भारत देश का मौजूदा दौर कई परिवर्तनकारी क़दमों का हमराह बन रहा है। वह शिक्षा में गुणवत्ता का पहलू हो या स्वच्छ भारत के स्वप्न को साकार करने का सवाल, समयबद्ध परिणाममूलक काम की हिदायत हो या फिर जनता पर भरोसे को मज़बूत करने का ऐलान, तय है कि देश में नई बयार सी चल पड़ी है कि हम अपनी सोच बदलें,अपनी आदतें बदलें और बदलाव की खातिर अपनी सहभागिता को प्रभावी बनाएं। बहानेबाज़ी से बाज़ आएं। लगता है कि अभावों का रोना अब बीते दिनों की कहानी बन कर रह जाएगा। जो है उसे बेहतर बनाने और उसमें से सर्वोत्तम को खोज निकालने की मुहिम सी चल पड़ी है। यह काम से जी चुराने का नहीं, कुछ कर दिखाने का सबसे अच्छा कालखण्ड है। लिहाज़ा, समाज के हर वर्ग और व्यवस्था के प्रत्येक अंग को ज्यादा से ज्यादा सजग, सार्थक और उत्तरदायी बनाने की हरसंभव कोशिश परवान चढ़ रही है।
स्मार्ट सोच का मुकम्मल दौर
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नई कोशिशों को अंजाम देने की पारदर्शी सोच का एक ताज़ा उदाहरण है पी.एम. श्री नरेंद्र मोदी जी का गुवाहाटी में आला पुलिस अधिकारियों के कॉन्फ्रेंस में उठायी गई स्मार्ट पुलिसिंग की बात। उन्होंने स्मार्ट पुलिस का मंत्र दिया। साथ ही कहा कि फिल्मों की वजह से पुलिस की जो छवि बिगड़ी है, उसे बदले जाने की जरूरत है। उन्होंने गहन संवेदनशीलता का परिचय देते हुए पुलिसवालों के परिवारवालों की भलाई के लिए नई योजनाएं लाए जाने पर भी जाेर दिया। स्मार्ट पुलिस की ज़रूरतों को अंग्रेजी स्मार्ट शब्द के हवाले से अक्षरशः स्पष्ट करते हुए उन्होंने कहा कि पुलिस स्ट्रिक्ट (सख्त) भी हो और सेंसेटिव (संवेदनशील) भी हो। आज के समय की मांग है कि पुलिस बल मॉडर्न (आधुनिक) एंड मोबाइल (गतिमान), एलर्ट (सतर्क), अकाउंटेबल (जवाबदेह), रिलायबल (भरोसेमंद) और रिस्पॉन्सिबल (जिम्मेदार) होने के साथ ही टेक्नोसेवी (तकनीकी रूप से दक्ष) और ट्रेंड (कुशल) हो। इन पांच बिंदुओं पर आगे बढ़ें तो हम बहुत कुछ कर सकते हैं।
शस्त्र की जरूरत की नई पड़ताल
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कुछ और बातें काबिलेगौर हैं जिन्हें ध्यान में रखा जाना चाहिए। जैसे चाणक्य के वक्त से पढ़ते आए हैं कि जितना सामर्थ्य शस्त्र में होता है, उससे ज्यादा इस पर निर्भर करता है कि शस्त्र किसके पास है। राष्ट्र की सुरक्षा गुप्तचर तंत्र के सहारे ही चलती है। जिस व्यवस्था के पास उन्नत गुप्तचर हों, उसे न तो शस्त्र की जरूरत होती है और न ही शस्त्रधारी की। इस वजह से सबसे महत्वपूर्ण ईकाई गुप्तचर तंत्र होता है। इस क्षेत्र में सेवा करने वाले अधिकारियों को दिल से बधाई देता हूं। यहां हम बता दें कि कार्यक्रम की शुरुआत में खुफिया तंत्र में काम करने वाले अधिकारियों को सम्मानित किया गया।
पुलिस के बलिदान को सलाम
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पुलिस सेवा के त्याग और बलिदान को सम्मान देती हुई यह आवाज़ गूंजी – देश आजाद होने के बाद 33 हजार पुलिस के जवान देश की रक्षा के लिए शहीद हो गए। यह छोटी घटना नहीं है। लेकिन क्या पुलिस बेड़े के लोगों को पता है कि उनके 33 हजार लोगों ने नागरिकों की रक्षा के लिए प्राण दे दिए। सामान्य नागरिक को तो पता होने का सवाल ही नहीं उठता। यह बलिदान व्यर्थ नहीं जाना चाहिए। इस बलिदान के प्रति उदासीनता बढ़ती गई है। हम इस बलिदान की विरासत को हमारी प्रेरणा का कारण बनाना चाहते हैं। इसके लिए प्रोटोकॉल तय हों। शहीद पुलिसवालों के सम्मान के लिए व्यवस्था बने। सबसे ज्यादा तनाव पुलिसवाले झेलते हैं। अगर उसके परिवार में सुख शांति न हो तो वह ठीक से ड्यूटी नहीं कर पाएगा। यह सरकार और हम सबका दायित्व बनता है कि पुलिस वालों के परिवार वालों के लिए वेलफेयर की योजना चलायें। उदाहरण के तौर पर पुलिस वालों के परिवार वालों के लिए स्वास्थ्य, शिक्षा और अन्य जरूरतों पर अधिक से अधिक बल दें।
स्मृति दिवस की निरंतर परंपरा
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स्मरणीय है कि हर वर्ष पुलिस स्मृति दिवस (इक्कीस अक्तूबर) पर विभिन्न पुलिसबलों के सैकड़ों शहीद याद किए जाते हैं। एक ओर कर्तव्य-वेदी पर प्राणों की आहुति की वार्षिक रस्म-अदायगी देश की तमाम पुलिस यूनिटों में हो रही होती है और दूसरी ओर पुलिस की छवि को लेकर भारतीय समाज में मिश्रित कुंठाएं भी ज्यों की त्यों बनी रहती हैं। पुलिस की पेशेवर क्षमता को लेकर जन-मानस में धारणा रही है, बेशक अतिरेकी कि पुलिस चाहे तो कैसा भी अपराध रोक दे और किसी भी तरह की अव्यवस्था पर काबू पा ले। ऐसी सकारात्मक लोक-छवि और अनवरत बलिदानी परंपरा के बावजूद, संवैधानिक मूल्यों पर खरी उतरने वाली नागरिक-संवेदी पुलिस का मॉडल भारतीय लोकतंत्र नहीं गढ़ पाया है।
नागरिक संवेदी स्मार्ट पुलिस
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याद रखें कि माननीय सर्वोच्च न्यायालय का पुलिस सुधार मुख्यत: स्वायत्तता, जवाबदेही और लोकोन्मुखता के पांच बिंदुओं पर केंद्रित है जिसमें यह भी कहा गया कि हर राज्य नए सिरे से लोकोन्मुख पुलिस अधिनियम बनाए। साफ है कि असल सवाल है पुलिस के नागरिक-संवेदी होने का। बेशक लोकतांत्रिक प्रणाली में राजनीतिक सत्ता का पूर्ण नकार न संभव है और हमें यह भी समझना चाहिए कि लोकतांत्रिक पुलिस सुधार का क्रियाशील आधार सशक्त समाज ही हो सकता है, न कि समाज-निरपेक्ष पुलिस स्वायत्तता। एक संवेदी और लोकोन्मुख कानून-व्यवस्था, पुलिस के वर्तमान कामकाजी संबंधों के अंतर्गत ही, प्रशासनिक सुधारों के माध्यम से हासिल कर पाना संभव नहीं होगा। दुनिया का यही सबक है- मजबूत समाज अपनी पुलिस की इज्जत करता है और उसे सहयोग देता है; कमजोर समाज पुलिस को अविश्वास से देखता है और प्राय: उसे अपने विरोध में खड़ा पाता है।
इस तरह स्मार्ट पुलिस होगी एक संवेदी और लोकतांत्रिक पुलिस। लेकिन जन सहयोग का भी स्मार्ट होना जरूरी है। स्मार्ट जनता और स्मार्ट पुलिस, स्मार्ट नागरिक और स्मार्ट प्रशासन, स्मार्ट मतदाता और स्मार्ट जन सेवक जैसी कारगर जुगलबंदी हो जाये तो फ़िज़ा ही बदल जाएगी।
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लेखक दिग्विजय कालेज में प्रोफ़ेसर हैं।
मो.9301054300