विश्व गौरैया दिवस बीते अभी कुछ ही दिन बीते हैं। स्कूल-कॉलेजों से लेकर गैर सरकारी, सरकारी संस्थाओं ने गौरैया को बचाने के लिए कही घोसले बनाए गए तो कहीं रैलियां निकाली गईं लेकिन मेरठ में एक परिवार ऐसा भी जिसके लिए गौरैया को बचाना किसी मुहिम का हिस्सा नहीं है। उनकी नजर में घर में ची ची – चूं चूं करती गौरैया उनके घर को जीवंत रखता है। इसी सोच के साथ उन्होंने 15 साल पहले गौरैया के लिए आंगन में दाना-पानी रखना शुरू किया। पहले कुछ ही गौरैया आतीं थी लेकिन धीरे-धीरे संख्या बढ़ने लगी तो आंगन में ही अशोक का एक पेड़ भी लगा दिया। अब इस पेड़ पर हर रोज सुबह-शाम तीन से चार हजार गौरैया आती हैं। उनकी चहचहाहट से एक घर का आंगन नहीं पूरा मोहल्ला गूंजता रहता है।
जी हां, हम बात कर रहे हैं मोदीपुरम के भरत विहार शिवनगर मौहल्ले में रहने वाली श्रीमती चंपा शर्मा और उनके परिवार की। उनका कहना हैै कि उन्हें हमेशा से गौरैया घर का सदस्य ही लगीं। घर में आसपास बने रहने से उन्हें एक अजीब सी ऊर्जा मिलती थी। यही कारण है कि वह शुरू से उनके लिए आंगन में दाना-पानी रख देती थीं। धीरे-धीरे यह लगाव बढ़ता गया। इसी कारण करीब 15 साल पहले आंगन में अशोक का पेड़ लगाया था। अब तक वृक्ष बन चुका है और हजारों गौरैया का घर भी। हर रोज शाम ढले हजारों की संख्या में गौरैया की संगीतमई चहचहाहट ऐसे लगती है जैसे किसी संगीतकार ने कोई धुन छेड़ रखी हो।
श्रीमति चंपा के बेटे-बहू कल्लु पंडित और संतोष के साथ ही पोती छवि और पोता योगराज भी इस पेड़ की देखभाल में कभी पीछे नहीं रहे ताकि गौरैया का यह घर हमेशा बना रहे। कई बार बाज और अन्य बड़े पक्षी गौरैया पर हमला बोलते हैं लेकिन उन पर नजर रखते हैं और उन्हें पहले ही भगा देते हैं। चंपा कहती हैं कि गौरैया की चहचहाहट उन्हें भजन जैसा लगता है। वहीं उनके बेटे के मित्र प्रमोद भटनागर इसे कान्हा की बांसुरी से जोड़ते हैं। उनका कहना है कि गौरैया का यह घर पूरे मोहल्ले के लिए खास है।
अलग अलग हैं नाम
गौरैया को अलग-अलग क्षेत्रों में अलग-अलग नामों से बुलाया जाता है। हिन्दी भाषी क्षेत्र में इसका प्रचलित नाम गौरैया है। तमिल और मलयालम में इसे कुरुवी, तेलुगू में पिच्युका, कन्नड़ में गुब्बाच्ची, गुजराती में चकली, मराठी में चिमानी, पंजाबी में चिड़ी. बांग्ला में चराई पाखी, उड़िया में घर चटिया, सिंधी में झिरकी, उर्दू में चिड़िया और कश्मीरी में चेर कहा जाता है। कहीं-कहीं पर इसे गुड़रिया, गौरेलिया, खुसरा चिरई या बाम्हन चिरई भी कहा जाता है।
क्यों रूठी गौरैया
गौरैया के आंगन से दूर होने के पीछे सबसे बड़ा कारण पेड़ पौधों का कटना और हरियाली की कमी है। बढ़ते हुये शहरीकरण और कंक्रीट के जंगल ने गौरैया के रहने की जगह छीननी शुरू कर दी है। आज लोगों के आंगन में, घरों के आस-पास ऐसे घने पेड़ पौधे नहीं हैं जिन पर यह चिड़िया अपना आशियाना बना सके। न ही घरों में रोशनदान या छतों पर ही कोई ऐसी सुरक्षित जगहें हैं। घरों की खिड़कियों में लगे कूलर, रोशनदानों की जगह विण्डो एसी ने गौरैया के जीवन को और भी खतरे में डाल दिया है।