वैशाख शुक्ल पंचमी यानि 20 अप्रैल को हिंदू धर्म की ध्वजा को देश के चारों कोनों में फहराने वाले और भगवान शिव के अवतार आदि शंकराचार्य का जन्म हुआ था। उनका जन्म 1200 वर्ष पूर्व कोचीन से 5-6 मील दूर कालटी नामक गांव में नंबूदरी ब्राह्राण परिवार में जन्म हुआ था। मात्र 33 वर्ष की अल्पआयु में उन्होंने वैदों और पुराणों से लेकर ब्रह्मसूत्र जैसे कठिन ग्रंथों के जो भाष्य लिखे और उनका विवेचन किया और पैदल ही पूरे भारत की यात्रा कर जो काम किया अगर उसका मूल्यांकन किया जाए तो एक व्यक्ति को इतना सब करने में कम से कम 150 साल लग सकते हैं लेकिन शंकराचार्य ने ये काम मात्र 25 साल के अपने संन्यासी जीवन में कर दिखाया।
आदि शंकराचार्य का भारत भूमि पर अवतरण उस समय हुआ जब उत्तर भारत में सम्राट हर्षवर्धन और दक्षिण में पुलकेशी का निधन हो चुका था। सन् 650 ईसवी के बाद भारत में विशाल और स्थिर साम्राज्यों का युग समाप्त हो चला था। यह ऐसा समय था जब साम्राज्य की इच्छा रखने वाले राज्यों में निरन्तर संघर्ष और उत्थान-पतन की लीला ने भारत की राजनीतिक एकता और स्थिरता को हिलाकर रख दिया। कश्मीर, कन्नौज और गौंड के संघर्ष ने और फिर पाल, प्रतिहार और राष्ट्रकूट नरेशों की खींचातानी ने उत्तरापथ को आंदोलित कर डाला था। ठीक वैसे ही दक्षिण में चालुक्य,पल्लव और पाण्डय शासकों की लड़ाइयों ने भारत को विचलित कर रखा था। पश्चिम से अरब सेनाओं और व्यापारियों के प्रवेश ने इस परिस्थिति में नया आयाम जोड़ दिया। बढ़ती अराजकता और असुरक्षा के वातावरण में स्थानीय अधिकारियों और शासकों का प्रभाव बढ़ने लगा। साम्राज्य की जगह सामन्ती व्यवस्था आकार लेने लगी। किसानों और ग्राम पंचायतों के अधिकार अभी बरकरार थे पर यह सही है कि इस समय राजसत्ता बिखर चुकी थी। अराजकता के बीच राजपुत्रों और सामन्तों का बोलबाला था। आदि शंकराचार्य की कृतियों में इस तरह की राजनीतिक अवस्था प्रतिबिम्बित होती है। आदि शंकराचार्य के समय कोई चक्रवर्ती राजा नहीं था , बस उसका आदर्श ही शेष रह गया था। अराजकता की स्थिति में परम्परागत भारतीय समाज व्यवस्था का ह्रास स्वाभाविक था।
आदि शंकराचार्य के समय तक भारत में प्राचीन स्मृतियों और पुराणों का युग बीत चुका था और अनेक अप्रमाणिक ग्रंथ भी रचे जाने लगे थे। उदारवादी और कट्टर प्रवृत्तियों में टकराहट की आहटें भी सुनायी पड़ने लगी थीं। धर्म के क्षेत्र में तन्त्र-मन्त्र और प्रतिमा पूजन की प्रवृत्ति भी बढ़ती जा रही थी। पुराने वैदिक देवताओं को नया रूप दिया जा रहा था और साथ ही बौद्धों के अनेक सम्प्रदाय भी प्रचलन में आ गये थे। आदि शंकराचार्य के समय की धार्मिक परिस्थिति को वेद के प्रमाण को मानने वाली आस्तिक और उसे न मानने वाली नास्तिक धाराओं के संगम और संघर्ष का युग भी कहा जाता है। शंकराचार्य इसी संक्रांति काल में भारत में अवतरित हुए। उन्होंने अपने प्रखर ज्ञान और साधना के बल से तत्कालीन भारतीय समाज में धर्म के ह्रास को रोकने के लिए अनेक नास्तिक सम्प्रदायों का सामना कर वैदिक धर्म की प्रतिष्ठा में अपना जीवन समर्पित किया। आदि शंकराचार्य को आयु कम मिली। वे मात्र बत्तीस साल ही जिये पर भारत में उन्होंने अपनी प्रखर चेतना शक्ति से जिस अव्दैत सिध्दांत की प्रतिष्ठा की , उससे समस्त मानव जाति के कल्याण का मार्ग प्रशस्त हुआ। आदि शंकराचार्य ने अपने भाष्यों के व्दारा वेदान्त की पुनः प्रतिष्ठा करते हुए शास्त्रार्थ के माध्यम से विपक्षी सम्प्रदायों को सिर्फ पराजित ही नहीं किया बल्कि प्राचीन धार्मिक क्षेत्रों को नवजीवन प्रदान करते हुए उपासना-सम्प्रदायों में सुधार भी किया।
आदि शंकराचार्य के समय में अंधविश्वास और तमाम तरह के कर्मकांडों का बोलबाला हो गया था. सनातन धर्म का मूल रूप पूरी तरह से नष्ट हो चुका था और यह कर्मकांड की आंधी में पूरी तरह से लुप्त हो चुका था. शंकराचार्य ने कई प्रसिद्ध विद्वानों को चुनौती दी. दूसरे धर्म और संप्रदाय के लोगों को भी शास्त्रार्थ करने के लिए आमंत्रित किया. शंकराचार्य ने बड़े-बड़े विद्वानों को अपने शास्त्रार्थ से पराजित कर दिया और उसके बाद सबने शंकराचार्य को अपना गुरु मान लिया.
शंकर के समय में असंख्य संप्रदाय अपने-अपने संकीर्ण दर्शन के साथ-साथ अस्तित्व में थे. लोगों के भ्रम को दूर करने के लिए शंकराचार्य ने 6 संप्रदाय वाली व्यवस्था की शुरूआत की जिसमें विष्णु, शिव, शक्ति, मुरुक और सूर्य प्रमुख देवता माने गए. उन्होंने देश के प्रमुख मंदिरों के लिए नए नियम भी बनाए.
उनके द्वारा स्थापित ‘अद्वैत वेदांत सम्प्रदाय’ 9वीं शताब्दी में काफ़ी लोकप्रिय हुआ. उन्होंने प्राचीन भारतीय उपनिषदों के सिद्धान्तों को पुनर्जीवन प्रदान करने का प्रयत्न किया. उन्होंने ईश्वर को पूर्ण वास्तविकता के रूप में स्वीकार किया और साथ ही इस संसार को भ्रम या माया बताया. उनके अनुसार अज्ञानी लोग ही ईश्वर को वास्तविक न मानकर संसार को वास्तविक मानते हैं. ज्ञानी लोगों का मुख्य उद्देश्य अपने आप को भम्र व माया से मुक्त करना एवं ईश्वर व ब्रह्म से तादाम्य स्थापित करना होना चाहिए. शंकराचार्य ने वर्ण पर आधारित ब्राह्मण प्रधान सामाजिक व्यवस्था का समर्थन किया. शंकराचार्य ने संन्यासी समुदाय में सुधार के लिए उपमहाद्वीप में चारों दिशाओं में चार मठों की स्थापना की.
बौद्धिक क्षमता के अतिरिक्त शंकराचार्य उच्च कोटि के कवि भी थे. उन्होंने 72 भक्तिमय और ध्यान करने वाले गाने व मंत्र लिखे. ब्रह्म सूत्र, भगवदगीता और 12 मुख्य उपनिषदों पर शंकराचार्य ने टीकाएं भी लिखीं. अद्वैत वेदांत दर्शन पर भी उन्होंने 23 किताबें लिखीं.
आदि शंकराचार्य के जीवन चरित में एक महान सन्यासी की दिग्विजय के दर्शन होते हैं। चमत्कारी घटनाओं से भरा उनका जीवन सनातन सत्य की प्रतिष्ठा करने वाले एक अनवरत पदयात्री जैसा है जिसने अपने ज्ञान प्रकाश से भारत की संस्कृति के सभी आयामों को प्रभावित किया।
आदि शंकराचार्य यात्रा करते हुए नर्मदा और माहिष्मति नदियों के संगम पर आये थे। उनसे संबंधित ओंकरेश्वर, उज्जैन, पचमठा (रीवा) और अमरकंटक आज के मध्यप्रदेश में अवस्थित है। भारत के इस हृदय प्रदेश के मन में यह बात सदियों से समायी हुई है कि आदि शंकराचार्य के गुरु श्री गोविंदपाद का आश्रम ओंकारेश्वर के तट पर ही था और उनकी प्राचीन गुफा आज भी वहाँ मौजूद है जहाँ लाखों श्रध्दालु उसके दर्शन करके अपने आपको धन्य मानते हैं। पास ही महेश्वर नगरी में निवास करने वाले आचार्य मण्डन मिश्र से शंकराचार्य के शास्त्रार्थ की लोक प्रसिध्द कथा आज भी भुलायी नहीं जा सकी है। जिसका निचोड़ यह है कि कर्मयोग के व्दारा अनासक्त भाव से मानव कल्याण के लिए अपना अपना कर्तव्य विधिवत पालन करने की शक्ति मिलती है। उसी शक्ति के व्दारा जीव, जगत और ब्रह्म की एकता समझ में आती है। प्रत्येक मनुष्य और समस्त जड़- चेतन में एक ही सत्ता विद्यमान है। सबको एक ही चौतन्य शक्ति बिना किसी भेद-भाव के चेतना प्रदान कर रही है। इसी अव्दैत भाव में जीवन जीते रहने से मानव कल्याण की राह प्रशस्त होती है। मानव समाज जड़ पदार्थ नहीं है,अपितु जीवित प्राणियों का समूह है। मनुष्य की अपनी स्वतंत्र इच्छा शक्ति है जिसके व्दारा वह व्यक्ति और समाज की उन्नति का मार्ग निकालता है। आदि गुरू शंकराचार्य मानव जाति को यह संदेश दे गये हैं कि यदि एक छोटा-सा समुदाय भी विश्व कल्याण के लिए अव्दैत भावना से भर उठे तो, संसार में हिंसा और रक्तपात को रोका जा सकता है।
भारत की सांस्कृतिक वीणा के ढीले पड़ गये तारों को शंकराचार्य ने एक कठिन समय में फिर मिलाकर दिखाया जिससे भारत अपने सनातन जीवन संगीत को फिर सुनकर आनंद विभोर हो सके। शंकराचार्य ने पूरे भारत की यात्रा करके अपने शास्त्रार्थों के माध्यम से एक गहन संवाद का मार्ग चुना क्योंकि वे अच्छी तरह जानते थे कि किसी को पराजित नहीं करना है बल्कि उस सत्य से उसका फिर सामना करा देना है जिसे वह भूल गया है और जिसके बिना मानव जाति का काम चल ही नहीं सकता।
पूरब का जगन्नाथपुरी स्थित गोवर्धन मठ, पश्चिम में शारदा मठ, दक्षिण में श्रृंगेरी मठ और उत्तर में ज्योतिर्मठ शंकराचार्य व्दारा स्थापित भारत के ज्ञान-संवाद पीठ ही तो हैं जो अपने आत्मकल्याण के लिए प्रयत्न करने वाले प्रत्येक मनुष्य को सदियों से अपने पास बुला रहे हैं।