पिछले साल दशहरे के मौके पर संघ प्रमुख मोहन भागवत ने देश में हजारों साल से चली आ रही एक बड़ी बीमारी को खत्म करने की दिशा में कदम उठाने का इशारा किया था, ये बीमारी थी जाति प्रथा की, छुआछूत की। इस बार नागपुर में प्रतिनिधि सभा की बैठक में इस पर चर्चा हुई और एक ठोस रणनीति तैयार की गई। संघ का मकसद अगले तीन साल में देश से छूआछूत खत्म करने का है। इसके लिए संघ ने नारा दिया है एक कुआं, एक मंदिर और एक श्मशान का। संघ का ये मिशन वीएचपी के साथ मिलकर पूरा किया जाएगा। ये रणनीति वीएचपी के विजन डाक्यूमेंट 2025 का हिस्सा भी है।
राष्ट्रीय स्वंय सेवक संघ या आरएसएस जिसे दुनिया का सबसे बड़ा संगठन कहा जाता है। जिसके कार्यकर्ताओं की संख्या कभी सामने नहीं आती, लेकिन उसके नेटवर्क को मात देना लगभग नामुमकिन है, वो संगठन जो खामोश रहकर भी सरकार और बीजेपी में अपनी धमक दिखाता है, अक्सर दशा-दिशा तय करता है। वो संघ इस देश को खासकर हिंदुओं को जाति प्रथा से मुक्त करवाना चाहता है।
हिंदुओं को एकजुट करने के लिए संघ ने एक ब्रह्मवाक्य तैयार किया है, एक कुआं, एक मंदिर और एक श्मशान भूमि। इस ब्रहास्त्र को चलाकर संघ का इरादा जाति व्यवस्था को खत्म करने का है। हिंदू धर्म में आस्था रखने वालों को एकजुट करने का है। यही नहीं, इसके जरिए संघ फिर से उन लोगों को हिंदू धर्म में लाना चाहता है जिन्होंने कोई और धर्म स्वीकार कर लिया है।
जाहिर है मनु ने भी समाज को जिन वर्गों में बांटा था, वो वर्ग भले ही अपने कर्मों के हिसाब से बंटे लेकिन जाति व्यवस्था की गहरी नींव ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य, शूद्र डाल गए। और सदियों से ही हिंदू धर्म की जाति व्यवस्था से तंग होकर लोग सामाजिक सम्मान की खातिर दूसरे धर्म अपनाते रहे हैं। संघ नहीं चाहता कि अब ऐसा हो, वो नहीं चाहता कि हिंदू धर्म लोग सिर्फ इस आधार पर त्याग दें कि इस धर्म में छूआछात, निचली-अगणी जाति और जातियों की व्यवस्था है। भारत की हकीकत यही है कि आज भी तमाम इलाकों में कुछ इंसान हर कुएं से पानी नहीं पी सकते, मंदिर में प्रवेश नहीं कर सकते और हर श्मशान भूमि में अंतिम संस्कार भी नहीं करवा सकते, सिर्फ इसलिए क्योंकि वो ऊंची जाति के नहीं हैं, आज भी इस मुल्क में अगणी जाति के लोग निचली जातियों पर हुक्म चलाना अपना बुनियादी अधिकार समझते हैं। इसीलिए संघ का मकसद है कि गांव-गली, मोहल्लों में हिंदुओं के पानी पीने का एक ही ठिकाना हो, एक ही कुआं हो जहां से सब पानी भरें, एक ही मंदिर हो जहां देव को सब पूजें, और एक ही जगह सबकी अंतिम विदाई हो।
दरअसल संघ के इस ब्रह्मास्त्र का इशारा पिछले साल दशहरे के मौके पर संघ प्रमुख मोहन भागवत ने सबसे पहले किया था। एक ऐसे हिंदू समाज की कल्पना जिसमें जातियों का भेदभाव मिट जाए, जहां जातियों के चलते गांवों में अलग-अलग कुएं, अलग अलग मंदिर और अलग-अलग श्मशान ना हों।
हिंदुत्व को मजबूत करने के इस एजेंडे पर मोहन भागवत का इशारा मिलते ही संघ के कार्यकर्ता और प्रचारक होम वर्क में जुट गए थे। पांच महीने बाद जब नागपुर में अखिल भारतीय प्रतिनिधि सभा की बैठक हुई तो कार्यकर्ताओं ने अपनी रिपोर्ट पेश की। आंध्र प्रदेश और झारखंड के प्रचारकों ने अपने इलाके के सर्वे के बारे में बताया कि सर्वे में पाया गया कि जाति के आधार पर समाज बंटने के कई और भी कारण हैं। इसके बाद कार्यकर्ताओं को कहा गया कि इससे निपटने का तरीका भी बताएं। चर्चा के बाद तय हुआ कि जनजागरण समितियां बनाकर प्रचारकों को गांव-गांव तक पहुंचने का निर्देश दिया जाए। यही नहीं, देश के उत्तर पूर्वी हिस्से और दक्षिण भारत को प्राथमिकता की लिस्ट में डाला गया।
संघ ने पिछले महीने ही एक कार्यक्रम में संतों और मठों के प्रमुखों को बुलाकर जातिगत भेदभाव पर चर्चा की थी। संगठन ने उत्तराखंड के प्रवासी जनजातीय समुदाय के लोगों को भी जोड़ने के लिए अभियान चलाया था जो महाराणा प्रताप को आराध्य मानते थे लेकिन हाल के सालों में हिंदू परंपरा से हट गए थे।
दरअसल संघ जानता है कि अगर विस्तार करना है तो गांवों और दूर दराज के इलाकों में पैठ बनानी होगी। संघ जानता है कि सालों तक पसीना बहाने के बाद केंद्र में पूर्ण बहुमत हासिल हुआ है और अगर संघ का विस्तार तमाम जातियों में थमा तो आगे मुश्किल हो सकती है। यानि ये योजना न सिर्फ संघ के विस्तार की है बल्कि योजना सफल रही तो बीजेपी को आगे भी पूर्ण बहुमत लाने में मुश्किल नहीं आएगी। इतना ही नहीं घर वापसी पर मचे घमासान के बीच संघ ये जानता है कि भारत में सामाजिक सम्मान की खातिर धर्म बदलने की पुरानी परंपरा रही है। ये सम्मान सीधे सीधे जाति व्यवस्था से जुड़ता है, सो अगर जाति व्यवस्था मिट सकेगी तो असम्मान भी मिट सकेगा।
हिंदू समाज में जाति मिटाने की लड़ाई लंबी और मुश्किल है क्योंकि लड़ाई ऐसी समाजिक व्यवस्था से है जो सदियों से चली आ रही है। और जाति व्यवस्था सिर्फ सतह पर ही नहीं है बल्कि दिमाग में गहरे तक उतरी हुई है, सामाजिक संस्कारों में परिभाषित हो चुकी है, एक दौर था जब इसी समाज में सरनेम न लिखने का आंदोलन भी चला था, वो आंदोलन भी जाति व्यवस्था को नकारने का ही था, लेकिन वो सिर्फ समाज के एक हिस्से में ही अक्स छोड़ पाया। क्या संघ ऐसा कोई आंदोलन खड़ा कर सकेगा, क्या हमारी सोच औऱ जड़ता को खौल पाएगा?
साभार- http://khabar.ibnlive.in.com/ से