हिंदी के तमाम मूर्धन्य संपादक पत्रकारिता के किसी संस्थान या विश्वविद्यालय से प्रशिक्षित नहीं थे। किंतु वे अपने आप में प्रशिक्षण संस्थान थे। वे पूरे के पूरे पाठ्यक्रम थे और वे ही प्रयोगशाला थे। उनके भीतर अपने समाज को देखने और समझने की अचूक दृष्टि थी। इसलिए पत्रकारिता के पश्चिमी सिद्धांतों को रटने से कहीं ज्यादा आवश्यक भारतीय समाज के भीतर पत्रकारिता के स्वाभाविक विकास को समझना है। उसे समझने के लिए संपादकों की कहानी को जानना जरूरी है। उसमें सिद्धांत भी है, तकनीक भी है, उद्देश्य भी है और भविष्य के लिए प्रेरणाएं भी हैं। यह तभी संभव है जब स्वयं कोई मूर्धन्य संपादक यानी भीतर का अनुभवी व्यक्ति अपनी ज्येष्ठ पीढ़ी के मूर्धन्य संपादकों की कहानी बताए। यह मूल्यवान कार्य हिंदी के मूर्धन्य संपादक अच्युतानंद मिश्र ने अपनी सद्यः प्रकाशित पुस्तक ‘तीन श्रेष्ठ कवियों का हिंदी पत्रकारिता में अवदान’ में किया है। मिश्र जी ने जिन तीन श्रेष्ठ कवियों की पत्रकारिता की प्रामाणिक कहानी इस पुस्तक में लिखी है, वे हैं- सच्चिदानंद हीरानन्द वात्स्यायन ‘अज्ञेय’, रघुवीर सहाय और धर्मवीर भारती।
अच्युतानंद मिश्र ने पुस्तक के पहले अध्याय ‘साहित्य के तीन महानायक और पत्रकारिता’ में लिखा है कि स्वतंत्रता संग्राम के दौरान हिंदी साहित्य और हिंदी पत्रकारिता के बीच विभाजक रेखा अदृश्य थी। प्रस्तुति की शैली और अनुशासन अलग-अलग थे लेकिन दोनों के सामाजिक सरोकार, राष्ट्रभाषा हिंदी के प्रति निष्ठा और राष्ट्रीयता की दृष्टि समान थी। हिंदी गद्य के निर्माण में पत्रकारिता की महत्त्वपूर्ण भूमिका को सभी ने स्वीकार किया है। साहित्य की प्राचीनता और पत्रकारिता की आधुनिकता के बावजूद हिंदी की सांस्कृतिक विरासत और संपूर्ण शब्द संपदा दोनों की अविभाज्य धरोहर है। पौने दो सौ वर्ष के सहविकास का यह रिश्ता अटूट है। अपने दौर के श्रेष्ठतम साहित्य सर्जकों और संपादकों ने इतिहास के इस शानदार और गौरवपूर्ण अध्याय को साथ-साथ लिखा और जिया है। साहित्य के प्रति पूर्ण सम्मान के साथ ही यह स्वीकार करना पड़ेगा कि स्वतंत्रता प्राप्ति के युद्ध में लोक प्रतिबद्ध पत्रकारिता ने अपने सर्वस्व की आहुति दी थी। सैकड़ों पत्र-पत्रिकाएं और पत्रकारों ने अपना अस्तित्व दांव पर लगाकर सच लिखने, छापने और बोलने का जोखिम उठाया था।
अज्ञेय, रघुवीर सहाय और धर्मवीर भारती ने साहित्य के साथ हिंदी पत्रकारिता में भी सशक्त और सार्थक हस्तक्षेप किया। तीनों को साहित्य से भरपूर सम्मान और पत्रकारिता से अभूतपूर्व लोकप्रियता मिली थी। तीनों ने अपना-अपना साहित्यिक और पत्रकारीय लेखन लगभग साथ-साथ शुरू किया था। अज्ञेय ने ‘तारसप्तक’ और ‘प्रतीक’ के माध्यम से उस दौर के कवियों, लेखकों और पत्रकारों को पहचान दी थी। उनके सहयोगी के रूप में रघुवीर सहाय की प्रतिभा सामने आई थी। रघुवीर सहाय की पत्रकारिता 1947 में लखनऊ के दैनिक ‘नवजीवन’ के माध्यम से और डॉ. धर्मवीर भारती की पत्रकारिता 1948 में प्रयाग में ‘संगम’ के माध्यम से शुरू हो चुकी थी।
अच्युतानंद मिश्र लिखते हैं कि अज्ञेय, रघुवीर सहाय और धर्मवीर भारती पर स्वतंत्रता पूर्व के संपादकों की छाप थी। उनमें से कुछेक के साथ तीनों ने काम किया था और कई को नजदीक से काम करते हुए देखा था। साहित्य तीनों का पहला आकर्षण था। साहित्य की तरह ही संपादक के रूप में भी तीनों अपने पाठकों में अलग-अलग पहचान के साथ लोकप्रिय थे। तीनों के बीच लोकतंत्र, समाजवाद, व्यवस्था विरोध और हिंदी की अस्मिता निर्विवाद थी। हिंदी पत्रकारिता की भाषा गढ़ने में तीनों ने अपनी शैली में योगदान किया था। तीनों ने हिंदी के साथ भारतीय साहित्य और भाषाओं को प्रोत्साहित किया था। तीनों का फलक विशाल था। वे साहसी और प्रयोगधर्मी थे। भारतीय मनुष्य और मानवीयता उनके साहित्य और पत्रकारिता के केंद्र में थी। तीनों ने मौलिक लेखन के साथ-साथ अनुवाद के माध्यम से भी हिंदी को समृद्ध किया। तीनों को लेकर साहित्य में जो गुटबंदी या विवाद उछाले गए थे, उसकी छाया उनकी पत्रकारिता पर भी थी। लेखन और संपादन में तीनों अपने कथ्य और शिल्प को लेकर बेहद सजग थे। तीनों ने अपने दौर के चर्चित श्रेष्ठ साहित्यकारों से अपनी पत्रिकाओं में बार-बार लिखवाया और छापा। राजनेताओं से गहरे निजी रिश्तों के बावजूद वे राजनीति में नहीं गए। उनका चिंतन प्रगतिशील और आधुनिक था लेकिन वे मार्क्सवादी नहीं थे। उन पर मानवेन्द्रनाथ राय, राममनोहर लोहिया और जयप्रकाश नारायण की गहरी छाप थी। उनके आदर्श उदात्त थे। बिक्री और विज्ञापन बढ़ाने के लिए पत्रिकाओं को सस्ता बनाने के तीनों खिलाफ थे। उन्होंने अपने लेखकों, सहयोगियों और पाठकों की एक पूरी पीढ़ी को अपने ढंग से गढ़ने का काम किया था।
तीनों का नई पीढ़ी पर अद्भुत प्रभाव था। तीनों अपने पांडित्य से आक्रांत करने के बजाए अपने साहचर्य से एक नई स्फूर्ति देते थे। उस दौर के सैकड़ों लेखकों और हजारों प्रबुद्ध पाठकों को उन्होंने स्वयं पत्र लिखकर लेखन के लिए प्रेरित किया और सम्मान से छापा भी था। तीनों ने हिंदी क्षेत्र में मध्य वर्ग के बेचैन युवाओं को भाषाई स्वाभिमान, अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता और सांस्कृतिक पहचान दिलाने की पहल की थी। तीनों स्वप्नद्रष्टा भी थे और कर्मकठोर भी। तीनों ने बुद्धिजीवियों को उनकी निष्क्रियता तथा अकर्मण्यता पर जमकर लताड़ा है।
अच्युतानंद मिश्र ने तीनों मूर्धन्य संपादकों में समानता का वर्णन किया है तो उनके वैचारिक अंतर्विरोध को भी उजागर किया है। कहते हैं कि तीनों को उनके संचालकों ने प्रताड़ित और अपमानित किया था, लेकिन तीनों ने उसके विरुद्ध आवाज नहीं उठाई। प्रश्न है कि आजीविका के लिए मूल्यों के साथ समझौता किस सीमा तक होना चाहिए? जयप्रकाश नारायण को केंद्र में रखकर लिखी गई धर्मवीर भारती की प्रसिद्ध कविता ‘मुनादी’ का सबसे पहले ‘धर्मयुग’ में न छपना जैसे मुद्दों को लेकर आज भी सवाल उठाए जाते हैं।
इस पुस्तक का महत्व इसलिए है कि यहां पहली बार तीन श्रेष्ठ कवियों के पत्रकारीय अवदान को प्रकाश में लाया गया है। कृष्णबिहारी मिश्र ने इसे अनुशीलन का एक और गवाक्ष कहा है। यह भी रेखांकित करनेयोग्य है कि अच्युतानंद मिश्र ने तीनों श्रेष्ठ कवियों की रचनाओं और उनके द्वारा संपादित पत्र-पत्रिकाओं से गुजरकर, उस दौर के साक्षी रहे साहित्य चिंतकों, विद्वानों और पत्रकारिता के सहयोगियों से संवाद कर संपादक के रूप में उनका वस्तुपरक आकलन किया है। प्रामाणिकता इस पुस्तक की सबसे बड़ी पूंजी है।
अज्ञेय ही रहे ‘अज्ञेय’, रघुवीर सहाय ने पत्रकारिता को नई ऊर्जा दी, धर्मयुग और धर्मवीर भारती, संवादों और साक्षात्कारों के बीच अज्ञेय, अज्ञेय से त्रिलोकदीप की बातचीत, अज्ञेय से नरेश कौशिक की बातचीत, अज्ञेय से भारतभूषण अग्रवाल की बातचीत और जवाहरलाल कौल से अच्युतानंद मिश्र की बातचीत शीर्षक अध्याय भी पठनीय हैं। उन अध्यायों से पाठकों के सामने सामने एक नया परिप्रेक्ष्य खुलता दिखाई पड़ता है। उनमें विचार की कई बार एक नई कौंध मिलती है। यह विशेषता अच्युतानंद मिश्र की दूसरी पुस्तकों- ‘सरोकारों के दायरे’, ‘कुछ सपने, कुछ संस्मरण’, ‘पत्रों में समय-संस्कृति’, ‘हिंदी के प्रमुख समाचार पत्र और पत्रिकाएं’ (चार खंड) में भी विद्यमान है।
पुस्तक : तीन श्रेष्ठ कवियों का हिंदी पत्रकारिता में अवदान, लेखक : अच्युतानंद मिश्र, प्रकाशक : राष्ट्रीय पुस्तक न्यास, नई दिल्ली, पृष्ठ :172, मूल्य : 225 रुपए, संस्करण: 2024
(समीक्षक महात्मा गांधी अंतरराष्ट्रीय हिंदी विश्वविद्यालय, वर्धा में प्रोफेसर हैं)