कल तक रोज़ बीजेपी के 10 विधायकों को सपा में लाने के दावे के बाद अचानक अखिलेश ने नया राग अलाप दिया की अब भाजपा विधायकों को वह नहीं लेंगे। जिस पल यह कहा उसके कुछ समय बाद ही गोरखपुर से भाजपा विधायक डॉ राधामोहन अग्रवाल को सपा में आने का निमंत्रण भी भेज दिया।
वास्तविकता तो यह है की जो ज़मीन पर स्थिति बन गयी उसे देखकर कोई भी अब सपा में जाने की हिम्मत नहीं कर रहा है। ठाकुर और वैश्य पूरी तरह भाजपा के साथ हैं, जो ब्राह्मण थोड़ा बहुत उधर जा रहे थे, वह भी कल की गाली सुनने के बाद भाजपा की तरफ़ आ गए। कुछ लोग तो हर समाज में होते हैं ऐसे 10% लोगों की बात छोड़ दी जाए।
भाजपा की सबसे बड़ी जीत दलित वोटों में सेंध है और मायावती से परोक्ष गठबंधन। यह गुप्त समझौता सारे सत्ता समीकरण बदल देगा, देखते रहिए। भाजपा ने मुस्लिम वोट बैंक में भी सेंध लगायी है जिसका असर चुनाव परिणामों में साफ़ दिखेगा।
जाटलैंड में सपा रालोद ने जहां दहाई में भी जाटों को सीट न दे पाए, वहीं भाजपा ने उनके गठबंधन से दो गुने जाट अर्थात् 16 को प्रत्याशी बना दिया। इसी तरह मौर्य समाज के ठेकेदार पुत्रमोह में सपा में गए और दूसरी तरफ़ इस संयुक्त समाज से पहले ही खेप में भाजपा ने 12 उम्मीदवार बना दिया।
20 विधायकों का टिकट कटा है पर सब शांत हैं अपने समायोजन के लिए और भाजपा कर भी लेगी क्यूँकि बड़ी पार्टी है।
दारा सिंह चौहान इस्तीफ़े के बाद अखिलेश से मिले उसके बाद उन दोनों के बीच बात बन ही नहीं रही है। दारा सिंह को सपा में भी वहीं मिल रहा है जो भाजपा ऑफ़र कर रही थी पर तब जीतने की गारंटी थी और अब वह भी नहीं है।
चंद्रशेखर रावण से भी बात नहीं बन पायी और चिढ़ कर चंद्रशेखर ने यहाँ तक कह डाला की जिस पार्टी का सपा से गठबंधन होगा, वह उससे भी गठबंधन नहीं करेगा।
इस पूरे एक सप्ताह के उठापटक से सपा के पास दो ढपोर शंख बस जुड़े हैं, पहले स्वामी प्रसाद मौर्य ( जिनको उनकी जाति के लोग ही अपना नेता मानने को तैयार नहीं) जिन्होंने सभी सवर्ण जातियों को सपा से बहकाया और दूसरे ओमप्रकाश राजभर जो पहले से ही दो कौड़ी की भाषा का प्रयोग कर रहे हैं, इस कांड का मास्टर बन कर उभरे। खुद राजभर की स्थिति यह है की जनता के ग़ुस्से के भय से खुद के विधानसभा क्षेत्र से दूर बैठा है। वास्तव में ग़ैर यादव पिछड़ा आज भी भाजपा से ही जुड़ा दिख रहा है।
अपना दल कृष्णा पटेल ग्रुप को बैठक में बीच की कुर्सी देकर खुश तो कर लिया पर टिकट के नाम पर दो टिकट देने का वादा कर रहे हैं और इसके आधार पर चाहते हैं की पूरा कुर्मी वोट उन्हें मिल जाय।
सपा ने न्यूज़ चेनलो के द्वारा माहौल बनाने का प्रयास तो खूब किया पर एक सप्ताह के भीतर भीतर परसेप्शन की लड़ाई में बिलकुल पीछे चले गए।
जैसे जैसे टिकट वितरण होता जाएगा, यह लड़ाई एकदम से एकतरफ़ा होती नज़र आएगी। यदि जातिय आँकड़े जीत दिलाने का कुवत रखते तो 2019 लोकसभा चुनाव में सपा बसपा गठबंधन को कम से कम 60 लोकसभा सीटें मिलनी चाहिए थीं। ये दोनों सिमट गए 15 सीट पर।
भाजपा ने वोटर के बजाय लाभार्थी बनाया है, जिसको पुराने राजनीति से उससे अलग थलग कर पाना लगभग असम्भव है।
2014 में जब लोकसभा चुनावों का परिणाम आया था तो भाजपा ने 73 सीटें यूपी में जीती थीं. उस समय भाजपा के पास मात्र एक सहयोगी पार्टी थी अपना दल. भाजपा को 337 विधानसभा सीटों पर बढ़त मिली थी. केशव मौर्य जी तब पहली बार सांसद बने थे. यूपी के प्रभारी अमित शाह ने तब केशव मौर्य को यूपी भाजपा का अध्यक्ष बनाकर अपने अश्वमेध का अश्व छोड़ दिया था.
तब कोई स्वामी, दारा, सैनी, ओमप्रकाश राजभर जैसे तथाकथित दिग्गज नेता भाजपा के सहयोगी नहीं थे. उस समय भाजपा के पास जो था वो मोदी का करिश्मा था, अमित शाह की कुशल रणनीति थी और संघ/भाजपा के कैडर का परिश्रम था. ये सभी तो बाद में सत्ता की मलाई चाटने के लिये जुड़े थे. तब ये आरोप क्या लगाते थे कि सपा कि सरकार में मात्र यादवों की चलती है और यादव सभी पिछड़ों का हक अकेले घोंट जा रहे हैं. इन्हें पता चल गया था कि हाथी वाली बहन जी सत्ता में आने वाली नहीं हैं. सभी पूर्व के बसपाई थे या बसपा से जुड़े हुए थे.
05 साल सत्ता की मलाई चाटने वाले कथित दिग्गज नेताओं में किसी की स्वयं की इतनी क्षमता नहीं है कि वो अपने भरोसे एक विधानसभा सीट निकाल सकें. स्वामी प्रसाद का पुत्र तो भाजपा की प्रचंड लहर में भी हार गया था . जबकि ओमप्रकाश राजभर 08 सीटों में मात्र 04 जीत कर सबसे कम स्ट्राइक रेट के साथ पहली बार विधानसभा की देहरी लांघ सके थे. आज भी इन कथित दिग्गजों को विधायक बनने के लिये किसी कैडर वाली पार्टी के सहयोग की ही आवश्यकता है.
ध्यान रहे कि 2017 में भाजपा के लिए वातावरण तब बनना प्रारंभ हुआ था जब भाजपा ने 2014 में लोकसभा की 73 सीटें जीत ली थीं. क्या समाजवादी पार्टी भी आज उसी हैसियत में खड़ी है ? पाँच सांसदों वाली सपा से कहीं अधिक सांसद बसपा के हैं. भाजपा आज भी 65 सांसदों के साथ दमदार स्थिति में है, सपा + बसपा का गठबंधन भी उसका कुछ उखाड़ नहीं सका था.
ये मात्र मीडिया का अटेंशन भाजपा द्वारा उत्तर प्रदेश में किये गए ऐतिहासिक विकास कार्यों से हटाने का प्रयास भर है. विपक्ष और उसके सहयोगी मीडिया को भी पता है कि विगत पाँच वर्षों में योगी जी ने जैसी सरकार चलाई है, हिंदुत्व और सनातन की प्रतिष्ठा के लिये जो प्रतिमान स्थापित किया है, माफिया/अपराधी/दंगाई/भ्रष्टाचारियो को बुलडोजर से रौंदा है तो एक्सप्रेस वे भी बनवाये हैं. ऐसे में राजनीति को लूट, खसोट, जोड़-तोड़, भाई, भतीजावाद, जातिवाद के सहारे चलाने वाले अंतिम समय तक अपना प्रयास कर रहे हैं.