नई सदी में भारत का मीडिया परिदृश्य जिस तेजी से बदल रहा है मीडिया के प्रति आम लोगों की धारणा भी उसी रफ़्तार से बदलती जा रही है. सामाजिक सरोकारों से सीधे जुड़े मीडिया की घटती साख खुद मीडिया से जुड़े लोगों के लिये चिंता का एक बड़ा कारण बनी हुई है. समय समय पर इस सिलसिले में आयोजित होने वाले मीडिया सम्मेलनों, गोष्ठियों, सेमिनारों के विचार विमर्श से जो सार निकलकर सामने आ रहा है उसमे इन विकृतियों के लिये कहीं न कहीं मीडिया शिक्षा की खामियां भी रेखांकित हो रही हैं. मीडिया शिक्षा को और अधिक वस्तुनिष्ठ तथा मूल्य परक बनाने की आवश्यकता को स्वयं मीडिया शिक्षा संस्थानों के शीर्ष नेतृत्व बगैर किसी हिचक के स्वीकार रहे हैं.
समय का यही कालखंड एक ऐसा गति अवरोधक है जो मीडिया शिक्षा के प्रसार की अंधाधुंध रफ़्तार पर ब्रेक लगाकर उसे खतरनाक मोड़ से सुरक्षित ढंग से घाट सेक्शन पार करा सकता है. *मीडिया शिक्षा के मसले पर गंभीर चिंतन-मनन और आत्मावलोकन की कवायद के बीच हाल में पत्रकार संदीप कुलश्रेष्ठ की नई किताब ‘भारत में प्रिंट, इलेक्ट्रानिक और न्यू मीडिया’ शीर्षक से छपकर आई है. पुस्तक मीडिया के विभिन्न शैक्षणिक पाठ्यक्रमों की जरुरत पूरा करने के अलावा देश में मीडिया के बदलते परिदृश्य को भी बखूबी टटोलती है.
संदीप कुलश्रेष्ठ पिछले ढाई तीन दशक से महाकाल की नगरी उज्जैन में पत्रकारिता का जाना पहचाना नाम और चेहरा है. पत्रकारिता और जनसंचार में स्नातकोत्तर संदीप विधि स्नातक हैं और दो दशक तक उज्जयिनी जिला शतरंज संघ शतरंज के अध्यक्ष भी रहे हैं. 1990 में उन्होंने खुद का अखबार ‘लोकनब्ज’ निकालना शुरू किया. कालान्तर में आजतक और दूरदर्शन संवाददाता के बतौर उनकी ढेरों रिपोर्ट लोगों ने टीवी पर देखी है. करीब एक दशक पहले उन्होंने उज्जैन का पहला न्यूज़ पोर्टल ‘दस्तक न्यूज़ डॉटकॉम’ प्रारंभ किया जिस पर चहलकदमी करनेवालों की तादाद ढाई करोड़ से भी ऊपर पहुँचने का दावा किया जा रहा है. गोयाकि नई तकनीक से सदैव तालमेल बैठाकर प्रिंट, इलेक्ट्रानिक और न्यू मीडिया में सतत सक्रिय संदीप कुलश्रेष्ठ ने अपनी प्रतिभा, व्यवहार कुशलता और प्रतिबद्धता से हर दौर में स्वयं को श्रेष्ठ साबित किया है.
पुस्तक परिचय (ब्लर्ब) में जाने माने पत्रकार और राज्यसभा टीवी के कार्यकारी निदेशक रह चुके *राजेश बादल ने बड़े पते की बात लिखी है- “कल तक भारत में जिस मीडिया को पूर्णकालिक आमदनी का जरिया नहीं माना जाता था, आज वही दुनिया की सबसे बड़ी मीडिया इंडस्ट्री बन गया है. अपने आप में यह एक चमत्कार से कम नहीं है. प्रिंट, ब्रॉडकास्ट, टेलीविजन हो या फिर सोशल मीडिया; तकरीबन सभी विधाओं का विस्तार मायावी ढंग से हुआ है. लेकिन बेरोजगारी तथा मीडिया के प्रबल आकर्षण से खिंचे चले आ रहे युवाओं को तराशकर अच्छे मीडियाकर्मी में बदलने वाली टकसाल का अकाल है. नए पेशेवरों के लिये संदीप की यह किताब ज्ञान के अनूठे झरने की तरह है.”
पुस्तक के आठ खण्डों में लेखक ने पत्रकारिता और संचार माध्यमों के इतिहास, विकास यात्रा और बदलते स्वरुप को समेटते हुए कई प्रासंगिक मुद्दों का सटीक विश्लेषण किया है. पुस्तक के अंतिम खंड में लेखक ने जिस बेबाकी से मीडिया के सामाजिक दायित्व और जनमत तैयार करने में उसकी प्रभावी भूमिका के सतही और व्यावसायिक होते चले जाने की पड़ताल की है वह दायित्वबोध जगानेवाली है. पत्रकारिता का विकृत स्वरुप शीर्षकीय विश्लेषण में अनुचित कार्यप्रणाली, सर्क्युलेशन की होड़, अशोभनीय भाषा, अनुचित लाभ, छवि निर्माण, अवैध वसूली, विज्ञापनों के लिये दबाव सरीखे सामयिक बिन्दुओं पर कड़वे यथार्थ की अभिव्यक्ति विचारोत्तेजक है. पत्रकारिता से जुड़ी संवैधानिक एवं क़ानूनी मर्यादाओं का खुलासा नई दिल्ली के प्रतिभा प्रतिष्ठान द्वारा प्रकाशित दो सौ पृष्ठ व चार सौ रुपये मूल्य की पुस्तक की अहमियत बढ़ानेवाला है.