उपयोगी साबित हो सकता है. हालांकि इन देशों के बीच जो भू-राजनीतिक प्रतिद्वंद्विता है, वो बड़े स्थिरता के उद्देश्य को कमज़ोर करती है. फिर भी ये देखना दिलचस्प होगा कि भारत आने वाले वर्षों में अपनी अंतरिक्ष कूटनीति के माध्यम से क्षेत्रीय सहयोग को कैसे बढ़ावा देता है.

स्वाति प्रभु ऑब्ज़र्वर रिसर्च फाउंडेशन में एसोसिएट फेलो हैं
अरित्रा घोष ऑब्ज़र्वर रिसर्च फाउंडेशन में रिसर्च असिस्टेंट हैं

(चित्र सौजन्य से गेटी इमेज)
साभार-  orfonline.org/hindi से 

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