प्रकांड पंडित पद्म विभूषण आचार्य रामभद्राचार्य [गिरिधर मिश्र] और गुलज़ार [संपूर्ण सिंह कालरा] को ज्ञानपीठ मिलने पर कुछ लोग बौखलेश हो गए हैं। यह गुड बात नहीं है। ज्ञानपीठ की उज्जवल परंपरा से, संस्कृत साहित्य के सौंदर्य सौष्ठव से अगर आप परिचित नहीं हैं तो यह आप का दुर्भाग्य है। आचार्य रामभद्राचार्य के संस्कृत साहित्य में अवदान से अपरिचित हैं तो इस में आचार्य रामभद्राचार्य का कोई दोष नहीं है। वह भगवा पहनते हैं, रामकथा बांचते हैं तो यह उनकी अयोग्यता नहीं है। आप के बंद और तंग दिमाग की मुश्किल है यह। योग करते हुए गुरु गोरखनाथ महाकवि हो सकते हैं। गोरख के अनुयायी कपड़ा बुनते हुए, जुलाहा का काम करते हुए कबीर कवि हो सकते हैं। नानक कवि हो सकते हैं। कृष्ण को गाने वाली मीरा कवि हो सकती हैं। जूता सिलते हुए चर्मकार का कार्य करते हुए रैदास कवि हो सकते हैं। मांग कर खाने वाले, मसीत में सोने वाले राम के अनन्य गायक तुलसी की तो ख़ैर बात ही क्या है। इस समय में भी कई ऐसे रचनाकार हैं, दुनिया भर में हैं जो काम कुछ और करते हैं, अध्यापक, पत्रकार या अफ़सर आदि नहीं हैं फिर भी रचनाकार हैं। बड़े रचनाकार। तो रामभद्राचार्य भी संस्कृत के बड़े रचनाकार हैं। कवि हैं। अनेक महाकाव्य, खंड काव्य के रचयिता हैं। 80 से अधिक प्रकाशित पुस्तकें हैं। मनोनीत आचार्य नहीं हैं, अकादमिक आचार्य हैं। बचपन से नेत्रहीन होने के बावजूद संपूर्णानंद संस्कृत विश्वविद्यालय के गोल्ड मेडलिस्ट हैं। संस्कृत व्याकरण में पीएचडी हैं।
आचार्य पाणिनि पर उन का बड़ा काम है। रामचरित मानस और गीता पर अनेक टीकाएं लिखी हैं। विश्वविद्यालय अनुदान आयोग ने उन्हें सम्पूर्णानंद संस्कृत विश्वविद्यालय के व्याकरण विभाग के अध्यक्ष के पद पर भी नियुक्त किया। लेकिन गिरिधर मिश्र यानी रामभद्राचार्य ने इस नियुक्ति को अस्वीकार कर दिया और अपना जीवन धर्म, समाज और विकलांगों की सेवा में लगाने का निर्णय लिया। उन के अनेक सामाजिक और शैक्षिक कार्य काबिले तारीफ़ हैं। अयोध्या में मंदिर प्रसंग पर हाईकोर्ट से लगायत सुप्रीमकोर्ट तक रामभद्राचार्य द्वारा दिए गए अकाट्य साक्ष्यों का आज भी डंका बजता है। इसी लिए कुछ मतिमंद उनसे घृणा करते हैं। नफ़रत की नागफनी ले कर खड़े हो जाते हैं।
यह मूर्ख अपने को जाने कैसे लेखक भी मानते हैं। लेखक का काम घृणा और नफ़रत करना नहीं होता। असहमत होना, नापसंद करना, स्वीकार न करना और बात है। नफ़रत और घृणा करना और बात। श्रीभार्गवराघवीयम् महाकाव्य पर वर्ष 2005 में साहित्य अकादमी से सम्मानित रामभद्राचार्य की रचनाशीलता के अनेक पड़ाव हैं। गो कि साहित्य अकादमी पुरस्कार में किसी सरकार का कोई हस्तक्षेप नहीं रहता फिर भी मतिमंदों को ध्यान रहे 2005 में यूपीए की मनमोहन सिंह सरकार थी। गौरतलब है कि इंदिरा गांधी ने बतौर प्रधानमंत्री उन्हें पांच स्वर्णपदकों के साथ उत्तर प्रदेश के लिए चलवैजयन्ती पुरस्कार प्रदान किया था। इतना ही नहीं, उन की योग्यता से प्रभावित हो कर इंदिरा गांधी ने उन्हें आंखों की चिकित्सा के लिए संयुक्त राज्य अमरीका भेजने का प्रस्ताव किया, परंतु आचार्य रामभद्राचार्य ने मना कर दिया। 1976 में सात स्वर्णपदकों और कुलाधिपति स्वर्ण पदक के साथ उन्होंने आचार्य की परीक्षा उत्तीर्ण की थी। आजादचन्द्रशेखरचरितम् नाम से स्वतंत्रता सेनानी चंद्रशेखर आज़ाद पर रामभद्राचार्य ने खंड काव्य लिखा है। मेरी जानकारी में हिंदी में भी किसी ने चंद्रशेखर आज़ाद पर कोई खंड काव्य नहीं लिखा है। ऐसे ही अनेक कृतियां हैं रामभद्राचार्य की। संस्कृत में भी, हिंदी में भी।
यह ठीक है कि कभी पंचर बनाने वाले संपूर्ण सिंह कालरा यानी गुलज़ार हिंदी फ़िल्म जगत में बतौर गीतकार और बतौर निर्देशक भी बेस्ट कॉपियर हैं। इधर-उधर का पंचर जोड़ने से बाज नहीं आते। बतौर निर्देशक सीन दर सीन उड़ा लेने में मास्टर हैं। भारतीय एडाप्टेशन के मास्टर। विदेशी फिल्मों का मुकम्मल भारतीयकरण कर देते हैं। पर हैं उर्दू के आदमी। खांटी उर्दू के आदमी। और उर्दू में किसी भी नज़्म, ग़ज़ल के एक मिसरे पर पूरी ग़ज़ल या नज़्म कहने की परंपरा है। ग़ालिब, मीर, मोमिन, इक़बाल समेत हर किसी ने इस परंपरा की गंगा में स्नान किया है। करते ही रहते हैं। बहुतेरे क़िस्से हैं। कोई नई बात नहीं है। और यह काम चूंकि गुलज़ार ने फिल्मों में किया है, सो लोग उन्हें चोर कहने लगे। यह ग़लत बात है। फिर यह काम तो गुलज़ार से कहीं ज़्यादा जावेद अख़्तर ने किया है। जावेद के मामा मजाज लखनवी के तो लगभग सारे कलाम तमाम फ़िल्मी गीतकारों ने उठा लिए हैं। कुछ भी छोड़ा नहीं है।
सच यह है कि गुलज़ार और जावेद बेस्ट कॉपियर ही नहीं, बेस्ट प्रजेंटेटर भी हैं। इसी का यह दोनों खाते हैं। फिर तमाम शायरों ने यह काम किया है। फ़िल्मी गीत लिखने वाले अधिकांश लोगों ने यह किया है। साहिर, शक़ील, मज़रुह हर किसी ने किया है। किसी का मिसरा, गीत किसी का। तेरी आंखों के सिवा दुनिया में रखा क्या है, फ़ैज़ का मिसरा है पर फ़िल्म में गाना तो मज़रुह ने लिखा है। इस का भी बड़ा क़िस्सा है। शैलेंद्र ने भी बहुत से मुखड़े उठाए हैं। भोजपुरी से भी उठाए हैं। अनजान ने भी। इंदीवर ने भी। आनंद बख्शी ने भी बहुत। शैलेंद्र को बहुत सारे मुखड़े तो राजकपूर देते थे। एस डी वर्मन ने तो बांग्ला लोकगीत और उस का संगीत खड़े के खड़े उठा लिए हैं और उस को किसी गीतकार से हिंदी करवा दिया है। सी रामचंद्र, नौशाद, ओ पी नैय्यर जैसे संगीतकारों ने यह सब बहुतायत में किया है। हां, गुलज़ार ने नमक़ में दाल किया है। माना। पर इस बिना पर गुलज़ार शायर नहीं हैं, चोर हैं, यह कहना ज़रा नहीं ज़्यादा ज्यादती है। गुलज़ार शायर हैं। ग़ालिब की तरह उस्ताद नहीं, न सही ग़ालिब को गाने-गवाने वाले तो हैं ही। शायरी की बढ़िया समझ भी है।
ओरिजिनल शायरी भी है गुलज़ार के पास। 2002 में साहित्य अकादमी से सम्मानित हैं गुलज़ार। उस्ताद शायर नहीं हैं गुलज़ार पर मीना कुमारी, दीप्ति नवल जैसी अभिनेत्रियों के शायरी में उस्ताद हैं। और भी बहुतों के उस्ताद हैं गुलज़ार। मीना कुमारी की डायरी से शेर उड़ा लिए जैसी बातें, कुंठित मानसिकता की बातें हैं। मीना कुमारी के शौहर कमाल अमरोही ख़ुद बाकमाल शायर और लेखक हैं। अंतिम समय में कमाल अमरोही के पास मीना कुमारी लौट आई थीं। वह एक अलग और बड़ा क़िस्सा है।
रामभद्राचार्य अगर पद्म विभूषण हैं तो गुलज़ार भी पद्म भूषण हैं। रामभद्राचार्य जितना विपुल रचना संसार तो नहीं है गुलज़ार के पास लेकिन आधा दर्जन से अधिक दीवान उन के खाते में दर्ज हैं। तिस पर चोखी बात यह कि गुलज़ार सेक्यूलर चैंपियन भी हैं। संजय गांधी ने भले उन की फ़िल्म आंधी को सिनेमा के परदे से उतरवा कर उस की रीलें जलवा दी थीं पर गुलज़ार की प्रतिबद्धता कांग्रेस के साथ मुसलसल जारी है। संपूर्ण कुतर्क के साथ। लगता ही नहीं कई बार कि यह वही गुलज़ार हैं जिन्हें हम रुमानी गानों और नफ़ीस बातों के लिए जानते हैं। सेक्यूलरिज्म का कीड़ा जब कुलबुलाता है, गुलज़ार का तो वह अपनी सारी नफ़ासत और लताफ़त बिसार जाते हैं।
न जाने क्यों।
बताते चलें कि आंधी फ़िल्म कमलेश्वर के उपन्यास काली आंधी पर आधारित है। इस उपन्यास पर एक बार सुब्रमण्यम स्वामी ने कमलेश्वर से एक लिफ्ट में अचानक मिल जाने पर कहा कि इंदिरा गांधी का बहुत बढ़िया चरित्र चित्रण किया है। कमलेश्वर ने पलट कर सुब्रमण्यम स्वामी से कहा कि वह चरित्र विजयाराजे सिंधिया का है, इंदिरा गांधी का नहीं। कमलेश्वर चाहे जो कहें, पर काली आंधी की मालती, थीं इंदिरा गांधी ही। इसी लिए इमरजेंसी में संजय गांधी ने इस आंधी को सिनेमा घरों से उतरवा कर रीलें जलवा दीं। वह तो कहीं कोई एक रील ग़लती से बची रह गई थी तो इमरजेंसी ख़त्म होने के बाद जनता पार्टी की सरकार आने के बाद उस रील से कई कॉपी बनी और आंधी फिर से रिलीज हुई। क्लासिक फ़िल्म है आंधी। इस मोड़ से जाते हैं – /कुछ सुस्त क़दम रस्ते कुछ तेज़ क़दम राहें – /कि: पत्थर की हवेली को शीशे के घरौंदों में /तिनकों के नशेमन तक इस मोड़ से जाते हैं ! जैसे कुछ लोकप्रिय गाने गुलज़ार के ओरिजिनल गीत हैं। जो आज भी लोगों की जुबां पर लरजते हैं। निर्देशन भी लाजवाब था आंधी का। सैल्यूटिंग।
इस फ़िल्म की कथा-पटकथा तो कमलेश्वर की ही थी पर जब फ़िल्म रिलीज हुई तो कथा-पटकथा के तौर पर नाम दर्ज था परदे पर गुलज़ार का। इस पुछल्ले के साथ कि कमलेश्वर के उपन्यास काली आंधी पर आधारित। कमलेश्वर इस बात पर गुलज़ार से बहुत नाराज हुए। यह नाराजगी कह कर, लिख कर जताई। हां, इस आंधी ने गुलज़ार की ज़िंदगी में भी काली आंधी ला दी। हुआ यह कि इस आंधी फ़िल्म में नायिका की भूमिका के लिए गुलज़ार ने बंगला फिल्मों की मशहूर अभिनेत्री सुचित्रा सेन को चुना था और ठीक ही चुना था। गुलज़ार की तभी नई-नई शादी हुई थी, राखी से। राखी चाहती थीं कि सुचित्रा सेन की जगह वह यह भूमिका करें। गुलज़ार लेकिन फ़ैसला कर चुके थे। बतौर निर्देशक वह राखी और सुचित्रा सेन के अभिनय की सीमा और क्षमता जानते थे। जानते थे कि राखी नहीं, सुचित्रा सेन उस भूमिका के लिए उपयुक्त थीं। राखी को मना कर दिया। राखी गुलज़ार नाराज हो गईं, गुलज़ार से। बेटी मेघना उस समय गर्भ में थी। गुलज़ार के बहुत मान-मनौव्वल के बावजूद राखी गुलज़ार, गुलज़ार का घर छोड़ कर निकल गईं। अब तक लौटी नहीं हैं। अलग बात है दोनों की ज़िंदगी में लोग आते-जाते रहे। राखी का नाम भी अमिताभ बच्चन समेत कइयों के साथ जुड़ा तो गुलज़ार का नाम भी दीप्ती नवल जैसी कई अभिनेत्रियों के साथ। बल्कि अमिताभ तो एक समय में राखी और रेखा दोनों पर ही मेहरबान रहे। फिल्मों में भी संबंधों में भी। परवीन बॉबी भी आईं, ज़ीनत अमान भी। और जाने कौन-कौन। एक लंबी फ़ेहरिस्त है। ख़ैर, तमाम पानी गुज़र गया पर गुलज़ार और राखी गुलज़ार के बीच संवादहीनता नहीं आई और न ही दोनों ने तलाक़ लिया। हां, फ़िल्मी परदे पर राखी गुलज़ार आहिस्ता से राखी हो गईं। गुलज़ार का नाम उन के नाम से हट गया। पर बेटी मेघना दोनों के बीच सेतु बनी रही। अभी भी बनी हुई है। मेघना बहुत कामयाब निर्देशक हैं। लाजवाब भी। पिता गुलज़ार की तरह कॉपियर नहीं हैं, मेघना। यह भी क़ाबिले गौर है कि अपनी फिल्मों के गीत वह पिता गुलज़ार से ही लिखवाती हैं। गुलज़ार भी बेटी के लिए ओरिजिनल गीत लिखते हैं। कहीं से कोई मिसरा नहीं उठाते। राजी फिल्म के इस गीत को याद कीजिए। इस की धुन भी बहुत मीठी है।
फसलें जो काटी जायें, उगती नहीं हैं
बेटियाँ जो ब्याही जाएँ, मुड़ती नहीं हैं
ऐसी बिदाई हो तो, लंबी जुदाई हो तो
देहलीज़ दर्द की भी, पार करा दे
बाबा मैं तेरी मलिका, टुकड़ा हूँ तेरे दिल का
इक बार फिर से देहलीज़ पार करा दे
मुड़ के ना देखो दिलबरो दिलबरो…
हां, लेकिन मां की तरह बेटी ने गुलज़ार का नाम अपने नाम से नहीं हटाया है। विवाह के बाद भी वह हैं, मेघना गुलज़ार ही। विवाह के बाद भी वह कटी हुई फसल बनने के बजाय पिता की बेटी बनी हुई हैं। मेघना गुलज़ार। मेघना पिता के प्रेम में कविताएं लिखती रहती हैं। निर्देशक तो बाकमाल हैं ही वह। गुलज़ार के आस्कर वाले गीत के बोल में ही जो कहें कि :
जय हो !
(लेखक सम-सामयिक विषयों पर लिखते रहते हैं।)