Wednesday, December 25, 2024
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गाय पशु ही नहीं किसानों और कृषि भूमि के लिए वरदान भी है

वर्ष 1990 से पहले तक नेपाल में गो-हत्या को मनुष्य की हत्या के समकक्ष माना जाता था। मध्यप्रदेश के मुख्यमंत्री शिवराजसिंह चौहान और हरियाणा के मुख्यमंत्री मनोहरलाल खट्टर ने भारत में भी ऐसी ही नियम-प्रणाली अपनाए जाने की बात कही है। गृह मंत्री राजनाथ सिंह ने भी वादा किया है कि जल्द ही संपूर्ण भारत में गोहत्या पर प्रतिबंध लगा दिया जाएगा, अलबत्ता तब उन्हें कांग्रेस नेता दिग्विजय सिंह का समर्थन करना पड़ सकता है, जिन्होंने वर्ष 2003 में ही इस तरह के प्रतिबंध की मांग कर दी थी।
 
गो-संरक्षण का मामला हमेशा से ही राजनीतिक रूप से संवेदनशील रहा है। अधिकतर राजनीतिक दल इस मामले में लिबरल्स का साथ देने से कतराते हैं, क्योंकि लिबरल्स सोचते हैं कि गोवध पर प्रतिबंध व्यक्तिगत स्वतंत्रता का हनन और लोगों की खानपान की आजादी को नियंत्रित करने का प्रयास है। गो-संरक्षण के मसले पर सबसे उल्लेखनीय राजनीतिक आंदोलन वर्ष 1966 में हुआ था। गोवध पर प्रतिबंध की मांग को लेकर आक्रोशित भीड़ द्वारा संसद का घेराव किया गया था, जिसके परिणामस्वरूप राजधानी में 48 घंटों का कर्फ्यू लगाने की नौबत आ गई थी। तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने तब तो गोवध प्रतिबंध की मांग को खारिज कर दिया, लेकिन वर्ष 1982 तक वे इसका समर्थन करने लग गई थीं।
 
देश में कई ऐसे शहरी मांसाहारी हैं, जो बड़े मजे से मांस भक्षण कर सकते हैं, लेकिन जहां बात बीफ (गोमांस) खाने की आती है तो भले ही गायों को उन्होंने केवल कचरे के ढेर पर मंडराते हुए ही देखा हो, वे इससे बिदकते हैं। नेपाल में आज भी गोहत्या पर 12 साल के कारावास की सजा दी जाती है, लेकिन भैंसों को वहां बिना किसी हिचक के हलाक किया जाता है। पिछले साल गढ़ीमाई उत्सव के दौरान ही कोई पांच हजार भैंसों की बलि दी गई थी। गैरभारतीय लोग कभी इस बात को समझ नहीं पाते कि अगर भैंस और बकरी का मांस खाने में कोई बुराई नहीं है तो फिर गोमांस से इतनी हिचक क्यों? उन्हें अंदाजा नहीं कि भारतीय संस्कृति में गोवंश का क्या स्थान रहा है। गोमाता की छवि हिंदुओं के अवचेतन में गहरे तक पैठी हुई है।
 
इतिहासकार इस पर कई और दशकों तक बहस कर सकते हैं कि आखिर भारत में गोपूजा की परंपरा कब से शुरू हुई। लेकिन इतना तो तय है कि गोहत्या पर एक किस्म के धार्मिक-सांस्कृतिक प्रतिबंध के कारण ही भारत की कृषि-अर्थव्यवस्था की दुर्गति नहीं हुई। पश्चिम में गायों को केवल दूध और मांस के लिए पाला जाता है, लेकिन भारत में गाय के गोबर का भी बड़ा महत्व रहा है। वह कृषि में उर्वरक का काम करता है, उससे उपले-कंडे बनाए जाते हैं, जो गांवों में ईंधन का बड़ा स्रोत है, ग्रामीण घरों की लिपाई-पुताई गोबर से की जाती है। भारत में गायें कभी भी महज एक मवेशी नहीं रहीं। यहां तक कि सूखे और भुखमरी की स्थिति में भी लोग कभी अपनी गायों को मारकर नहीं खाते थे। हजारों सालों से गायें और बैल भारत की कृषि-आर्थिकी का अभिन्न् अंग रहे हैं।
 
लिहाजा, अगर धार्मिक भावनाओं और राजनीतिक तकाजों की बात न भी करें, तो क्या कृषि-आर्थिकी के दृष्टिकोण से भी गोहत्या को बढ़ावा दिया जाना चाहिए? आज हमारी कृषि-अर्थव्यवस्था अनेक तरह की समस्याओं का सामना कर रही है, मृदा का क्षरण हो रहा है, उपज घट रही है, एक तरफ उर्वरकों पर भारी सबसिडी दी जा रही है और दूसरी तरफ किसान लगातार आत्महत्या कर रहे हैं। ऐसा लग रहा है कि जैसे-जैसे हमारी ग्राम-अर्थव्यवस्था में गायों की भूमिका कम होती जा रही है, वैसे-वैसे ये तमाम समस्याएं भी बढ़ती जा रही हैं।
 
आधुनिक कृषि की सोच यह है कि गोवंश-केंद्रित कृषि के बजाय मशीनों, सिंथेटिक उर्वरकों और कोयला-पेट्रोलियम संबंधी ईंधनों का उपयोग किया जाए। वर्ष 1906 में तमिलनाडु के रानीपेट में पहली उर्वरक फैक्टरी खुली थी। तब रबींद्रनाथ टैगोर जैसे अनेक प्रभावी व्यक्तित्व कृषि में आधुनिक प्रयोगों, आयातित बीजों, उर्वरकों के प्रयोग की हिमायत कर रहे थे। 1940 के दशक में भारत में पहली बार ट्रैक्टर्स आयात किए गए। इन तमाम प्रयासों की परिणति 1960 के दशक में हरित क्रांति के रूप में हुई।
 
कृषि-कार्यों में गोवंश की भूमिका घटी तो अब उनका उपयोग केवल दुग्ध-उत्पादन के लिए किया जाने लगा। लिहाजा, संकर नस्ल की गायों की मांग बढ़ गई, जो ज्यादा से ज्यादा दूध का उत्पादन कर सकती थीं। इससे यह धारणा बनी कि भारत में गायों की तादाद जरूरत से ज्यादा बढ़ गई है और उनके लिए चारे की भी किल्लत होने लगी है। देशी गायों की उपेक्षा शुरू हुई तो श्रेष्ठ नस्ल के गोवंश की भी कमी होने लगी। वास्तव में, जैसे भारत के लोग अमेरिका जाकर बेहतर प्रदर्शन करते हैं, वैसे ही भारत द्वारा अमेरिका को निर्यात की गई गायों ने भी वहां पर बेहतर उत्पादन किया है!
 
आश्चर्य की बात है कि कृषि-वैज्ञानिकों ने कभी इस पर विचार ही नहीं किया कि गोबर के स्थान पर सिंथेटिक उर्वरकों का उपयोग करने से खेतों की मिट्टी पर क्या असर पड़ सकता है। हजारों सालों से भारतीय किसान अपने खेतों में गाय के गोबर का ही इस्तेमाल उर्वरक की तरह करते आ रहे थे। क्यों? क्योंकि शायद वे इस बात को कृषि-वैज्ञानिकों से बेहतर तरीके से समझते थे कि भारत की जैसी ऊष्णकटिबंधीय जलवायु है, उसके मद्देनजर हमारी मृदा का पारिस्थितिकी-तंत्र अन्य देशों से भिन्न् है और हमारी मिट्टी बहुत जल्द अपनी उर्वरता गंवा बैठती है। उर्वर मिट्टी के लिए जो जैविक तत्व आवश्यक होते हैं, वे हमारे यहां बहुत तेजी से क्षीण होते हैं। गायों का गोबर हजारों सालों से हमारे खेतों की जमीन को जैविक तत्व और उर्वरता प्रदान करता आ रहा था।
 
लेकिन चंद ही दशकों में हमने उस उर्वरता को गंवा दिया। सिंथेटिक उर्वरक मिट्टी को तीन प्रमुख पोषक तत्व तो प्रदान करता है, लेकिन वह उसे जैविक-कॉर्बन और माइक्रो-न्यूट्रिएंट्स नहीं प्रदान कर सकता। समय के साथ हमारे खेतों की मिट्टी की नमी धारण करने की क्षमता कम हुई है, उनके सूक्ष्म जैविक-तंत्र को क्षति पहुंची है और हमारे खेतों की मिट्टी मरती जा रही है। अब जब फिर से इसके लिए गोवंश की जरूरत महसूस की जाने लगी है तो हम पाते हैं कि देश में पर्याप्त मात्रा में गोवंश ही नहीं है। इसके लिए सरकार की नीतियों को भी जिम्मेदार ठहराया जा सकता है, जिनके चलते किसानों को गोवंश के पालन के लिए हतोत्साहित किया गया। जबकि गायों-बैलों को पालने का खर्चा कभी भी बहुत ज्यादा नहीं था और चारे-भूसे पर उनकी गुजर हो जाती थी। लेकिन अब चरनोई भूमि भी घटती जा रही है और गोवंश के पोषण का सवाल खड़ा हो गया है।
 
हो सकता है गोमांस पर प्रस्तावित प्रतिबंध के बावजूद हमारी ग्राम-अर्थव्यवस्था में गायों का वह स्थान पुन: कायम नहीं किया जा सके, जो कभी हुआ करता था, बशर्ते सरकार इस दिशा में नीतिगत तत्परता दिखाए। कृषि पर बड़े पैमाने पर दी जाने वाली सबसिडी का कुछ हिस्सा अगर गोवंश-पालन पर भी दिया जाए तो इससे खासी मदद मिल सकती है। स्थानीय परिस्थितियों के मद्देनजर गायों के साथ ही भैंसों के मांस पर प्रतिबंध लगाना भी मददगार साबित हो सकता है। विभिन्न राज्यों की भिन्न् परिस्थितियों के मद्देनजर यह राज्य सरकारों का ही जिम्मा है कि वे अपने यहां गोवंश-संरक्षण संबंधी कानून लागू करें।
 
(लेखिका पत्रकार हैं। ये उनके निजी विचार हैं)
 
साभार- दैनिक नईदुनिया से 

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