पर्वतीय क्षेत्र में बसा अजमेर अरावली पर्वतमाला का एक हिस्सा है, जिसके दक्षिण-पश्चिम में नागा पहाड़ से लूणी नदी निकलती है। बीटली पहाड़ी की चोटी पर तारागढ़ किला स्थित है। पौराणिक,ऐतिहासिक,धार्मिक संदर्भ हो या भू -गर्भीय सम्पदा,प्राकृतिक एवम नेसर्गिग सौन्दर्य या फिर शिक्षा-संस्कृति जैसी अपनी अनुपम खूबियों के कारण अजमेर जिला राजस्थान का ह्रदय स्थल तथा राजस्थान का जिब्राल्टर कहा जाता है। पहाड़ियों से घिरी हरी भूमि में स्थित सातवीं शताब्दी में अजयपाल चौहान द्वारा स्थापित अजमेर एक दिलचस्प अतीत का साक्षी है। यह नगर 12 वीं शताब्दी तक आते-आते एक महत्वपूर्ण नगर बन गया।चौहानों की मजबूत पकड़ 1195 तक अजमेर में बनी रही, जब तक मोहम्मद गोरी, एक अफगान शासक ने आखिरी चौहान सम्राट पृथ्वीराज को हरायाा। वर्ष 1556 में मुगल सम्राट अकबर ने अजमेर जीता और अजमेर को राजस्थान राज्य में अपने सभी अभियानों के मुख्य मुख्यालय के रूप में इस्तेमाल किया।
मुगलों के पतन के बाद, अजमेर शहर का नियंत्रण मराठों के अधीन हो गया, खासकर ग्वालियर की सिंधिया। ब्रिटिश शासन में स्वतंत्रता से पूर्व अजमेर-मेरवाड़ा ब्रिटिश प्रान्त थे शहर का प्राचीन नाम अजयमेरु था जो बाद में आगे चल कर अजमेर हो गया। राजस्थान में स्वतंत्रता संग्राम के संघर्ष का बिगुल अजमेर के नसीराबाद से बजा। नसीराबाद छावनी आज भी देश में अपनी पहचान रखती है। यहां का मेयो कॉलेज आज भी शिक्षा के क्षेत्र में विख्यात है। किशनगढ़ का संगमरमर पत्थर उद्योग एवं मार्बल के सजावटी समान प्रसिद्ध हैं। किशनगढ़ की पेंटिंग बणी ठणी को भारत की मोनालिसा कहा जाता है। कार्तिक माह में आयोजित होने वाला पुष्कर मेला दुनिया भर में प्रसिद्ध है। पहली रजब से नो रजब तक अजमेर में आयोजित होने वाले ख्वाजा साहब के उर्स में देश -विदेश से जायरीन शामिल होते हैं।
अजेय तारागढ़ का दुर्ग (गढ़ बीटली)
गढ़ बीटली के नाम से विख्यात अजमेर की पश्चिमी पर्वत श्रेणियों के शिखर पर तारे के समान चमकता तारागढ़ पूर्वी राजस्थान का एक सुदृढ़ दुर्ग है। तारागढ़ को गढ़ बीटली नाम 17 वीं शताब्दी में प्राप्त हुआ जब शाहजहाॅ के सेनाध्यक्ष बीठलदास गौर द्वारा 1644 से 1656 ईस्वी के मध्य इसका जीर्णोद्धार कराया गया।अजमेर की पश्चिमी पहाड़ी पर 80 एकड़ क्षेत्र में विस्तृत यह दुर्ग भूमि की सतह से 1.300 फीट की ऊंचाई पर स्थित है। गिरि दुर्ग होने के कारण पहाड़ियों की बनावट तथा घुमावों को आधार बनाकर ही इसके प्राचीरों की रचना की गई जो अजमेर नगर के शीर्ष पर प्रहरी के समान खड़ा पश्चिमी भारत के प्रवेश द्वार की रक्षा करता है। तारागढ़ दुर्ग लम्बे समय की यात्रा कर अब ऐतिहासिक स्मारक बन गया है। गढ़ में सबसे ऊंचे स्थान पर निर्मित मीर साहब की दरगाह दर्शनीय है। दरगाह तारागढ़ के प्रथम गवर्नर मीर सैयद हुसैन खिंगसवार की है।
पृथ्वीराज पार्क
तारागढ़ के मध्य में एक छोटी पहाड़ी पर प्रतापी नरेश पृथ्वीराज चैहान की श्याम वर्ण की आर्कषक प्रतिमा स्थापित कर पृथ्वीराज पार्क विकसित किया गया है जिससे तारागढ़ के महत्व में अभिवृद्धि हुई है। यह आधुनिक पार्क खूबसूरत फूलों, हरे-भरे लाॅन तथा बच्चों के मनोरंजन के लिए झूले आदि से सुन्दर बनाया गया हैै। यहां पृथ्वीराज के जीवन से सम्बंधित घटनाओं को विभिन्न कक्षों में प्रदशनी के रूप में चित्रों के माध्यम से प्रदर्शित किया गया है। एक ऊंचे पक्के चबूतरे पर सम्राट पृथ्वीराज की श्याम वर्ण प्रतिमा दौड़ते हुए घोडे़ पर बनायी गयी है। प्रतिमा के सामने भूमि पर एक नक्शा बनाकर पृथ्वीराज के जीवन से संबधित स्थलों को दर्शाया गया है। यह खूबसूरत पार्क सैलानियों को अपनी ओर आर्कषित करता है।
अढ़ाई दिन का झोंपड़ा
स्थापत्य कला की दृष्टि से विश्व की अति सुन्दर इमारतों में शामिल किये जाने योग्य इस प्राचीन भवन का निर्माण 1152-53 ईस्वी में चौहान नरेश विग्रहि राज चतुर्थ ने कराया था। इसे मस्जिद में बदलने का कार्य कुतुबुद्दीन एबक ने किया जो 1199 ई. तक चलता रहा। उन्नीसवीं सदी में यहां पंजाब से आकर कोई संत (पंजाब शाह बाबा) रहने लगे और यहां उसका देहान्त हो गया। उनका उर्स मनाने के लिए फकीर गण यहां ढाई दिन तक रहने लगे और तभी से यह प्राचीन विद्यालय भवन ढ़ाई दिन का झौंपड़ा कहा जाने लगा है। यह भवन 254 वर्ग फीट की लगभग 15 फीट ऊंची चोकोर चौंकी पर लाहित पीत वर्णी पत्थरों से बना हुआ था। पूर्व में मुख्य द्वार पर चार झरोखे थे जिनमें तीन अभी देखे जा सकते हैं। एक विशाल द्वार दक्षिण में था जो टूटी-फूटी अवस्था में अभी भी है। बांई तरफ के समस्त निर्माण लुप्त हो गये हैं केवल 8-10 फीट चौड़ी दीवार शेष है। मुख्य द्वार के बिल्कुल सामने पश्चिम दिशा के भवन में लगभग 84 फीट ऊंचें स्तम्भ यथावत हैं।
इस भवन की छत नयनाभिराम है जिसमें पांच विशाल गुम्बद कलात्मक स्तंभों पर दर्शनीय हैं। इस की 185 फीट लम्बी और 56 फीट ऊंची कलात्मक दीवार पर छह छोटे एवं एक बड़ा मेहराब बना है। यह मेहराब मुस्लिम काल का है तथा उस पर कुरान की आयतों के अलावा अरबी शैली के बारीक उत्कीर्ण हैं। गुम्बदों के भीतरी भागों पर बारीक स्थापत्य और इसी भांती इनके दोनों तरफ अनके ब्लाक में विविध आकारों का उत्कीर्ण मनमोहक है। भवन के पूरब की तरफ साढ़े ग्यारह फीट मोटी स्क्रीन वाली दीवार में सात खूबसूरत मेहराब हैं।
आना सागर झील
यह भारत की सुन्दरत्म दस झीलों में शामिल है। आना सागर झील का निर्माण सन् 1135-40 में अजमेर के चौहान राजा अर्णोराज (आना जी) ने कराया था। पहाड़ियों के मध्य पूर्व दिशा में 20 फीट चौड़ा और 1012 फीट लम्बा बांध बनवाया गया। झील की पूर्वी पाल पर 1637 ई. में मुगलबादशाह शाहजहां ने संगमरमर का 1240 फीट शानदार कटरा लगवाया, पांच संगमरमर की खूबसूरत बारह दरियां और एक “टर्किश बाथ” का निर्माण कराया। उसने सम्पूर्ण पाल पर लाल पत्थर लगवाया। यह स्थान इतना खूबसूरत बन गया कि मुगल बादशाह शाहजाहां और शहजादे अजमेर आगमन पर अकसर यहीं ठहरते थे। जहांगीर के समय उसके एक मंत्री दौलतराव ने बारहदरी के नीचे दौलतबाग बनवाय था जो उस समय शाही बगीचा था और चार दीवारी में सुरक्षित था। झील में सैलानी बोटिंग का लुत्फ उठाते हैं।
हैप्पी वेली :
अजमेर से कुछ ही दूरी पर हैप्पी वेली के बेहद मनोरम प्राकृतिक घाटी है। यहां अजैसर गांव से सीधे पहुंचा जा सकता है। नाग पहाड़ का पश्चिमी छोर यहां काफी नीचा हो गया है और अनेक छोटी-छोटी पहाड़ियों के उभारों के बीच यह सुरम्भ्य उपत्यका बड़ी नाल नामक दुर्गम पहाड़ी और सघन जंगल के रास्ते चश्में की घाटी तक चली गई है। इसी घाटी से सागरमती नदी निकलती है जो डूमाड़ा, पीसांगन व गोविन्दगढ़ होती हुई मारवाड़ में लूनी नदी के रूप में जानी जाती है। इस घाटी में अजयपाल बाबा का मंदिर है जिसमें बाबा की सोटाधारी प्रतिमा है। प्रतिवर्ष भाद्र पद माह में दूसरे पखवाडे़ के छठे दिन यहां अजयपाल बाबा का मेला भरता है और जाने कहां-कहां से मेले में कनफटे जोगी आकर उन दिनों यहां डेरा जमा लेते हैं। यहां एक शिवमंदिर एवं पानी के दो कुंड बने हैं। यह स्थान वर्षाकाल में एक मनमोहक स्थल बन जाता हैं।
दौलतखाना — मेगजीन
नया बाजार स्थित राजपूताना संग्रहालय (मेगजीन) मुगल बादशाह अकबर का महल (दौलतखान) है। इसका निर्माण 1571 से 1574 तक तीन वर्ष में हुआ था। इस आयताकार इमारत के प्रत्येक कोने में एक विशाल बुर्ज है। भूरे पत्थर से निर्मित इस भवन का मुख्यद्वार 84 फीट ऊंचा और 43 फीट चौड़ा है। सन् 1857 की क्रांति के दौरान इसकी किलाबंदी कर बुर्जों पर तोपें तैनात की गई। मुख्य द्वार को बंद कर दिया गया तथा आने जाने के लिए एक छोटा सा द्वार दक्षिण में बनाया। भवन में 19 अक्टूबर 1908 को राजपूताना संग्रहालय खोला गया। मैगजीन के केन्द्रीय कक्ष में जो पुस्तकालय हैं उसमें इतिहास की प्राचीन पुस्तकों व दुर्लभ ग्रंथों का संग्रह है। संग्रहालय में अनेक प्राचीन शिलालेख, मूर्तियां व सिक्के सुरक्षित हैं। यह भवन केन्द्रीय सरकार के अधिग्रहण में है।
सोनीजी की नसियां-चैत्यालय
आगरा गेट व दौलत बाग के बीच विख्यात सोनीजी की नसियां स्थित है। बजरंगगढ़ से देखने पर यह लाल प्रस्तर कमल जैसी नजर आती है। करौली के लाल पत्थर से निर्मित यह विशाल मंदिर अपने शिल्प सौन्दर्य एवं कलात्मक चित्रकारी-पच्चीकारी के लिए प्रसिद्ध है। इसका निर्माण अजमेर के जाने माने सोनी परिवार ने कराया है। सोनीजी की नसियां को मूलतः तो सिद्धकूट चैत्यालय कहते हैं। इस चैत्यालय के दो भाग हैं मंदिर और नसियां ।
सिद्धकूट चैत्यालय का निर्माण राय बहादुर सेठ स्व. मूलचन्द सोनी ने कराया था। यहाँ 26 मई 1865 को मंदिर में मूलनायक आदिनाथ भगवान की प्रतिमा स्थापित की गई। मंदिर का प्रवेश द्वार उत्तर दिशा में है। किसी किले के तोरण द्वार जैसा विशाल ऊंचा कलात्मक यह द्वार करौली के लाल पत्थर से निर्मित है। मंदिर और इस द्वार के बीच में 84 फीट ऊंचा संगमरमर में निर्मित मान स्तंभ है जिसके तरफ ऐरावत हाथी हैं एवं स्तंभ के ऊपर भगवान आदिनाथ, चन्द्रप्रभु, शांतिनाथ एवं महावीर स्वामी की प्रतिमाएं हैं। मंदिर की मूल वेदी में आदिनाथ भगवान की छोटी बड़ी चार प्रतिमाएं हैं। इस वेदी का अब जीर्णोद्वार हो चुका है।
नसियां
जैन धर्म से जुड़ी हुई सोनी जी की नसियां अजमेर का कलात्मक गौरव है। स्थापत्य की दृष्टि से यह बेजोड़ और विश्व पर विख्यात है। करौली के लाल पत्थरों से निर्मित यह 89 फीट लम्बा और 64 फीट चौड़ा और 92 फीट ऊंचा दो मंजिला भवन है। इसके चारों और कलात्मक छतरियां, स्वर्ण कलश और भव्य गुम्बद हैं। दृष्यांकन सुनहरे हैं और सोने की नगरी का आभास देते हैं। अनुकृतियां स्थापत्य, कटाई, जड़ाई एवं पच्चीकारिता की दृष्टि से बेजोड़ है।
तीर्थराज पुष्कर
पुष्कर नागा पहाड़ की गोद में रेतीले धरातल पर बसा है। चारों तरफ हरी-भरी पहाड़ियां हैं तथा अनेक जलकुण्ड हैं। यहां रत्नगिरी, पुरूहुता तथा प्रभुता की पर्वत श्रृंखलाएं मौजूद हैं। सुरम्य पर्वत श्रृंखलाओं के मध्य स्थित तीर्थराज पुष्कर का महात्म्य वेद, पुराण, महाकाव्य, साहित्य, शिलालेख एवं लोक कथाओं में वर्णित है। अजमेर शहर से करीब 13 किलोमीटर दूरी पर स्थित पुष्कर अपनी अनेक विशेषताओं के कारण आज न केवल भारत में वरन् दुनिया का महत्वपूर्ण धार्मिक पर्यटक स्थल के रूप में पहचान बनाता है। पुष्कर में कार्तिक पूर्णिमा पर लगने वाला पशु मेला विदेशी सैलानियों के आकर्षण का प्रमुख केंद्र है। इसमें विदेशी पर्यटकों के मनोरंजन के लिए अनेक प्रकार की रोचक और रोमांचक प्रतियोगिताएं आयोजित की जाती हैं।
धार्मिक स्थल के रूप में पुष्कर आज अन्तर्राष्ट्रीय पर्यटन स्थल बन गया। अर्धचन्द्राकार पवित्र पुष्कर सरोवर प्रमुख धार्मिक पर्यटक स्थल है। यहां 52 घाट बने हैं जिन पर 700 से 800 वर्ष प्राचीन विभिन्न देवी-देवताओं के मंदिर बनाए गए हैं। देश के चार प्रमुख सरोवरों में माना जाने वाला पुष्कर सरोवर की धार्मिक आस्था का पता इसी बात से चलता है कि यहां स्नान करने से मोक्ष की प्राप्ति होती है। सूर्योदय एवं सूर्यास्त का दृष्य अत्यंत ही मनोरम होता है। इस दृष्य को देखने के लिए घाटों पर सैलानियों का जमावड़ा देखा जा सकता है।
वराह मंदिर
पुष्कर सरोवर के वराह घाट के पास स्थित वराह चौंक से एक रास्ता बस्ती के भीतर इमली मोहल्ले तक जाता है, जहां यह विशाल मंदिर स्थापित है। प्राचीनता की दृष्टि से करीब 900 वर्ष पुराना वराह मंदिर का निर्माण अजमेर के चौहन शासक अर्णीराज ने कराया था। करीब 30 फुट ऊंचा मंदिर, चौड़ी सीढ़ियां तथा किले जैसा प्रवेश द्वार आकर्षण का केन्द्र है। मंदिर का वर्तमान स्वरूप 1727 ईस्वी का है। मंदिर पुष्कर के पाराशर ब्राह्मणों की आस्था का केन्द्र बिंदु है। मुख्य मंदिर में विष्णु के अवतार वराह भगवान की मूर्ति स्थापित है। मूर्ति के नीचे सप्त धातु से निर्मित करीब सवा मन वजन की लक्ष्मी-नारायण की प्रतिमा है। जलझूलनी ग्यारस पर लक्ष्मी-नारायण की सवारी धूमधाम से निकाली जाती है। चैत्र माह में वराह नवमी के दिन भगवान का जन्मदिन मनाया जाता है। जन्माष्टमी व अन्नकूट के अवसर पर उत्सव आयोजित किए जाते हैं। मंदिर में विशेष कर चावल का प्रसाद चढ़ता है।
विश्व प्रसिद्ध ब्रह्मा मंदिर
सृष्टि के रचयिता ब्रह्मा जी का प्राचीन देवालय धरातल से करीब 60 फीट की ऊंचाई पर स्थित है। विशाल मंदिर में प्रवेश करते ही बांयी ओर ऐरावत हाथी पर देवराज इन्द्र की प्रतिमा तथा दांयी ओर कुबेर की प्रतिमा बनी है। बांयी तरफ ही सिद्धेश्वेर महादेव एवं नवग्रह के मंदिर भी हैं। इसी ओर तिबारी की एक दीवार में छोटे-छोटे शिलालेख लगे हैं। मंदिर परिसर में दांयी तरफ गणेश जी, श्री कृष्ण एवं शिव के मंदिर हैं। चारों वेद भी यहाँ रखे गए हैं। ब्रह्मा मंदिर का विशाल प्रांगण संगमरमरी पत्थर के सौन्दर्य से बना है। यहीं पर पातालेश्वर महादेव का मंदिर भी है। दांयी तरफ सीढ़ियां उतरकर नीचे जाने पर प्राचीन शिवलिंग, गणेश जी, माता पार्वती और पंचमुखी महादेव की प्रतिमाएं हैं। प्रवेश द्वार के भीतरी भाग पर ब्रह्मा का वाहन राजहंस है। प्र
मुख मंदिर के गर्भगृह में ब्रह्मा जी की बैठी हुई मुद्रा में आदमकद प्रतिमा स्थापित है। चतुर्मुखी इस प्रतिमा के तीन मुख सामने से दिखाई देते हैं। प्रतिमा को करीब 800 वर्ष पुराना बताया जाता है। सैंकड़ों वर्षों से प्रतिमा का प्रतिदिन जलस्नान व पंचामृत अभिषेक किया जाता है। मंदिर परिक्रमा मार्ग में सावित्री माता का मंदिर स्थापित किया गया है। ब्रह्मा का ऐसा मंदिर अन्यत्र नहीं होने से इस मंदिर का अपना विशेष महत्व है। मंदिर के पीछे रत्नगिरी पहाड़ पर सावित्री माता का मंदिर बना है। यहाँ तक पहुँचने के लिए पैदल रास्ता है एवं रोपवे की सुविधा भी है। इस मंदिर से पुष्कर का नयनाभिराम दृष्य दिखाई देता है।
श्री रमा वैकुण्ठ मंदिर
ब्रह्मा जी के मंदिर के बाद इस मंदिर का विशेष महत्व है जिसे रंगा जी का मंदिर भी कहा जाता है। मंदिर करीब 20 बीघा भूमि पर बना है। मंदिर का निर्माण डीडवाना के उद्योगपति मंगनीराम बांगड़ ने वर्ष 1920-25 में कराया था, जिस पर करीब 8 लाख रूपये व्यय किए गए। मंदिर का प्रवेश द्वार आकर्षक एवं विशाल है। भीतर जाने पर सामने ही रमा वैकुण्ठ का मंदिर नजर आता है। मंदिर के ऊतंग गोपुरम पर 350 से अधिक देवताओं के चिन्ह बने हैं जो दक्षिण भारतीय स्थापत्य कला शैली का अनुपम उदाहरण है। मंदिर के सामने प्रांगण में ही एक बड़ा स्वर्णिम गरूड़ ध्वज नजर आता है।
मंदिर के पास अभिमुख गरूड़ मंदिर स्थापित है। मुख्य प्रतिमा व्यंकटेश भगवान विष्णु की काले पत्थरों की आभूषणों एवं वस्त्रों से सुसज्जित है। इसी को वैकुण्ठ नाथ की प्रतिमा कहा जाता है। मंदिर में ही श्रीदेवी, तिरूपति नाथ, भूदेवी, लक्ष्मी व नरसिंह की मूर्तियां भी हैं। परिक्रमा मार्ग में दीवारों पर आकर्षक रंगीन चित्र बने हैं जिनमें विविध देवी-देवताओं की झांकियां प्रदर्शित की गई हैं। दीवार पर जगह-जगह काले पत्थर की छोटी प्रतिमाएं भी बनाई गई हैं। परिक्रमा मार्ग में ही संगमरमर के कलात्मक स्तंभ बने हैं। मंदिर के दोनों तरफ द्वारपाल एवं ऐरावत हाथी हैं। बड़े परिसर में मुख्य दरवाजे के बांयी तरफ लक्ष्मीनारायण मंदिर, उत्सव मंडप व झूला मंडप बने हैं। दांयी ओर रामानुज स्वामी का मंदिर है। मुख्य मंदिर के पीछे की तरफ यज्ञशाला एवं बगीचा बनाए गए हैं। झूलोत्सव सावन के हिण्डोलों के रूप में दूर-दूर तक विख्यात है। ग्यारस और पूनम के हिण्डोले विशेष रूप से प्रसिद्ध हैं।
रंगनाथ वेणुगोपाल मंदिर
दक्षिण भारत स्थापत्य शैली पर आधारित भगवान रंगनाथ वेणुगोपाल का विशाल मंदिर वराह चौंक के पास स्थित है। मंदिर का निर्माण दक्षिण भारत के एक सेठ पूरनमल गनेरीवाल द्वारा 1844 ईस्वी में करवाया गया था। मंदिर का गोपुरम और कलश दूर से ही नजर आता है। विशाल द्वार से अंदर प्रवेश करने पर पक्का दालान और कमरे बने हैं। यहीं पर उतंग स्वर्णिम गरूड़ ध्वज है, जिसके पास गरूड़ का छोटा सा मंदिर है, जो भगवान वेणुगोपाल की तरफ मुख किए हुए है। दांयी ओर मुख्य मंदिर की सीढ़ियां जाती हैं। गर्भगृह में बंशी बजाते हुए भगवान वेणुगोपाल की श्याम वर्ण की लुभावनी प्रतिमा है। मंदिर मकराना के श्वेत पत्थर से निर्मित है, जिसके दोनों ओर जय-विजय द्वारपाल हैं। इसी मंदिर में रूकमणी, श्रीकृष्ण, भूदेवी, सत्यभामा की पंचधातु की प्रतिमाएं हैं। पुष्कर में कई अनेक मंदिर होने से इसे मंदिरों की नगरी भी कहा जाता है।
रावली टाटगढ़ वन्य जीव अभयारण्य
रावली टाटगढ़ अभयारण्य पाली, अजमेर एवं उदयपुर जिले में स्थित है। इसकी स्थापना 28 सितम्बर 1983 को की गई। इसका क्षेत्रफल 463.03 वर्ग किलोमीटर है।
यह पहाड़ी क्षेत्र है और अरावली की पर्वत श्रंखलाएं फैली हुई हैं। । वर्षा के बाद वन बहुत हरा-भरा हो जाता है और कामली घाट से गोरम घाट के बीच ट्रेन से यात्रा करना बड़ा ही सुखद लगता है। यहाँ पाए जाने वाले वन्य जीवों में प्रमुख हैं बघेरा, जरख, भेड़िया, जंगली बिल्ली, सियार, जंगली सूअर, चीतल, सांभर नीलगाय, मोर, जंगली मुर्गे, ग्रीन पिजन आदि। अभयारण्य के बीच ’दूधालेश्वर महादेव’ नामक एक अत्यन्त रमणिक धार्मिक स्थान है। भीम के करीब 15-17 किलोमीटर दूर वन विश्राम गृह के सामने एक बड़ा तालाब है, जहाँ पर इग्रेट, स्पूनबिल, सारस, कार्मोरेंट आदि पक्षी देखे जा सकते हैं।
नरेल जैन तीर्थ
अजमेर से करीब 10 किलोमीटर दूर नरेली ज्ञानोदय जैन तीर्थ की स्थापना सन्त सिरोमणी आचार्य 108 श्री विद्यासागर जी महाराज के परम शिष्य मुनि पुंगव सुधाकर जी महाराज एवं क्षुल्लक गम्भीर सागर जी एवं क्षुल्लक धैर्य सागर जी महाराज की प्रेरणा एवं सानिध्य में 30 जून 1995 को करीब 300 बीघा भूमि पर हुई। विश्व में प्रथम 1008 भगवान शान्ति नाथ, भगवान कुंदनाथ, भगवान अरहनाथ की 24 हजार किलोग्राम की अष्टधातु की अलोकिक अनुपम विशाल सौम्य मूर्तियों को मंदिर बनने से पूर्व ही मूल स्थान पर विराजमान कर दिया गया। मूर्तियां इतनी विशाल कि मंदिर निर्माण के बाद उन्हें मंदिर में प्रतिस्ठापित करना संभव नहीं था। यह मंदिर भारत में अपने सौन्दर्य और विशालता की दृष्टि अनुपम जैन तीर्थ बन गया है।
किशनगढ़ फोर्ट
किशनगढ़ फोर्ट का निर्माण 1649 ईस्वी में महाराजा रूपसिंह द्वारा कराया गया था। यह किला मुगल एवं राजपूत शिल्पकला का एक अच्छा उदाहरण है। किले को इसके निर्माता के नाम पर रूपनगढ़ फोर्ट भी कहा जाता है। यह किला अजमेर शहर से 27 किलोमीटर दूरी पर है। यह किला आमजन की पहुंच से बाहर है तथा केवल वही व्यक्ति इसे देख सकते हैं जो किले के साथ बने होटल फूल महल पैलेस में ठहरते हैं। किशनगढ़ के समीप ही दक्षिण पूर्व में सुखसागर के समीप नवग्रह का एक आधुनिक मंदिर और 15 किमी. पर खोडा गणेश जी का मन्दिर भी दर्शनीय हैं।