गुड़गाँव अब गुरुग्राम हो गया। देश में आज तक कितने ही नाम बदले जा चुके हैं। बैंगलोर, हुबली, शिमोगा, अब बैंगलूरू, हुब्बाली, शिवमोग्गा, कहलाते हैं। पश्चिम बंगाल भी ‘पश्चिम बंग’ तथा उड़ीसा अब ‘ओडिसा’ है। स्वतंत्रता-पूर्व भारत का कोई हिस्सा अब ऐसा नहीं, जो अब अंग्रेजों वाले समय के नाम से जाना जाता हो। तब क्या यह उचित नहीं कि देश का नाम भी सुधार लिया जाए? विदेशी आक्रांताओं और शासकों द्वारा थोपे या दिए गए नामों को हटा कर अपने सहज नाम अपनाने की प्रक्रिया स्वागत योग्य है। इस के पीछे अपनी सच्ची पहचान का महत्व समझने और उसी में गौरव की भावना है। पर दुःख की बात है कि स्वयं देश को इसी तरह संस्कारित नहीं किया जा सका है। हम छः दशक से ‘इंडिया’ रूपी विजातीय नाम ढोये जा रहे हैं जबकि कवि अज्ञेय ने बहुत पहले स्वतंत्र भारत के शासकों को इस का उलाहना दिया था। निस्संदेह, जिन नेताओं ने ‘त्रिवेन्द्रम’ को तिरुअनंतपुरम, अथवा ‘सेंट्रल असेंबली’ को लोक सभा, ‘कर्जन रोड’ को कस्तूरबा गाँधी मार्ग, या ‘कनॉट प्लेस’ को बदल कर राजीव चौक नामांकित करना जरूरी समझा – उन्हें सब से पहले ‘इंडिया’ शब्द बदलना चाहिए था। वह भी तब, जब कि भारत या भारतवर्ष शब्द यहाँ सभी भाषाओं में प्रयोग में रहा है। अतः इसे पुनर्स्थापित करने में किसी क्षेत्र को आपत्ति भी नहीं होगी। नहीं होनी चाहिए!
दरअसल, जिस कारण त्रिवेंद्रम, मद्रास, बोम्बे, कैलकटा, आदि बदला गया, वह देश के सही नामांकन के लिए और भी उपयुक्त है! क्योंकि इंडिया शब्द भारत पर ब्रिटेन के औपनिवेशिक शासन की सीधी याद दिलाता है। संभवतः किसी आधिकारिक नाम में ‘इंडिया’ शब्द का पहला प्रयोग ‘ईस्ट इंडिया कंपनी’ में हुआ था। जब वह व्यापार करने भारत आई थी तब यहाँ के लोग इसे भारतवर्ष या हिन्दुस्तान कहते थे। इसलिए, उस कंपनी और ब्रिटिश राज के खात्मे के बाद जरूरी था कि देश का नाम पुनर्स्थापित हो। अन्यथा इस का आशय क्या है?
यह केवल भावना की बात नहीं। नाम और शब्द का बड़ा महत्व होता है। पूरी दुनिया इस से अवगत हैं। शहरों, स्थानों के नाम बदलना सदैव एक सांस्कृतिक और प्रायः राजनीतिक महत्व रखता रहा है। इसीलिए कम्युनिस्ट राज खत्म होते ही रूस में लेनिनग्राड को पुनः पूर्ववत् सेंट पीटर्सबर्ग, स्तालिनग्राड को वोल्गोग्राद आदि किया गया। पोलैंड ने बदल कर पोलस्का किया। यहाँ तक कि ग्रेट ब्रिटेन को भी अपनी संज्ञा बदलकर यूनाइटेड किंगडम करना पड़ा।
इन परिवर्तनों में भावना से भी अधिक गहरे कारण रहे हैं। शब्द व नाम कितना महत्व रखते हैं, यह इस से भी समझें कि जो व्यक्ति मुहम्मदी बनते हैं, तो मुसलमान होते ही सब से पहले उन का नाम बदला जाता है। नाम से पूरी पहचान बनती बदलती है। यह भारतवासियों को समझाने की जरूरत नहीं, जहाँ नवजात शिशु के ‘नामकरण संस्कार’ का एक महत्वपूर्ण विधान ही प्राचीन काल से चला आ रहा है।
केवल व्यक्तियों की ही बात नहीं। समुदाय और राष्ट्र के लिए भी नाम का वही महत्व है। पचहत्तर वर्ष पहले यहीं जब मुस्लिम लीग ने अलग देश की माँग की और अंततः वह छीना, तो उस का नाम पाकिस्तान क्यों रखा? जैसा जर्मनी, कोरिया, यमन आदि के विभाजनों में हुआ था – पूर्वी जर्मनी, पश्चिमी जर्मनी तथा उत्तरी कोरिया, दक्षिणी कोरिया आदि जैसा – वे नए देश का नाम ‘पश्चिमी भारत’ या ‘पश्चिमी हिन्दुस्तान’ नाम रख सकते थे। पर उन्होंने बिलकुल अलग, मजहबी नाम रखा। इस के पीछे एक पहचान छोड़ने तथा दूसरी अपनाने की चाहत थी। खुद को मुगलों का उत्तराधिकारी मानते हुए भी उन्होंने मुगलिया शब्द ‘हिन्दुस्तान’ को भी नहीं अपनाया। क्यों?
इसलिए कि शब्द कोई निर्जीव वस्तु नहीं होते। हर शब्द किसी भाषा, समाज और संस्कृति की थाती होती है। कुछ शब्द अपने-आप में संग्रहालय होते हैं, जिस में किसी समाज की हजारों वर्ष पुरानी पंरपरा, स्मृति और ज्ञान संघनित रहता है। (भारत वैसा ही एक शब्द है!) अतः जब कोई एक भाषा या शब्द छोड़ता है तो जाने-अनजाने उस के पीछे की पूरी परंपरा छोड़ता है। इसीलिए श्रीलंका ने ‘सीलोन’ को त्याग कर औपनिवेशिक दासता के अवशेष से मुक्ति पाई। उसी प्रकार, मराठा लोगों ने ‘मुंबई’ अपना कर मुंबा देवी से जुड़ी अपनी भूमि को पुनः संस्कारित किया।
निस्संदेह, 1947 में हमारे राष्ट्रीय नेताओं से जो सब से बड़ी भूलें हुईं उन में से एक यह थी कि देश का नाम ‘इंडिया’ रहने दिया गया। टाइम्स ऑफ इंडिया के प्रसिद्ध, विद्वान संपादक गिरिलाल जैन ने सटीक लिखा था कि स्वतंत्र भारत में इस ‘एक शब्द ने भारी तबाही की’। यह उन्होंने इस्लामी समस्या के संदर्भ में कहा था। यदि देश का नाम भारत या हिन्दुस्तान हो जाता तो यहाँ के मुसलमान खुद को भारतीय मुसलमान या हिन्दुस्तानी मुसलमान कहते। इन्हें अरब देशों में अभी भी ‘हिन्दवी’ या ‘हिन्दू मुसलमान’ ही कहा जाता है। यूरोपीय भी सदैव भारतवासियों को ‘हिन्दू’ ही कहते रहे हैं और आज भी कहते हैं। यही हमारी वास्तविक पहचान है, जिस से मुसलमान भी जुड़े थे और जुड़े रहते, यदि हम ने अपना नाम सही कर लिया होता। हिन्दू या हिन्दवी शब्द में कोई अंतर नहीं है।
अतः यदि देश का नाम फिर भारत या हिन्दुस्तान हो जाए, तो यह हम सब को इस भूमि की संस्कृति, सभ्यता से स्वतः जोड़ता रहेगा। अन्यथा आज हमें अपनी ही थाती के बचाव के लिए उन मूढ़ रेडिकलों, ग्लोबल नागरिकों से बहस करनी पड़ती है जो हर विदेशी नारा हम पर थोपने और किसी न किसी विदेशी मतवाद का अनुचर बनाने में लगे रहते हैं। यदि देश का नाम भारत होता, तो भारतीयता से जुड़ने के लिए किसी से विनती नहीं करनी पड़ती! इसी अर्थ में इस एक शब्द – इंडिया – ने बड़ी तबाही की है। इस ने इंडियन और हिन्दू को अलग कर दिया। उस से भी बुरी बात यह हुई कि इस ने ‘इंडियन’ को हिन्दू से बड़ा बना दिया! यदि यह न हुआ होता तो आज सेक्यूलरिज्म, डाइवर्सिटी, इन्क्लूसिवनेस, आदि की लफ्फाजी करने वालों का काम इतना आसान न रहा होता।
ठीक इसीलिए, जैसे ही देश का नाम भारत या हिन्दुस्तान करने का प्रयास होगा, तय मानिए इस का सब से कड़ा विरोध यही सेक्यूलर-वामपंथी बुद्धिजीवी, एक्टिविस्ट और पत्रकार करेंगे। उन्हें ‘भारतीयता’ और ‘हिन्दू’ शब्द और इन के भाव से स्थाई शत्रुता है। इसीलिए चाहे उन्होंने कैलकटा, बांबे, बैंगलोर, आदि बदलने का विरोध न किया, पर इंडिया नाम बदलने के प्रस्ताव पर वे चुप नहीं बैठेंगे। यह इस का एक और प्रमाण होगा कि नामों के पीछे कितनी बड़ी सांस्कृतिक, राजनीतिक मनोभावनाएं रहती हैं!
इसलिए अच्छा रहे कि देश का नाम पुनर्स्थापित करने की माँग किसी तमिल, मराठी या मलयाली हस्ती की ओर से आए। वैसे भी, दिल्ली, उत्तर प्रदेश, बिहार के लोगों में सांस्कृतिक-राजनीतिक चेतना कुछ मंद है। इन में वैचारिक दासता, साम्राज्यवादी शासकों की दी हुई आपसी कलह, अविश्वास, भेद और क्षुद्र स्वार्थ अधिक गहरे हैं। वे बाहरी हमलावरों और साम्राज्यवादी, हिन्दू-विरोधी विचारों, रीतियों, आग्रहों के सामने झुक जाने, उन के दीन अनुकरण को ही ‘समन्वय’, ‘संगम’, ‘आधुनिक’, ‘वैज्ञानिक’ आदि बताते रहे हैं। इन में अपने सच्चे सांस्कृतिक अवलंब को पहचानने और अपनाने के बदले तरह-तरह के विदेशी नारों, नीतियों, नकलों, दुराशाओं पर निर्भर रहने की प्रवृत्ति है। इसीलिए उन में भारतवर्ष नाम की पुनर्स्थापना की कोई ललक या समझ भी आज तक नहीं आई। क्या एक गुजराती प्रधान मंत्री से हम यह आशा करें?
साभार- http://www.nayaindia.com/ से