आप राष्ट्रवादी हैं, आपको जेएनयू में हुए देशद्रोही प्रकरण से पीड़ा पहुँचती हैं तो तीन चार बातों से सावधान हो जाइए यह बातें पढ़े लिखे विद्वानो ने छेड़ी हैं मसलन
1) सरकार की आलोचना, देश द्रोह नहीं है
2) राष्ष्ट्रवाद की उनकी परिभाषा ‘their definition of nationalism’
3) आइडिया आफ इण्डिया
यह तीन तरह के बौद्धिक नरेटिव हैं जिनको आपको कंफ्यूज़ करने के लिए बोला जाता हैं।
आइडिया आफ इंडिया : जब तक़रीबन डेढ़ साल तक मोदी सरकार के तहत कोई साम्प्रदायिक घटना नही हुई तब इन लोगो से मोदी सरकार के कम्युनल होने का आरोप छिन गया. इन लोगो ने अपने विद्वानो से मिलकर सेमीनार शुरू किये जिसमे बात रखी जाने लगी की सरकार के द्वारा बहुलतावाद – प्लूरलिस्म खतरे में हैं. . जिसका माना हुआ की यह कत्ले आम तो नहीं करते पर विभिन्न धर्मों में भेदभाव करते हैं फिर उसके सप्पोर्ट में गंगाजमुनी ग़ज़ल नाटक सेमीनार की एक सीरीज तैयार कर दी। आयुष मंत्रालय पर लगा झूठे RTI का मसला जिसे पत्रकार सिद्धार्थ वरदराजन ने उठाया यह उसी कड़ी का हिस्सा हैं जिसमे भेदभाव का आरोप हैं।
राष्ष्ट्रवाद की उनकी परिभाषा : संपादक राजदीप सरदेसाई ने अपने ब्लॉग हाँ “मैं एंटी नेशनल हूँ ” से यह नरेटिव शुरू किया। इस नैरेटिव के जरिये उनके बुद्धिजीवी कहते हैं राष्ट्रवाद विदेशी कंसेप्ट हैं, नाजियों के द्वारा समर्थित कांसेप्ट हैं और भारत भी हिंदुत्ववादी अपने को राष्ट्रवादी कहते हैं हम हिन्दुत्ववादी नहीं सो नेशनलिस्म का उनका कांसेप्ट हमे मान्य नहीं। अब कोई यह समझाये की नेशनलिस्म की दो भिन्न परिभाषा नहीं हो सकते , लिबरल से लिबरल राष्ट्रवादी चाहकर भी प्रो निवेदिता मेनन की तरह कश्मीर के प्लेबीसाईट, सिक्किम – नागालैंड को कब्जाए जाने जैसे विवादित मुद्दे को नहीं रख सकते।
राष्ट्र की अक्षुणता के लिए संसद और सेना जो कदम उठाते हैं वो आम भारतीय के हित में ही होता हैं और आसफा जैसे कानूनो के वजह से ही ही राजदीप , मुख्यमंत्री उमर अब्दुल्ला के यहाँ कई बार कशमीर में सैर सपाटा करके आये हैं. Nationalism is nationalism and it cannot have two set of definition which they are trying to create. अभी बहुचर्चित टेलीग्राफ के सेमीनार में बरखा दत्त ने भी वही कहा ‘देयर आईडिया ऑफ़ नेशनलिस्म’ , अगर हम सब एक एडुकेश्नल करिकुलम से पढ़े हैं तो क्यों ना हम देयर एंड आवर नेशनलिस्म यानि हमारे और उनके राष्ट्रवाद पर एक राष्ट्रिय बहस चलायी जाय आखिर पता तो चले राष्ट्रवाद की यह दो धाराएं कहाँ अलग होती हैं।
डेफिनेशन में यह कन्फ्यूज़न जानबूझकर हैं इसके चलते भारत तेरे टुकड़े होंगे जैसे नारों के बारे में यह कहा जा रहा हैं की “अरे ! क्या हो गया चार पांच बच्चों ने कही कोई नारा दे दिया तो देश का क्या बिगड़ेगा। और बुद्धिमानो ने यह कह दिया की छात्र रिबेल विद्रोही होते हैं और लंदन की ऑक्सफोर्ड विश्विद्यालय में राजा से बगावत का किस्सा सुना दिया। नतीजा, इसका नतीजा यह निकला की देश के अंदर ऐसी हिम्मत पैदा कर दी जा रही हैं की मध्यप्रदेश पुलिस के डीएसपी कौल से गिरफ्तार सिमी के सदस्यों का वकील परवेज आलम पूछता हैं की पाकिस्तान जिंदाबाद का नारा लगाना कौन सा जुर्म हैं ?
सरकार की आलोचना, देश द्रोह नहीं है : जेएनयू प्रकरण के बाद जब राष्ट्रवादी हरकत में आये तो फिर बड़ी चालाकी से कहा जाने लगा अरे भाई सरकार की आलोचना हैं देश की नहीं जबकि सबने सूना था की उस जलसे में एक भी मोदी विरोधी नारा नहीं था सब भारत के विरोध में नारे थे Criticism of Govt of the day is not Anti-nationalism as they had tried to insert in narratives in defence of blatant misuse of Right to speech by Comrades in JNU. Everyone has seen they were not holding protest against Modi instead they were raising slogans against nation state ie. Bharat.कम से कम ‘नेशन स्टेट’ में राष्ट्रवादीयो की आस्था मार्क्स सरीखी नही हैं, मार्क्सिस्ट जब कहते हैं दुनिया के मजदूरों एक हो तो वे अंतराष्ट्रीय सीमाओं को नहीं मानने की शुरुआत ही हैं। इस्लाम में भी नेशन स्टेट का कंसेप्ट नहीं हैं वे भी बाउन्ड्रीलेस कैलिफेट की वकालत करते हैं। जेएनयू में हुआ नेशन स्टेट पर हमला तो राष्ट्रवाद पर हमला हैं जिसे उग्र वामपंथ के होनहारों के बाद प्रो निवेदिता मेनन ने भी स्पष्ट तौर पर रख दिया हैं।
यह लोग कौन हैं ?
यह लोग बड़ी आसानी से पहचाने जाते हैं यह वो लोग हैं जिन्हे मोदी सरकार घास नहीं डालती ,हम शुक्रगुजार हैं की विजय मलैया ने खुलकर इन लोगो को खिलाने पिलाने और ऐश करवाने की बात को रखकर सबको नंगा कर दिया हैं।
ये कोई भी हो सकते हैं यह विश्विद्यालय में वीसी बनने वाले हो सकते हैं, यूपीएससी में अधिकारियों की चयन समिति से निकाले गए हो सकते हैं , यह वैज्ञानिक हो सकते हैं जिनपर अब परफॉर्म काने का प्रेशर हो, यह नेहरू की भतीजी सरीखे इतिहासकार हो सकते हैं, यह कांग्रेस की सरकारों द्वारा सम्मानित कलाकार -कथाकार – भाषा विशेषज्ञ हो सकते हैं जिनकी अब सेटिंग से किताबे नहीं छप रही हो या लिटरेचर फेस्टिवल के नाम पर फंड नहीं मिल पा रहे हो, सरकारी मीडिया और पुरानी सरकार की तरफ झुके हुए प्राइवेट टीवी चैनलों के पेनलिस्ट हो सकते हैं , इनमे से कुछ फ्रीलांसर हो सकते हैं जिन्हे प्रशांत किशोर की तरह गुपचुप करोड़ो की डील में सोसियल मीडिया का प्रभार मिला हो मसलन तहलका जैसी विवादित पत्रिका के काफी सारे पिछली सरकार की तरफ झुके पत्रकार आजकल फ्रीलांसिंग करते हैं आदि आदि। सरकार की आलोचना कोई यूँ ही नहीं करता और जिसका पेट भरा हो वो तो बिलकुल ही नहीं करता उसका दिमाग चलता हैं और दिमाग लगाकर ही वो अपना स्टैंड रखता हैं।