मेरा जन्म मुंबई के इसाई परिवार में 8 मई 1964 में हुआ, माता जी का नाम श्रीमती रोजी डिसूजा,पिताजी जॉन डिसूजा है। मेरा माइकल जान डेसूजा, माता-पिता का जेष्ठ पुत्र हूं। मेरी बहन श्रीमती हिल्डा और भाई श्री हेनरी हैं। बचपन से मैं अपने परिवार के साथ हर रविवार को चर्च जाता था। चर्च के पादरी के उपदेश आदि सुनता था। बाइबल का उनके द्वारा निर्देशित स्वाध्याय भी करता था। एक सामान्य इसाई के समान मेरा जीवन था। 12वीं तक पढ़ाई करके मैंने दो वर्ष आईटीआई से तकनीकी शिक्षा ग्रहण की। इसाई त्योहारो आदि में मै सक्रिय रूप से भाग लेता था। पर धीरे-धीरे बाइबल पढ़कर मैं असंतुष्ट रहने लगा।
बाइबल में दिए अनेक उपदेशों पर मुझे शंका होने लगी । मैंने चर्च के पादरी से उन सब शंकाओं का समाधान करना चाहा पर वह मुझे संतुष्ट नहीं कर सके। उनकी सलाह से स्थानीय पुस्तकालय से अन्य पुस्तकें लेकर पढ़ना आरंभ किया। इसी प्रक्रिया में मुझे भारत और यूरोप में चर्च के इतिहास की जानकारी मिली। मैने जब अनंत वायरलकर की गोवा इन्कुइसिशन पुस्तक को पढ़ा कि कैसे पुर्तगाल से आकर गोवा में सेंट फ्रांसिस जेवियर ने स्थानीय हिंदुओं पर अनेक अत्याचार कर उन्हें जबरन इसाई बनाया तो मुझे इसाई होते हुए भी अच्छा नहीं लगा। जब मैंने पढ़ा कि वास्कोडिगामा ने व्यापार की आड़ में कैसे भीषण कत्लेआम किया था तो मुझे विदेशियों के व्यवहार पर शंका होने लगी कि क्या एक मानव को दूसरे मानव के साथ ऐसा व्यवहार करना चाहिए ?
छल, कपट से धर्म परिवर्तन करवाना मुझे महा पाप जैसा लगा । दक्षिण भारत में रॉबर्ट दी नोबेली ने पंचम वेद का स्वांग कर अपने आप को रोम से आया ब्राह्मण कहकर भोले भाले ग्रामीण लोगों को जिस प्रकार से इसाई बनाया, वह पढ़कर तो मुझे ऐसा प्रतीत हुआ कि क्या इसाइयत के सिद्धांत अंदर से इतने कमजोर हैं जो उसे सत्य मार्ग के स्थान पर छल, कपट, दबाव, हिंसा, झूठ, धोखा, ढोंग, धन प्रलोभन आदि का सहारा लेना पड़ता है? मेरा इसाइयत से विश्वास उठने लगा, मैं सत्य अन्वेषी बनाकर गृह त्याग कर विभिन्न मतों में जाकर उनकी विचारधारा का विश्लेषण करने लगा पर मेरी मंजिल अभी दूर थी।
पवई, मुंबई में मेरे पड़ोस में आर्यवीर दल का एक कैंप लगा। उस कैंप में छोटे-छोटे बच्चों को वैदिक विचारधारा और शारीरिक श्रम करने की ट्रेनिंग दी जा रहे थी। मैं भी देखने चला गया, वहां मेरा परिचय शिक्षक ब्रह्मचारी सुरेंद्र जी तथा श्री ओम प्रकाश आर्य जी से हुआ। उनके साथ मैंने परस्पर संवाद कर अपनी शंकाओं का समाधान किया जिससे मुझे अपूर्व संतोष मिला। ऐसा लगा चिरकाल से बहती मेरी नाव को किनारा मिल गया। उनकी प्रेरणा से मैं विधिपूर्वक यज्ञोपवीत धारण किया और आजीवन ब्रह्मचारी रहने का व्रत लिया। उन्होंने मेरा नया नामकरण ब्रह्मचारी अरुण आर्यवीर के नाम से किया और मुझे स्वामी दयानंद लिखित सत्यार्थ प्रकाश पढ़ने की प्रेरणा दी। सत्यार्थ प्रकाश पढ़कर मुझे मेरे जीवन का उद्देश्य मिल गया। स्वामी दयानंद के ज्ञान रूपी सागर में डुबकी लगाकर में तृप्त हो गया। आर्य समाज के माध्यम से मेरा वैदिक धर्म में प्रवेश स्वेच्छा से हुआ। मैं जब वैदिक धर्म के सार्वभौमिक सिद्धांतों की तुलना ईसाई आदि मत मदांतर की मान्यताओं से की तो उन्हें सभी के लिए अनुकूल और ग्रहण करने योग्य पाया।
हर मत-मतांतर की धर्म पुस्तक में आपको कुछ अच्छी बातें मिलती हैं। परंतु जो ज्ञान वैदिक धर्म की पुस्तकों में मिलता है, उसकी कोई तुलना नहीं है। सत्यार्थ प्रकाश के तेरहवें समुल्लास में ईसाई मत समीक्षा पढ़कर मेरे बाइबल संबंधित सभी संशयों की निवृत्ति हो गई।
इस पुस्तक के प्रशासन में डॉक्टर मदन मोहन जी, रिटायर प्रोफेसर फिजियोलॉजी, मेडिकल कॉलेज पांडिचेरी ने न केवल आर्थिक सहयोग प्रदान किया है अपितु पुस्तक के प्रूफ करने में भी यथोचित सहयोग दिया है। मैं उनका करबद्ध अभारी हूं ।
मैं इस कृपा के लिए सर्वप्रथम परमपिता परमेश्वर को धन्यवाद देना चाहूंगा जिनकी मुझ पर यही बड़ी कृपा हुई। अन्यथा जाने कितने जन्मों तक अविद्या रूपी अंधकार में भटकता रहता। मैं भी संभवतः ईसाई पादरियों के समान भोले भाले लोगों को ईसा मसीह की भेड़ बनाने के कार्य में लगा रहता । मैंने इन वर्षों में अपने स्वाध्याय से जो बाइबिल का ज्ञान अर्जित किया था उसे निष्पक्ष पाठकों के लिए इस पुस्तक के माध्यम से मैं संकलित कर प्रस्तुत कर रहा हूँ, वर्तमान में मैं आर्य समाज का प्रचारक हूं और विभिन्न माध्यमों से वैदिक विचारधारा का प्रचार प्रसार करता हूं । इस पुस्तक को पढ़कर लोग इस ईसाईयत के जंजाल से मुक्त होकर वैदिक पथ के पथिक बने, यही ईश्वर से प्रार्थना है। अरुण आर्यवीर ( पूर्व नाम माइकल जॉन डिसूजा)