ईरान में ख़त्म हो रहे साल के अंतिम मंगलवार को आग जलाकर मेवे अर्पित किए जाते हैं. अनाहिता, मित्रा, सौगंध, अनुष्का ये नाम सुनने में जितने हिंदुस्तानी लगते हैं, ठीक उतने ही ईरानी भी हैं. भारत और ईरान दोनों देशों में महिलाओं के इन नामों के उच्चारण और अर्थ बिल्कुल एक जैसे हैं. बेटी, बीज, और गीत अपने उद्गम से छिटककर बेगानी ज़मीन को भी खुशरंग बना देते हैं. ईरान और भारत में सिर्फ़ नामों की समानता ही नहीं है बल्कि कई त्योहार भी लगभग एक जैसे हैं. मसलन, पंजाब, हरियाणा और दिल्ली में मनाई जाने वाली लोहड़ी और ईरान का चहार-शंबे सूरी बिल्कुल एक जैसे त्योहार हैं. गीत और उल्लास जब सरहदें लांघते हैं, तो अपने बाहरी स्वरूप में ज़रा सा बदलाव लाकर त्योहार में तब्दील हो जाते हैं.
ख़त्म होते साल के आख़िरी मंगलवार की रात लोग अपने घरों के आगे अलाव जलाकर उसके ऊपर से कूदते हैं और अग्नि को पवित्र मानकर उसमें तिल, शक्कर और सूखे मेवे अर्पित करते हुए यह गीत गाते हैं-
ऐ आतिश-ए-मुक़द्दस! ज़रदी-ए-मन अज़ तू सुर्ख़ी-ए-तू अज़ मन इसका अर्थ है – हे पवित्र अग्नि! हमारा निस्तेज पीलापन तू हर ले, अपनी जीवंत लालिमा से हमें भर दे
यह ईरानी पर्वगीत ऋग्वेद की ऋचा की याद दिलाता है. यो अग्निं देववीतये हविष्माँ आविवासति, तस्मै पावक मृलय.
हरियाणा और पंजाब में ठीक इसी तर्ज पर लोहड़ी का पर्व जनवरी में मनाया जाता है. इस दिन अँधेरा होते ही आग जलाकर अग्निदेव की पूजा करते हुए तिल, गुड़, चावल और भुने हुए मक्के की आहुति दी जाती है.
बच्चे-बच्चियां घर-घर जाकर यह गीत गाकर लोहड़ी मांगते हैं:
सुंदरी मुंदरिए–हो तेरा कौन विचारा-हो दुल्ला भट्टी वाला-हो दुल्ले ने धी ब्याही-हो सेर शक्कर पाई-हो
इस गीत में लाहौर में रहने वाले मुसलमान वीर राय अब्दुल्लाह भट्टी (दुल्ला भट्टी) की शौर्यगाथा सुनाई जाती है. भट्टी को पंजाब का रॉबिनहुड भी कहा जाता है.
कहा जाता है कि दुल्ला भट्टी ने दो अनाथ हिंदू कन्याओं, सुंदरी-मुंदरी’ की मुग़ल सेनापति आसिफ़ खान से जबरन हो रही शादी रुकवाकर उनकी जान बचाई थी.
अब्दुल्ला भट्टी ने जंगल में आग जलाकर एक सेर शक्कर देकर दो हिंदू युवकों से उनका विवाह करवा दिया था.
ईरान और हिंदुस्तान का अग्नि पर्व यूँ तो नवऋतु का स्वागत और अग्नि की ऊर्जा से भर जाने की कामना है लेकिन इसमें अपनी स्थानीय परिवेश की विशिष्टताएँ भी शामिल होती हैं. यूँ तो ईरान एक इस्लामी देश है लेकिन उस समाज ने अपनी अतीत की संस्कृति से नाता नहीं तोड़ा और वहाँ अग्नि को सबसे श्रेष्ठ और पूजनीय माना जाता है. फिर भी वहाँ का इस्लामी धर्मतंत्र कुछ-कुछ दबे अंदाज़ में, आग से जलने के ख़तरे का बहाना बनाते हुए इस पर्व को संयम से मनाने की हिदायत देता है. इसी हिदायत की तर्ज़ पर ईरानी अख़बार इब्तेकार आग से न खेलने की नसीहत करते हुए लिखता है, “ऐसा न हो कि इस मंगलवार की रात आग के खेल-खेल में अपनी ज़िंदगी का खेल ख़त्म कर दें”.
लेकिन सत्ता शायद यह भी जानती है कि समाज के उल्लास पर पहरा बिठाना आग को हथकड़ी पहनाने जैसा है.
साभार- http://www.bbc.com/hindi/ से