अजमेर का राजकीय संग्रहालय इतिहास एवं पुरातत्व की दृष्टि से अत्यंत समृद्ध है। स्वतंत्रता से पूर्व यह राजपूताना संग्रहालय कहा जाता था,जिसे अब राजकीय संग्रहालय कहा जाता है।
भारत के वायसराय एवं गवर्नर जनरल लार्ड कर्जन की प्रेरणा से की गई थी। संग्रहालय में प्राचीन प्रतिमाएं, मृण प्रतिमाएं (टेराकोटा), शिलालेख, सिक्के, ताम्रपत्र, लघुरंग चित्र, उत्खनन से प्राप्त सामग्री राजपूत कालीन वेश-भूषाएं, धातु प्रतिमाएं तथा विभिन्न कलाओं से सम्बन्धित सामग्री संग्रहित की गई। इन पुरावस्तुओं एवं कला सामग्री को विभिन्न दीर्घाओं में बनी पीठिकाओं तथा शो-केस में प्रदर्शित किया गया है। संग्रहालय में 652 प्रस्तर प्रतिमाएँ, 84 शिलालेख, 3.986 सिक्के, 18 धातु सामग्री, 149 लघुचित्र, 75 अस्त्र – शस्त्र 363 टैराकोटा सामग्री,128 स्थानीय हस्तकला सामग्री एवं पूर्वेतिहासिक काल की सामग्री संग्रहित किया गया है।
संग्रहालय के पुरातत्व विभाग में सिन्धु नदी घाटी सभ्यता के प्रमुख स्थल मोहेनजोदड़ो (अब पाकिस्तान में) से उत्खनन में प्राप्त की गई मिट्टी की चूड़ियां, बरछी, तीर-ाीर्ष, अनाज के दाने, चाकू के रूप में प्रयोग होने वाले फ्लिट-फ्लेक, ांख, हथियारों में धार करने के पत्थर, मातृदेवी की प्रतिमाएं, खिलौने, विभिन्न प्रकार की ईंटें, कला, ढक्कन, खिलौना-गाड़ी के पहिये आदि मुख्य हैं। इसके अतिरिक्त उन मुहरों के नमूने भी रखे गए हैं जो सिन्धु नदी घाटी में पाई थीं। जिन वास्तविक वस्तुओं के ये नमूने हैं वे ईसा से 3000 वर्ष पूर्व की हैं। कुछ नमूनों में पशुओं के चित्रों के ऊपर चित्रलिपि की एक पंक्ति भी उत्कीर्ण है।
संग्रहालय की प्रतिमा दीर्घा में संग्रहालय में गुप्तकाल से लेकर 16वीं शती तक की प्रतिमांए संग्रहित हैं। लिंगोद्धव महेवर की सीकर से प्राप्त प्रतिमा लंदन एवं रूस में आयोजित कला प्रर्दानियों में भारत का प्रतिनिधित्व कर चुकी है। यहां चतुर्मुखी शिवलिंग, शिव-पार्वती तथा शिव-पार्वती विवाह से सम्बन्धित प्रतिमाएं उल्लेखनीय हैं। दर्शक गुप्त कालीन प्रतिमाओं को थोड़े से ही प्रयास से उनकी मांसलता के आधार पर पहचान सकता है। चौहान काल में 10वीं से 12वीं शती के मध्य बने शिल्प एवं स्थापत्य कला के नमूनों में मुख्य प्रतिमाओं में लिंगोद्धव महेवर, नक्षत्र, वराह स्वामी, लक्ष्मीनारायण, कुबेर तथा सूर्य प्रतिमा दर्शनीय हैं जो पुष्कर, अढ़ाई दिन का झोंपड़ा, बघेरा, हर्षनाथ (सीकर) आदि स्थलों से प्राप्त की गई हैं। कटारा से प्राप्त ब्रह्मा-विष्णु-महेश, अर्थूणा के इन्द्र एवं कुबरे, कुसुमा से प्राप्त शिव-पार्वती, आउवा से प्राप्त बलदेव-रेवती एवं विष्णु की प्रतिमाएं भी संग्रहालय की उल्लेखनीय प्रतिमाएँ हैं। प्रतिमाओं में सौन्दर्यभाव की अभिव्यक्ति देखते ही बनती है। इन प्रतिमाओं में भद्रता, सरलता, आध्यात्मिकता तथा जनजीवन का अद्धत दर्शन देखने को मिलता हैै।
जैन मूर्ति-दीर्घा में लगभग तीन दर्जन प्रतिमाएं प्रदर्शित हैं। अधिकतर प्रतिमाएं 10वीं से 17वीं शती के मध्य की हैं। बघेरा से प्राप्त कुंथुनाथ, पार्वनाथ तथा आदिनाथ, टांटोटी से प्राप्त शांतिनाथ, किशनगढ़ से प्राप्त सुपार्वनाथ, अजमेर से शांतिनाथ, चन्द्रप्रभु एवं जैन प्रतिमा का छत्र, कटारा से प्राप्त आदिनाथ, महावीर स्वामी तथा पार्वनाथ, अर्थूणा से प्राप्त जैन सरस्वती, बड़ौदा से प्राप्त आदिनाथ एवं वासुपूज्य, लाडनूं से प्राप्त कुंथुनाथ एवं हाथनों (जोधपुर) से प्राप्त गौमुखी-यक्ष इस संग्रहालय की उल्लेखनीय जैन प्रतिमाएँ हैं।
अजमेर संग्रहालय में दूसरी शताब्दी ईस्वी-पूर्व से लेकर मध्य युग तक केब्राह्मी, कुटिल एवं देवनागरी, संस्कृत, हिन्दी, डिंगल एवं फारसी आदि लिपियों आदि भाषाओं में उत्कीर्ण
प्राचीन महत्वपूर्ण शिलालेख प्रदर्शित किए गए है। साथ ही अभिलेखयुक्त प्रतिमाएं, स्मृतिफलक शिलालेख तथा ताम्रपत्रों का भी अच्छा संग्रह है। बरली का शिलालेख राजस्थान का प्राचीनतम शिलालेख कहलाता है।
अजमेर संग्रहालय में सोना, चांदी, तांबा, लैड तथा निकल के 3000 से अधिक सिक्के सुरक्षित हैं जिनमें भारतवर्ष के पूर्वेतिहासिक काल के पंचमार्का सिक्के सबसे पुराने हैं। पुष्कर से कनिंघम को मिली क्षत्रपों महपान, पायदामन, रूद्रदामन तथा रूद्रसिंह की कई मुद्राएं भी यहां संग्रहित की गई हैं। गुप्तकालीन सिक्कों में चन्द्रगुप्त (प्रथम) के राजा-रानी के सिक्के, समुद्रगुप्त के ध्वजधारी, धनुर्धारी, पराुधारी, वीणाधारी तथा अश्वमेघ प्रकार के सिक्के, कांच का दुर्लभ सिक्के तथा चन्द्रगुप्त विक्रमादित्य के विभिन्न प्रकार के सिक्के इस संग्रहालय की महत्वपूर्ण निधि हैं। चौहान अजयदेव के सिक्के में एक और बैठी हुई देवी का अंकन है तथा दूसरी ओर देवनागरी में अजयदेव लिखा हुआ है। अवारोही-वृषभ प्रकार के सिक्के के अग्र भाग पर ढाल और भाला लिए अवारोही तथा पीछे भाग पर शिव – नंदी बैठा है। कुषाणकालीन सिक्कों में ईरानी वेशभूषा में अंकित राजा दाहिने हाथ से अग्नि वेदी पर आहुति देते हुए अंकित है तथा बायां हाथ कटि पर बंधी तलवार थामे दिखाया गया है। राजा के पृष्ठ भाग शिव त्रिू शूल का अंकन है। राजा नुकीला टोप पहने है।
संग्रहालय की चित्रकला दीर्घा में कोटा, बूंदी, उदयपुर, जोधपुर, किानगढ़ एवं बीकानेर आदि रियासतों से प्राप्त विभिन्न चित्रौलियों के नमूने प्रदर्शित किए गए हैं। इनमें कोटा, करौली, टोंक, बीकानेर, जोधपुर, डूंगरपुर, भरतपुर, झालावाड़ तथा जयपुर के प्रमुख शासकों के चित्रों के साथ-साथ मथुराधीशजी, वल्लभ संप्रदाय, श्रीनाथजी, वासुदेव द्वारा कृष्ण को लेकर यमुना पार करने के चित्र, विभिन्न राग-रागिनियों के चित्र, गेरखनाथजी, अष्टछाप कवि, गुंसाईजी, चीर हरण, राम-रावण युद्ध, वल्लभाचार्यजी, विट्ठलनाथजी, भीष्म पितामह आदि के उल्लेखनीय चित्र सम्मिलित हैं।
संग्रहालय के एक कक्ष में विभिन्न प्रकार के प्राचीन अस्त्र-शस्त्र प्रदर्शित किए गए हैं। इनमें विभिन्न प्रकार की तलवारें, ढाल, कटार, फरसा, जागनोल, बंदूक, धनुषबाण तथा अनेक प्रकार के हथियार संगृहीत हैं। साथ ही एक मनुष्याकार राजपूत योद्धा का माॅडल रखा है जो मध्य-कालीन युद्धों के समय पहनी जाने वाली वेशभूषा से सुसज्जित है।
ऐसे बना संग्रहालय
भारत का वायसराय एवं गवर्नर जनरल लार्ड कर्जन 1902 ई. में अजमेर आया था। उसने राजपूताना की विभिन्न रियासतों में प्राचीन स्मारकों तथा विभिन्न स्थलों पर बिखरी हुई कलात्मक पुरावस्तुओं को देखा। कर्जन ने भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण के महानिदेशक सर जाॅन र्मााशल को निर्देश दिए कि वे इस पुरा सामग्री को संरक्षित कर एक संग्रहालय की स्थापना करें। ब्रिटिश पुरातत्वविद् अलैक्जेण्डर कनिंघम, आर्चिबाल्ड कार्लेयल, डी. आर. भण्डारकर, आर. डी. बनर्जी, गौरीांकर हीराचंद ओझा, यू. सी. भट्टाचार्य आदि पुरातत्वविदों एवं इतिहासविदों ने इस संग्रहालय के लिए पुरातत्व सामग्री, प्राचीन प्रतिमाओं, शिलालेखों, सिक्कों, ताम्रपत्रों, पुस्तकों, चित्रों आदि को एकत्रित करने में महत्वपूर्ण योगदान दिया। ब्रिटिश सरकार द्वारा किए जा रहे इस कार्य में सहयोग देने के लिए देशी रियासतों के अनेक राजा भी आगे आए। फलस्वरूप अजमेर संग्रहालय प्राचीन इतिहास, कला एवं संस्कृति का महत्वपूर्ण संग्रहालय बन गया। गवर्नर जनरल के एजेन्ट सर इलियट ग्राहम कोल्विन ने 1908 ई. में संग्रहालय का उद्धाटन किया। इसे अजमेर संग्रहालय एवं राजपूताना संग्रहालय कहा जाता था। स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद इसे राजकीय संग्रहालय कहा जाने लगा।
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं व राजस्थान जनसंपर्क विभाग के सेवा निवृत्त अधिकारी हैं)