अभय छजलानी, यह महज एक आदमी नहीं बल्कि एक दौर का नाम है…ऐसा दौर जिसको उन्होंने घनघोर जिया और ऐसे जिया कि हर किसी को ईर्ष्या हो! नईदुनिया जैसे अखबार का स्वामी और संपादक होना किसी को भी अहंकारी बना सकता था, पर वे संतुलित और विनम्र बने रहे। वे इंदौर के ऐसे दौर के सारथी रहे, जब वे एक मुहावरा बन गए थे और उनका बोला हर शब्द शासन, प्रशासन और समाज पर छाप छोड़ता था।
वे एक समय में मध्यप्रदेश और विशेषकर इंदौर की राजनीति में शतरंज के ऐसे खिलाड़ी थे, जिसके मोहरे भी उनकी अपनी टकसाल में ढला करते थे! कोई मोहरा जरा आड़ी, तिरछी या तेज चाल चला, समझो गया काम से। उनके इशारों और इरादों से अलग या आगे जाने की छूट वे किसी को नहीं देते थे। वे अखबारी दुनिया के राजकपूर थे, जिन्हें पृथ्वीराज कपूर की तरह अपने पिता लाभचंदजी छजलानी की विरासत तो मिली, लेकिन शोमैन तो अभयजी अपनी मेहनत, हिम्मत और दृढ़ता से ही बने। निश्चय ही वे नईदुनिया को आगे और बहुत आगे ले जा सकते थे, लेकिन जहां तक भी यह समाचार पत्र एक ताकतवर स्थिति में पहुंचा, उसमें उनके योगदान को कम करके नहीं देखा जा सकता! उनके पिता ने जो विरासत उन्हें सौंपी थी, उसे अभयजी ने अपने पसीने और पुरूषार्थ से कहीं आगे बढ़ाकर अपने पुत्र विनय छजलानी को सौंपा।
नवंबर 1994 के किसी एक दिन मैंने अभयजी को फोन पर निवेदन किया कि आपसे मिलना चाहता हूं। मैं उन दिनों दिल्ली में फ्रीलांस रिपोर्टिंग कर रहा था। उनसे मिलकर दिल्ली ब्यूरो में काम की कोई संभावना तलाशनी चाही। कुछ देर की बातों के बाद अभयजी बोले कि दिल्ली तो नहीं इंदौर में रिपोर्टिंग की कुछ जिम्मेदारी दे सकते हैं। मैं इस प्रस्ताव से भी उत्साहित था। उन्होंने परखने के लिए कोई काम दिया (संभवतः एमवायएच का ऑपरेशन कायाकल्प)। जब उनसे मिलकर लौटा तो उनका प्रभाव, आभामंडल और परिवेश देर तक पीछा करता रहा। उनकी भीतर तक भेदती आंखें जैसे अंदर का सब कुछ जान लेने में माहिर थी। बातें ऐसीं कि बस सुनते ही जाओ। आकर्षक व्यक्तित्व और उससे भी बढ़कर उनकी असरदार आवाज!
बात तो थी उनमें। अगले दिन रिपोर्ट लिखकर उन्हें सौंपी और नईदुनिया से नाता जुड़ गया। दो नए लड़के जुड़े उस दिन नईदुनिया की सिटी रिपोर्टिंग से। मैं और विजय मनोहर तिवारी। काम के दौरान कार्यालय का माहौल एक बंधी बंधाई लय में लेकिन कुछ सहमा सा होता। बाबा यानी राहुल बारपुते की जलती सिगरेट अवश्य उस सहमेपन को धुएं में उड़ाती दिखती! सब मुंह नीचा किए काम किए रहते और कुछ काम का दिखावा भी करते! अभय छजलानी और महेंद्र सेठिया की इस राजशाही में अच्छे और अधिक अच्छे में भेद जरा कम था। अभयजी बहुत अच्छा लिखते और देश से ज्यादा उन्हें प्रदेश और उससे भी ज्यादा उन्हें इंदौर का राजनीतिक विश्लेषण लुभाता।
वे बहुत मारक लिखते और बिटविन द लाइंस भी उनके मंतव्य पढ़े जा सकते थे। वे प्रबंधन के किसी विशेषज्ञ की तरह फाइलें बनातें, न्यूजप्रिंट से लेकर प्रिंटिंग तक की रगों पर पकड़ रखते। अखबार की अर्थव्यवस्था से लेकर लाइब्रेरी को अद्यतन रखने तक के जटिल काम पूरे मन से करते। मैं अचरज करता कि यह आदमी कभी थकता नहीं है? तभी ऊर्जा प्राप्त करने के लिए वे कभी किसी महिला क्लब के कार्यक्रम की शोभा बढ़ाने चले जाते तो कभी एकांत साधना लीन हो जाते! वे शहर में आकर्षण का सबसे बड़ा केंद्र थे और हर कोई उनकी आंखों में बने रहना चाहता था। वे किसी को निराश नहीं करते। सबको उनका यथायोग्य सानिध्य और स्नेह प्राप्त होता।
मगर वे रात-दिन जिस दुनिया में खोए रहते वह नईदुनिया ही थी। सोते-जागते वे इसी दुनिया को सजाते-संवारते रहते। स्वयं अच्छा लिखते और अच्छा लिखने-पढ़ने वालों को आगे भी बढ़ाते। वैसे तो विजय और मुझे रूखी-सूखी बीट ही मिली हुईं थीं, लेकिन मन बहलाने को मैं कभी कभार मौसम के मन मोहते बदलावों पर भी लिखा करता। पाठकों के अलावा मेरे संपादक अभयजी को भी वे शब्द-चित्र छू जाते! कभी संपादकीय सभागार के बाहर बूंदें बरसने लगती, तो एक बादल अभयजी के भीतर भी घुमड़ पड़ता और वे बाहर जाते हुए वे मुझसे पूछ लेते- प्रवीण, आज मौसम पर कुछ लिख रहे हो कि नहीं?
मेरे मन का मौसम भी ऐसे ही किसी मौके पर मुस्करा देता और अगले दिन इटेलिक फोंट की नथनी पहने कोई चार कॉलम की खबर अंदर के किसी पेज पर इठला रही होती- “बरसती बूंदें , बहकता मौसम और के बादलों की बाहों में खोया चांद…!” बारिश में भीगा हवा का हल्का झोंका आता और मेरी डेस्क से सटे गमले में खिला गुलाबी पुष्प शरारती हो जाता!
वहां वेतन तो हमें ठीक मिलता लेकिन इतना भी नहीं कि रोमांटिक मूड को सस्टेन किया जा सके। उससे ज्यादा खीज विजय और मुझे प्रेस नोट की अनवरत आती खेप से होती। कभी मायूस हो सोचतें कि इसीलिए यहां आए थे क्या? कहते हैं ना कि सबके दिन फिरते हैं, सो हमारे भी फिरे। चूंकि कुछ बड़ा और अच्छा करने की धधक को हमने कमजोर नहीं पड़ने दिया, तो अभयजी का दिल भी पसीजने लगा और हमारी लिखी खास खबरों को उन्होंने ही इतना साहस दिया कि हम अपनी लिखी कॉपी के ऊपरी कोने में “Byline requested” लिखकर अभयजी की डेस्क पर भेजने लगे। सौ में से साठ बार अभयजी हमारी खबरों को नाम के साथ देने के लिए शशीन्द्र जलधारी या दिलीप ठाकुर निर्देश लिखते-“दे दें”। धीरे धीरे इंदौर और आसपास के इलाकों में पाठकों के दिलों में हमारा नाम भी लिखा जाने लगा।
खबर को सूंघने में माहिर और अनूठी ही शैली में लिखने वाले हमारे वरिष्ठ विकास मिश्र, विजय मनोहर तिवारी और मेरी तिकड़ी ने रिपोर्टिंग को धारदार बनाने की बहुतेरी कोशिश की और अभयजी उसे ऊर्जा देते रहे। बाद में जयश्री पिंगले ने भी धारदार रिपोर्टिंग में अपना छौंक लगाया। ऐसी ही मेरी एक बायलाइन खबर से पीएमओ तिलमिला उठा। पीएमओ द्वारा एक समिति का गठन नहीं किए जाने से पूरे देश में गेहूं के प्रजनक बीज के उत्पादन का काम ठप पड़ गया और उससे देश पर खाद्यान्न संकट का खतरा मंडराने लगा था। यह खबर फ्रंट पेज पर छपी, तब अटलजी प्रधानमंत्री थे। भरी दुपहरी मुझे दफ्तर बुलाया गया। अभयजी भी पीएमओ के दबाव में दिखे। पहले डांटा, फिर थोड़ा शांत हुए तो बोले- खंडन छापना पड़ेगा। मैंने कहा अपनी खबर में एक भी तथ्य ऐसा नहीं है जिसे पीएमओ झुठला सके।
उन्होंने प्रधानमंत्री कार्यालय के एक सचिव का नंबर देते हुए मुझे कहा कि इनसे बात करो और जैसा वे कहें वैसा करो। मैंने टेलीफोन ऑपरेटर प्रियंवदा तराणेकर को उस नंबर पर बात कराने को कहा और अपनी डेस्क पर आकर बैठ गया। संबंधित अधिकारी जब लाइन पर आए तो तैश में थे, बोले- यह क्या लिख दिया आपने? मैंने कहा – वही, जो आपने पढ़ा! उन्होंने आपा खो दिया – मतलब क्या है आपका? मैंने उन्हें शांति से बात करने का निवेदन किया और कहा कि आप जैसा कहेंगे हम वैसा खंडन छाप देंगे, लेकिन पहले आपको पूरी बात समझनी होगी। उन्हें बताया गया कि फलां नंबर की फाइल पीएमओ में काफी समय से पेंडिंग है, आप पता लगा लीजिए। हमने कुछ मुद्दों को अभी छापा नहीं है नहीं तो सरकार की और भद पिटती। अब चौंकने की बारी अधिकारी की थी। उन्होंने फोन काटा और सारे तथ्य पता करने के बाद फिर फोन पर मुझसे बात की और बोले कि एक अधिकारी की लापरवाही से ऐसा हुआ है, पूरे पीएमओ को उसका दोष नहीं दिया जा सकता। शीघ्र ही हम फाइल को मंजूरी दे देंगे। उस खबर का खंडन तो नहीं छपा, मगर तीन दिन बाद नईदुनिया में पहले पेज पर सिंगल कॉलम में एक छोटी सी खबर जरूर छपी-पीएमओ द्वारा बीज उत्पादन संबंधी समिति गठित।
इस घटनाक्रम से अभयजी का मुझ जैसे नए साथियों पर विश्वास बढ़ा और उन्होंने हम पर दांव लगाना शुरू कर दिया। मगर दफ्तर की अंदरूनी राजनीति अपने ढर्रे पर चल रही थी, कई लोग ऐसे थे जो खुद कुछ नहीं करते और कोई लीक तोड़ने वाला काम करता, तो टांग खींचने में जरा देर नहीं करते। कई बार ऐसे उस्तादों ने हमें बाहर का रास्ता ही दिखा दिया होता , लेकिन कोई अदृश्य शक्ति थी जो हमें हर बार बचा लेती और हमारी डांवाडोल होती कुर्सी को थाम लेती।
इसी शक्ति ने एक दिन धरती ही डोला दी। 26 जनवरी 2001 की सुबह आई तो उजाला लेकर ही थी, लेकिन जल्द ही उसने भारत और विशेषकर गुजरात में अंधेरा कर दिया। धरती के इस दोलन को रिक्टर स्केल ने 6.7 के खतरनाक स्तर पर नापा। टीवी स्क्रीन से चीखें सुनाई देने लगी, मेरी सुबह की चाय का स्वाद कसैला हो गया। चूंकि भूकंप का एपिसेंटर कच्छ में भुज के आसपास कहीं था, मैं वहां के मकानों व धुरधुरी जमीन की संरचना से वाकिफ था, ऐसे में मेरी छठी इंद्री ने कहा कि टीवी जो सैकड़ों मौतें दिखा रहा है, उससे कहीं अधिक प्रलय हुआ होगा। मन सिहर उठा साथ में एक संकल्प भी उठा कि इसे तो कवर करना ही होगा। पूछकर जाता तो दफ्तर अनुमति नहीं देता, इसलिए अगले एक घंटे में किराए की कार लेकर बिना अभयजी को बताए मैं गुजरात निकल गया। आधे रास्ते से अभयजी को फोन लगाया और उनसे झूठ बोला कि मेरा एक मित्र मकान में दबने से घायल हो गया है, आप कहेंगे तो खबर भी भेज दूंगा। अभयजी ने कहा कि ठीक है और हो सके तो आभा (उनकी अहमदाबाद में ब्याही बेटी)के भी हालचाल जान लेना। जब अहमदाबाद पहुंचा तो भूकंप की भयावहता देखकर भीतर तक कांप गया। शहर तहस-नहस था, बहुमंजिला भवन भरभराकर गिरे पड़े थे और उनमें रहने वाले लोग सदा के लिए सो गए थे। वाडीलाल साराभाई अस्पताल के गलियारे लाशों से अटे पड़े थे। चारों ओर चीत्कारें थीं!
रिपोर्ट की पहली कॉपी वहीं से फैक्स की और अगले दिन भुज के लिए रवाना हो गया। ग्यारह दिन भूकंप के दिए घावों की खबरें भेजता रहा और अभयजी फ्रंट पेज पर भूकंप की आंखों देखी मेरे नाम से छापते रहे। एक संपादक से अधिक एक अभिभावक की तरह उन्होंने मेरी परवाह की। रोज दो-तीन बार बात करते, मेरी खबरें खुद एडिट करते और बिना एक शब्द काटे जस का तस छापते। चूंकि भुज की टेलीफोन लाइन ध्वस्त हो गई थी, इसलिए मैं कभी कच्छ के प्रभारी मंत्री सुरेश भाई मेहता तो कभी वहां के कलेक्टर अनिल मुकीम के सेटेलाइट फोन से टुकड़ों में खबर लिखवाता। एक बार तो अभयजी ने खुद खबर नोट की। मैंने अनिल मुकीम को फोन वापस किया तो उनकी आंखों में आंसू थे, उन्होंने भचाऊ और अंजार की दर्दनाक दास्तान सुनाती मेरी उस शाम की रिपोर्ट के कुछ अंश सुन लिए थे, जो अगले दिन नईदुनिया में इस शीर्षक से छपी- “जो मैंने दास्तां उनकी सुनाई, आप क्यूं रोए…!” कल मुक्तिधाम में जब अभयजी की देह अग्नि स्नान कर रही थी, तो मंत्री तुलसी सिलावट बोल पड़े – आपकी भूकंप की रिपोर्टिंग मुझे आज भी वैसी ही याद है।
मगर मुझे तो बस यह याद है कि यह मां सरस्वती और उसके बाद अभयजी ही थे, जिन्होंने मुझसे यह सब करवा लिया! वे पैदा तो लक्ष्मी पुत्र के रूप में हुए थे, मगर मां सरस्वती भी उन्हें लाड़ करती रहीं! एक दिन गुजरात के मुख्यमंत्री नरेंद्र मोदी नईदुनिया में अपनी सरकार के कामकाज पर चर्चा के लिए आए, तो उन्होंने अभयजी से कहा कि भूकंप के बाद भुज और आसपास जो पुननिर्माण का काम हुआ है उसका लेखा जोखा भी आपको अपने पाठकों को बताना चाहिए। अभयजी ने मुझे यह काम सौंपा और भुज के साथ महाराष्ट्र के लातूर दोनों जगह के कामों की तुलनात्मक रिपोर्ट विस्तार से छापी गई। एक बार मैंने मोदी जी से एक खास साक्षात्कार करने का समय चाहा। पन्द्रह मिनट का समय मुझे मिला। मैं तय समय पर गांधीनगर स्थित मुख्यमंत्री निवास पर पहुंचा तो पीआरओ जगदीश भाई ठक्कर मुझे लेकर मोदी जी के कक्ष में पहुंचे। जब नरेंद्र भाई से बात चली तो दूर तक चलती गई। बात जब दिल तक आई, तो मोदीजी की आंखें डबडबा आईं। हुआ यह कि मैंने मोदीजी से पूछा कि गुजरात में चर्चा है कि कोई भी फाइल आपकी टेबल पर बारह घंटे से ज्यादा नहीं ठहरती और आप सोलह घंटे रोज काम करते हैं, आखिर ये ऊर्जा आती कहां से है? मोदीजी चुप लगा गए, फिर उनकी आंखें भर आईं, भरभराए गले से बोले- गुजरात की साढ़े छह करोड़ जनता की आस और उसका विश्वास मुझे थकने नहीं देता! पन्द्रह मिनट का समय कब पचास मिनट तक खिंच गया पता ही नहीं चला।
अभयजी ने पूरी उदारता दिखाते हुए वह साक्षात्कार किश्तों में पांच दिन तक लगातार फ्रंट पेज पर छापा, जिसमें पहली किश्त बैनर लाइन(ऊपर के आठ कॉलम) के रूप में छपी- “और नरेंद्र दामोदरदास मोदी की आंखें छलछला उठीं !” आज अभयजी को विदा करते हुए मेरा मन एक बार भी नहीं रोया, मन हरदम उनके प्रति गौरव और अहो भाव से ही भरा रहा।
सिंहस्थ के बाद मेरा मन उज्जैन से उचटने लगा और किसी दूसरी बड़ी जिम्मेदारी के लिए छटपटाने लगा। अभयजी ने फिर परखने के लिए एक मुश्किल आजमाईश की और कहा कि देखो गुजरात से हम कोई संस्करण शुरू कर सकते हैं क्या। मैंने अपने गुजरात स्थित संपर्कों को टटोला। मोदीजी के पास भी गया। मोदीजी ने पूरी बात सुनी, बोले कि यदि तुम सोचते हो कि यहां हिंदी संस्करण चल जाएगा तो गलत सोचते हो। यह व्यावसायिक रूप से घाटे का सौदा होगा। राजस्थान पत्रिका के अहमदाबाद संस्करण को ही देख लो। हां, गुजराती में अखबार लाया जाए तो जरूर संभावनाएं हैं। हमसे भी जो संभव होगा मदद करेंगे। मैं बोला- मुझे तो गुजराती आती नहीं, वे बोले – तो सीख जाओ। मुझे अनिश्चित देख उन्होंने एक अधिकारी को मुझे अखबारों के कार्यालय के लिए निर्धारित भवन( संभवतः गुजरात का सूचना भवन)देख लेने के लिए साथ भेजा। धूसर गेरूए रंग के उस भवन का अंदरूनी माहौल भी धूसर ही था। और लोगों से बात की और लौटकर अभयजी को बताया कि गुजरात की कौड़ी अभी दूर है। यह उन्हीं का विश्वास था कि मुझे महज चौंतीस साल की उम्र में ग्वालियर जैसी जटिल जगह पर नईदुनिया के संस्थापक संपादक की जिम्मेदारी सौंपी। थोड़े समय बाद ही उन्होंने अखबार की महत्वाकांक्षा को आकार देने के लिए अपने पुत्र विनय छजलानी को बागडोर देने की शुरुआत कर दी, जिन्होंने अपने तईं भरसक कोशिशें कीं, लेकिन वे नाकारा सलाहकारों और प्रबंधकों के चक्रव्यूह में ऐसे फंसे कि उन्हें मन मारकर उस दलदल से बाहर निकलने का एकमात्र विकल्प अखबार से मुक्ति पाने में ही दिखा…!
बेशक, अभयजी ने कल अंतिम सांस ली, लेकिन वे अपनी आत्मा कहीं पहले तज चुके थे! मैं इसे ईश्वर का बहुत उपकार मानता हूं कि उसने अंतिम दौर में अभयजी की स्मृति हर ली और कल अंतत: उन्हें शरीर से भी मुक्त कर दिया। इसे ‘अभय-दौर’ का पूर्ण विराम नहीं माना जाना चाहिए। उन्होंने समाज में इतनी प्रेरणाएं बोईं हैं कि ऐसे अनेक दौर आएंगे …! यदि हम लोग अखबार की सफलताओं और चमक का साफा अपने माथों पर बांधना चाहते हैं, तो उसकी असफलताओं का दोष लेने का साहस भी हमें दिखाना चाहिए। नईदुनिया के स्वर्णकाल में अभयजी का योगदान सबसे ज्यादा था, इसलिए जब इस अखबार का पर्दा गिरने को हुआ, तो सबसे ज्यादा उंगलियां भी उन्हीं पर उठीं! मैं सोचता हूं कि केवल अभयजी, महेंद्रजी, विनयजी पर दोष मढ़ देना उनके साथ अन्याय करने जैसा है। चमकदार अखबार में अपने चेहरे चमकाकर दिखाने वाले संपादकीय व दूसरे विभागों के साथी भी इसके लिए बराबरी के दोषी हैं जिन्होंने समाज की रगों में दौड़ते एक अच्छे-खासे अखबार को रेत में मुंह गढ़ाकर अपने नपुंसक और नाकाबिल ढर्रे से पंगु बना दिया था।
विनयजी, इन घड़ियों में हम जैसे कई लोग आपके और परिजनों के साथ खड़े हैं, जिन्हें खबरों की दुनिया में खड़े होना ही अभयजी ने सिखाया है …!